Friday, October 25, 2013

मार्केटिंग गुरु फ़िलिप कॉटलर (Philip Kotler) नें टार्गेट मार्केट्स और सेगमेंटेशन (target market and segmentation) का बुनियादी तसव्वुर (core concept) दिया. उनका कहना था कि मार्केटर को शुरुवात यूँ करनी चाहिए—पहले वह मार्केट को कई हिस्सों में बांटे, जिसको उन्हों ने सेगमेंटेशन करना कहा; फिर जिस सेगमेंट में ज़्यादा मवाक़े (opportunities) हों, उसे वह टार्गेट करे. अगर आप इस तमसील (analogy) से देखें तो हिंदुस्तान का हुक्मरान तब्क़ा—जो सवर्ण मुसलमान और अशराफ़ हिन्दुओं पर मबनी है—ने मार्केटिंग के इस फ़ण्डे (फंदे भी!) को अच्छी तरह से समझ लिया है. इसने पहले हिंदुस्तानी मुसलमानों के मुद्दों—रोज़गार, ग़रीबी, मसावात, समाजी-ओ-इक़्तसादी नाबराबारी, समाजी इंसाफ़ और मज़हबी तअस्सुब (communalism) वग़ैरा वग़ैरा—को मुख़्तलिफ़ सेगमेंट में बांटा, फिर एक ऐसा  सेगमेंट चुना जो उसे ज़्यादा मवाक़े फ़राहम करता हो. ज़ाहिर इसके लिए उसने सेकुलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म का मुद्दा चुना क्यूंकि इससे उनके तब्क़ाती मफ़ादात (class interest) पूरे होते हैं. उनके ये तब्क़ाती मफ़ादात दो तरीक़ों से पूरे होते हैं. पहला यह कि, सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म के इस डिबेट में समाजी इंसाफ़ और मुआशरे के अंदरूनी तज़ादात (internal conflicts) जैसे मुद्दे पसे पुश्त चले जाते हैं, दाख़िली जम्हूरियत (internal democracy) का मुद्दा पीछे ढकेल दिया जाता है इस तरह स्टेटस कू (status quo) बना रहता हैवे अपने अपने ओहदों और मक़ाम पर फ़ाईज़ रहते हैं, समाजी निज़ाम ज्यों का त्यों बना रहता है—समाज के मुख़्तलिफ़ इन्सटीट्यूशन (इदारों) पर उनकी पकड़ न सिर्फ़ बनी रहती है बल्कि और मज़बूत भी हो जाती है. दूसरे यह कि, सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म के खेल में समाज के किन लोगों को फ़ायदा होता है? कौन हैं वो लोग? आख़िर सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म का जिन्न चुनाव के ही दिनों में, क्यूँ बाहर निकाल आता है? और भाई इसका इलाज है भी या नहीं! पहले तीन सवालों के जवाब से आप बख़ूबी वाक़िफ़ होंगे; फिर भी , कुछ लोग/एन॰जी॰ओ॰ चॅंपियन्स ऑफ माइनोरिटी पॉलिटिक्स बने हुए हैं और अपने कारोबार को बख़ूबी मुनज़्ज़्म तरीक़े से चला रहे हैं. अब सवाल उठता है कि कम्यूनलिज़्म के भूत को कैसे भगाया जाए? कम्यूनलिज़्म को शिकस्त देने का सिर्फ़ वाहिद रास्ता है—सारे धर्मों/मज़हबों की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता! सारे मज़ाहिब (धर्मों) की कमज़ोर ज़ातों की एकता, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक विमर्श को कमज़ोर बनाएगी ही नहीं बल्कि, यह सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या भी करेगा.


चुनाँचे, ज़रूरत इस बात कि है कि दलित-मुसलमान और पसमान्दा-हिन्दुओं के बीच एकता क़ायम की जाए और तब्क़-ए-अशराफ़िया (हुक्मरान तब्क़ा) के मार्केटिंग के फंदे को ध्वस्त किया जाय.

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