Friday, October 25, 2013

मज़ारों—मुजाविरों—सज्जादानशीनों—गद्दीनशीनों—ख़ानक़ाहों ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों को लगातार पस्ती में रखा है; ये तब्क़ा हमेशा बरसरे इक़्तदार तब्क़ा, हुक्मरान तब्क़ा से हमेशा या तो जुगलबंदी की है, और या दस्त-बस्ता दुम हिलाने वाले अंदाज़ से पाबोसी की है। और अब इस नियो-लिबरल दुनियाँ में जब मल्टी-नेशनल्ज़ की इज़ारदारी ज़ोरों पर है तो ये उनके प्रोडक्टस के प्रमोशन और ऐडवरटीज़मेंट में लगे हुए हैं। मसलन, अब तो क़रीब-क़रीब ये आम मश्गिला बन गया है—किसी फ़िल्म के रिलीज़ होने से पहले उसके अदाकार मय डाइरेक्टर और प्रोड्यूसर के अक्सर दरगाहों पर पहुँचते हैं और अपनी फ़िल्म का प्रमोशन करते हैं और नवाज़े जाते हैं। रही बात हुक्मरान तब्क़े के सामने दुम हिलाने की तो बी॰बी॰सी॰ की रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ कि कैसे मध्‍यप्रदेश की भाजपा सरकार नें बाक़ायदा छह-सात रेलगाड़ियों के ज़रिये, सरकारी ख़र्च पर मुस्लिम बुजुर्गो को अजमेर शरीफ़ की ज़ियारत करवाई है (सनद रहे कि जितने ज़्यादा ज़ाएरीन आएंगे उतना ही ज़्यादा रेवेन्यू जेनरेट होगा)। ये शायद उस बात का इनाम है जो यहाँ (अजमेर शरीफ़) के ख़ुद्दामों ने पिछले दिनों आर॰एस॰एस॰ के गणवेश धारी कार्यकर्ताओं (गुंडों) का ख़ैरमक़्दम (स्वागत) फूल बरसा कर किया था।

No comments: