एक समाज दुनिया का है. एक समाज
हिंदुस्तान का है. एक समाज हिंदुओं का है. एक समाज मुसलमानों का है. और
हिंदुस्तानी मुसलमान का समाजी निज़ाम (social structure),
मास्जिद-मज़ार-दरगाह-ख़ानक़ाह
के निज़ाम के इर्दगिर्द घूमता है, जिसके पास जदीद
तालीमी निज़ाम से इस्तफ़ादा का कोई प्रोग्राम नहीं. जदीद तालीम—मसवात और समाजी इन्साफ का सब से बड़ा ज़रिया होने के साथ साथ—इंसानी सरमाये
[human capital] का अहेम जुज़ है. चुनाँचे, एक
मसावी समाज [egalitarian society] के लिए, आम लोगों की जदीद तालीम तक रसाई को यक़ीनी बनाना यक़ीनन नागुज़ीर है.
मुसलमानों की बड़ी तादाद मदरसों से
वाबस्ता है या फिर वह सरकारी स्कूलों में तालीम हासिल कर रही है (सच्चर कमेटी
रिपोर्ट भी इस बात की तसदीक़-ओ-अक्कासी करती है). मगर वो आरज़ूएँ और उमंगें पूरी होने
की क्या कहिए जो अभी जगी ही नहीं हैं,
जो जदीद, असरी और
अंग्रेज़ी तालीम के आला मेयार को हासिल करने से वाबस्ता हैं.
गरचे, कुछ अक़लियती तालीमी
इदारे ज़रूर हैं जहां जदीद तालीम का भी इंतेज़ाम है लेकिन इन इदारों का नज़्म-ओ-नस्क़
ऐसे लोगों के हाथों में है,
जो अंग्रेज़ी
तालीमयाफ़्ता और जदीद ज़हन के इंसान होते हुए भी ख़ानक़ाही सिस्टम की पैदावार हैं और
इस सिस्टम को बिलवास्ता या बिलावास्ता [directly or indirectly] फ़रोग़ [perpetuate] दे रहे हैं. इस तरह इन्हों ने तालीम के रास्ते रूपये बनाने का काम कर
रखा है. इनके निज़ाम-ए-तालीम से अमीर लोग इस्तफ़ादा कर रहे हैं और हिंदुस्तान में
आला ज़ात (तब्क़-ए-अशराफ़िया) के लोग इन से फ़ायदा उठा रहे हैं, इस तरह ये लोग
अदम मसावात [inequality], ग़ैर शमूलियत [exclusion] और इम्तियाज़ात [discrimination] को भी फ़रोग़ दे रहे
हैं.
अब बचे ग़रीब और पसमान्दा —जिनके लिए
मदरसे हैं या तो सरकारी स्कूल, जो मदरसे हैं वो तो उन्हे कूप-मंडूक बना
रहे हैं रही बात सरकारी स्कूलों की, तो इनके बारे मज़ीद कहने
की ज़रूरत ही नहीं.
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