लेनिन नें अपने
मज़मून “जदलियात के सवाल के बारे में” कहा है—“किसी एक कुल की
दो हिस्सों में तक़सीम और उसके मुताज़ाद अजज़ा का वक़ूफ़...” उन्हों ने
मज़ीद कहा—“जदलियात दरअस्ल उस तज़ाद का मुताअला है जो अशिया की माहियत
में मौजूद होता है.”
माद्दी जदलियात के काएनाती
तसव्वुर की रु से किसी शै की नशोनुमा को समझने के लिए हमे उसका मुताअला अंदर से और
दूसरी अशिया के साथ उसके ताल्लुक़ात से करना चाहिए. बअल्फ़ाज़े दीगर अशिया की नशोनुमा
को उनकी दाख़िली और ज़रूरी हरकत की ज़ात के
तौर पर देखना चाहिए, जबकि हर शै अपनी हरकत में अपने गिर्द-ओ-पेश अशिया से बाहमी तौर पर वाबस्ता
होती है और उनपर बाहमी तौर पर असरअन्दाज़ होती है. किसी शै की
नशोनुमा का बुनियादी सबब ख़ारिजी नहीं बल्कि दाख़िली होता है, ये सबब उस शै के अंदर की तज़ादियात में मुज़्मिर होता है.
समाज में तब्दीलियाँ ज़्यादातर समाज के
दाख़िली तज़ादात की नशोनुमा की वजह से होती हैं, यानी पैदावारी क़ूवतों और पैदावारी रिश्तों
के दरमियान तज़ाद, तब्क़ात के दरमियान तज़ाद, क़दीम और जदीद के दरमियान तज़ाद, ये उन तज़ादात की
नशोनुमा ही है जो समाज को आगे बढ़ाती है और नए समाज के हाथों पुराने समाज के ख़ात्मे
के लिए क़ूवत मुहय्या करती है. क्या माद्दी जदलियात ख़ारिजी असबाब को नज़रअंदाज़ कर
देती है? हरगिज़ नहीं. इसकी रु से ख़ारिजी असबाब तब्दीली की
शर्त होते हैं और दाख़िली असबाब तब्दीली की बुनियाद होते हैं,
और ख़ारिजी असबाब दाख़िली असबाब के ज़रिए ज़ेरे अमल आते हैं.
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