जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने सरमायेदाराना निज़ाम (पूंजीवाद) के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक
अधिनायकवाद' को दोषी माना है. ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया की ‘सक़ाफ़ती अनानियत’ [Cultural Hegemony] भी, एक हद तक, ज़िम्मेदार है. मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृति को, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा—शेर-ओ-शाइरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से
जाना जाता है, इस संस्कृति
का संस्थानीकरण [Institutionalization]
मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है.
बज़रिये सक़ाफ़ती अनानियत, अशराफ़िया—समाजी क़द्रों (सामाजिक
मूल्यों) और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में मनमाना रूप देकर—इन संस्थाओं
और मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है. दूसरी ओर, हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा
मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त का कोई ज़िक्र नहीं—नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर में कोई स्थान
नहीं. यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों, सामाजिक-नितृत्वशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम संस्कृति के
विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है. मिसाल के
तौर पर हाल ही—2013—में बरजोर अवारी ने अपनी पुस्तक ‘इस्लामिक
सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशिया’—में भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम
संस्कृति को क़व्वाली, ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है; पसमान्दा
मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी.
इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर
अशराफ़िया का आधिपत्य सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है. चुनाँचे, समाजी
ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास में और मुस्लिम समाज की
दाख़िली जम्हूरियत (आंतरिक लोकतांत्रिकरण) के लिए, समानांतर संस्कृति का विकास और पसमान्दा संस्कृति को मुख्य धारा मे
लाना भी ज़रूरी है...
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