Friday, October 25, 2013

पिछले हफ़्ते, मेरे एक दोस्त, जो यहीं जे॰एन॰यू॰ में रिसर्च कर रहे हैं, कहने लगे कि—मुसलमानों में कोई ज़ात-पात नहीं. यह तो सिर्फ़ गाँव तक ही महदूद है. शहर में तो ये गुज़रे ज़माने की बात है; और अगर है भी  तो उसकी जकड़न उतनी मज़बूत नहीं वग़ैरा वग़ैरा. मैंने उनसे अर्ज़ कियाजनाब ऐसा जजमेंटल स्टेटमेंट देने से पहले एक छोटी सी एम्पिरिकल एनालिसिस करलें फ़िर किसी नतीजे पर पहुँचे. सारी बात इसी छोटे से मुताअले से वाज़ेह हो जाएगी, इसके लिए कोई बहुत बड़ी रिसर्च की ज़रूरत नहीं. अगर आप ने थोड़ा-बहुत रिसर्च मेथड्स पढ़ा हो अगर न भी पढ़ा हो तो कोई बात नहीं बस आप इतना करें कि आप, सैंपल के तौर, इस शहर के किसी हिस्से या मोहल्ले को रैंडमली चुन लें फिर यह देखने की कोशिश करें कि—क्या नाई का काम, मोची का काम, धोबी, दर्ज़ी या सफ़ाई का काम अशराफ़—शेख़, सय्यद, मुग़ल, पठान—कर रहा है? अगर जवाब मुसबत (हाँ) में मिले तो या माना जा सकता है कि शहरों के मुसलमानों में ज़ात-पात की जकड़न उतनी मज़बूत नहीं.

एक हफ़्ते हो गए हैं उनका तो कोई अता-पता नहीं [अमीर ख़ुसरो के लफ़्ज़ों में—...न आप आए न भेजी चिठियाँ]. बहेरहाल, पर इतना तो ज़रूर है कि मुन्दरज़ा बाला (written above) सवाल का जवाब नफ़ी (नहीं) में मिलने के बहुत ही हाई चांसेज़ हैं....

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