Friday, October 25, 2013

हिन्दुस्तान का मुस्लिम समाज बहुत ही ग़ैरमसावी [unequal] समाज है. यहाँ लोगों के बीच और मुख़्तलिफ़ ज़ातों/तबक़ों के बीच समाजी, सियासी और इक़्तसादी नाबराबरी है जो पुश्त दर पुश्त बरक़रार रहती है. पुश्त दर पुश्त बरक़रार रहने वाली इस नाबराबरी को inequality trap कह सकते हैं. इस inequality trap को poverty trap की तमसील [analogy] से समझ सकते हैं; जिस तरह poverty trap बताता है कि ग़रीब इसलिए ग़रीब हैं क्यूँकि वो ग़रीब हैं, ठीक इसी तरह inequality trap का तसव्वुर बताता है कि ग़रीब इसलिए ग़रीब हैं क्यूँकि अमीर अमीर हैं.

समाज का बरसरे इक़्तदार तबक़ा समाज के मुख़्तलिफ़ इंस्टीट्यूशन्स पर अपनी पेशवाई (hegemony) और पकड़ को मज़बूत बनाए रखते हुए बराबरी के तीनों महवर (axes)—इक़्तसादी (economic), समाजी (social) और सियासी (political)—से ख़ास तबक़े को इक़्तसादी नाबराबरी, सोशल एक्सक्लूश्ज़्न और सियासी हाशियाबंदी (marginalisation) जैसे हरबों से दलित—पसमान्दा—मेहनतकश तबक़ों को मुसलसल नाबराबरी के जाल में उलझाए रखते हैं.
मिसाल के तौर पर नेशनल नमूना सर्वेक्षण (NSS) का 61वां राउंड (61 Round) बताता है कि हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ का महाना फ़ीकस अखरजात (मंथली परकैपिटा एक्स्पेंडीचर/एम॰पी॰सी॰ई॰) रु 620 है और मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰ का रु 605 है जबकि मुस्लिम अगड़ी (सामान्य) जाति का रु 633 हैं इस तरह मुस्लिम अशराफ़ आमदनी के लेहाज़ से न सिर्फ़ पसमान्दा मुस्लिम (मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰) से आगे है बल्कि वो हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ से भी आगे है. और जहां तक समाजी मोर्चे की बात है तो यह बात ढकी-छुपी नहीं कि यह सिर्फ़ कहने को है कि एक सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ आयाज़, न कोई बंदा रहा न बंदा नवाज़, मस्जिद की चौखट पार करते ही महमूद महमूद हो जाता है और बंदा नवाज़ बंदा नवाज़. यह शेर दलित–पसमान्दा मुसलमानों के लिए मात्र छलावा रहा है. एक सय्यद के लिए एक हलालख़ोर (भंगी) उतना ही अछूत है जितना एक ब्राहमण के लिए एक हिन्दू भंगी. सियासत में हिस्सेदारी का मुआमला तो और भी दीगर गूँ है – एक अध्ययन के मुताबिक़ अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की फेहरिस्त उठा कर देखें तो पाएंगे कि तब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ़ और केवल 60 पसमान्दा तबक़े से थे. अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफ़िया आबादी 2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी  नुमाइंदगी 4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज्यादा है. वहीँ दूसरी ओर पसमान्दा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है. भारत में मुसलमानों की आबादी के मुताबिक़ कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे. इसलिए सिर्फ़ चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, मगर आंकड़ों का ठीक से मुआयना करने पर देखेंगे कि अगड़े मुसलमानों (अशराफ़) को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है. ये तो पिछड़े (पसमान्दा) मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है.


अब सवाल उठता है कि, inequality trap से निजात कैसे मिले? तो जनाब, बराबरी के तीनों महवर (axes)—इक़्तसादी (economic), समाजी (social) और सियासी (political) के लिए तीन टूल्स—रीडिस्ट्रिब्यूशन (redistribution), रिकगनीशन (recognition) और पार्टीसीपेशन (participation) की ज़रूरत दरकार है. इक़्तसादी नाबराबरी को दूर करने के लिए वसाएल (resources) का रीडिस्ट्रिब्यूशन (redistribution) करना होगा, मसलन लैंड रेफ़ोर्म (land reform), रोज़गार की गारंटी व फ़राहमी वग़ैरा. समाजी मसवात के लिए अशद ज़रूरी है कि दलित व पसमान्दा को समाजी रिकगनीशन मिले और इसके लिए समाज को ज़्यादा से ज़्यादा डेमोक्रेटाइज़ करने कि ज़रूरत है और पसमान्दा तब्क़ात को सियासी (एलेक्टोरल के साथ साथ नॉन-एलेक्टोरल) हिस्सेदारी उनके आबादी के तनासुब (proportion) में दी जाए.

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