Friday, October 25, 2013

सच्चर कमेटी का अहेम तरीन हिस्सा है—अंदरूनी तक़सीम [internal division] पर बहेस, जो हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज में तारीख़ी एतबार से मौजूद रहा है. आम तसव्वुर यह था कि मुसलमानों में कोई ज़ात-पात नहीं—मुस्लिम सोसाइटी एक मोनोलिथ सोसाइटी है—लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि यह ज़ातों और बिरादरियों में मुनक़िस्म [divided] हैं. यहाँ ज़ात पात की उतनी ही मज़बूत दर्जाबंदी [stratification] है जितनी कि हिन्दू फ़िरक़े में. मोटे तौर पर मुस्लिम फ़िरक़ा तीन स्ट्रेटा—अशराफ़, अजलाफ़ और अर्ज़ाल—में बटा हुआ है. यही अजलाफ़ और अर्ज़ाल मजमुई तौर पर पसमान्दा हैं. तरक़्क़ीयाती सहूलियात तक रसाई का इनहसार इन ग्रुपों/स्ट्रेटा के महल वक़ूअ पर है. दीगर अल्फ़ाज़ में यह कहा जा सकता है कि अशराफ़ कि हालत आम तौर से अच्छी है. अजलाफ़ कि हालत निसबतन बुरी है और अर्ज़ाल सबसे ख़राब हालत में हैं.

मुसबत कार्रवाई तरक़्क़ी की सहूलतों तक रसाई बढ़ाने और मसावात को फ़रोग़ के लिए मोसर आला है. अब सवाल उठता है, आया कि मुसबत कार्रवाई पूरे फ़िरक़े के लिए की जाए या फ़िर इसका दायरा उन हलक़ों तक महदूद रखा जाए, जो अपनी कमज़ोर मआशी व समाजी पोज़ीशन की वजह से बदस्तूर पिछड़े हुए हैं??


पूरे फ़िरक़े के लिए मुसबत कार्रवाई—टोटल मुस्लिम रिज़र्वेशन [टी॰एम॰आर॰]—की मांग, दर अस्ल, एक कम्यूनल डिमांड है, और हिंदुस्तान का आईन तो क़तई इस बात की इजाज़त नहीं देता कि मज़हब कि बुनियाद पर मुराआत दिया जाए. दूसरे, इंसाफ़ की रु से समाज के सबसे कमज़ोर तब्क़े को मुसबत कार्रवाई में पहला प्रीफ्रेंस मिलना चाहिए. कम से कम जॉन राउल्स (John Rawls) का वेल ऑफ़ इग्नोरेंस (फ़र्स्ट प्रिन्सिपल ऑफ़ जस्टिस) यही कहता है. चुनाँचे, टी॰एम॰आर॰ की मांग करना बेमानी और बेईमानी दोनों हैं.

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