Friday, October 25, 2013

ईद की छुट्टियों के दौरान फ़ुरसत के अवक़ात में, अल-रिसाला की पुरानी फाइल्स की वरक़ गरदानी करते हुए, मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान का एक लेख एक सफ़र [अल-रिसाला, जुलाई 1987, अंक 128] आँखों से गुज़रा, जिसमें मौलाना ख़ान साहब ने, दिल्ली से इलाहाबाद, इलाहाबाद से बॉम्बे, बॉम्बे से आजमगढ़ और आजमगढ़ से दिल्ली के सफ़र की रुदाद में कई लोगों—अनवर आली ख़ान सोज़’, नसर हशमत, सुरेश मंचंदानी और अपने भाई इक़बाल अहमद सुहैल—का ज़िक्र तो बड़े ही एहतराम से किया है और वहीं दूसरी ओर एक दलित व्यक्ति का ज़िक्र सिर्फ़ एक हरिजन कह कर किया गया है. इस लेख को पढ़ते हुए हल ही में अनिल चमड़िया जी के जनसत्ता में प्रकाशित दो लेख—जातिवादी मानस की परतें और खंडित दृष्टि का समाज [क्रमशः 10 एवं 11 जुलाई, 2013] याद आ गए. आख़िर एक इंसान को इंसान न समझ करके उसे उसकी जाति से जाना जा रहा है.


यह भी अजीब बात है कि, कोई भी सवर्ण व्यक्ति चाहे जिस भी मज़हब—हिन्दू, इस्लाम, ईसाई या सिख—का हो, पढ़ा-लिखा हो या जाहिल उसका एक दलित को ट्रीट करने का तरीक़ा एक ही है——हिक़ारत! मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान को क्या जातिवादी नहीं कहेंगे?? अगर यह मान भी लें कि वे जातिवादी नहीं हैं, तो क्या उनके भीतर जातीय भावना होने से भी इंकार किया जा सकता है?? इस्लाम तो मसावात सिखाता है. बात-बात में क़ुरान और हदीस का हवाला देने वाले उलमा जब जातिवादी मानसिकता से निजात नहीं पा सके हैं, तो आम अशराफ़िया का क्या कहा जाये???

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