Friday, October 25, 2013

मंसूबा बंदी कमीशन (planning commission) ने हाल ही में, साल 2011-12 के लिए ग़ुरबत का तख़्मीना (poverty estimates) पेश किया है; इसमे ख़त-ए-इफ़लास (ग़रीबी रेखा) से नीचे के लोगों के तनासुब (प्रतिशत) का अंदाज़ा लगाया गया है. इस तख़्मीने में कहा गया—देही इलाक़ों (ग्रामीण क्षेत्रों) की 25.7% आबादी और शहरी इलाक़ों की 13.7% आबादी और पूरे मुल्क की  21.9% आबादी ख़त-ए-इफ़लास (poverty line) से नीचे है. चुनाँचे, शहरी और देही (rural) आमदनी में वाज़ेह फ़र्क़ दिखाई देता है. यह याद रहे की देहातों की क़ीमत पर शहर कभी तरक़्क़ी नहीं कर सकते. देहातों की तरक़्क़ी शहरों की तरक़्क़ी की ज़ामिन है. लेकिन सरमायादारी निज़ाम (capitalist system) देहातों को खा रहा है. नियो-मार्क्सियन (neo-Marxian) नज़रिये से देखें तो देहातों का सरप्लस शहरों में पहुंचाया जारहा है. इस में एक उनसुर सट्टा बाज़ारों (स्टॉक मार्केट) का है जिन्हों ने आराज़ी को इतना महंगा कर दिया की आम आदमी के लिए सर छुपाने के लिए साएबान बनाना दुश्वार हो गया है. ज़रई इस्तलाहात (agricultural reforms) देही तरक़्क़ी (rural development) के लिए ज़रूरी है वरना सरमायादाराना काश्तकारी से छोटे काश्तकार गुरबत की वजह से शहरों में दाख़िल होते रहेंगे. नियो-मार्क्सियन नज़रिया इसकी वज़ाहत यूँ करता है—एक सरमायादाराना निज़ाम में समायेदार को प्रॉडक्शन बढ़ाने के लिए ज़्यादा, सस्ता और आसानी से कंट्रोल किए जा सकने वाले मज़दूरों की ज़रूरत होती है और भारी तादाद में छोटे काश्तकार जो शहरों में दाख़िल होते हैं वे दरअस्ल रिज़र्व्ड आर्मी ऑफ लेबर होते हैं, टेक्नोलोजिकल इनोवेशन और अर्बन ट्रांसफ़ारमेशन इस अमल—काश्तकारों की मज़दूरों के शक्ल में शहरों में मुंतक़्ली—को फ़राहम करता है. सट्टा बाज़ारी (speculation) और आज़ाद मार्केट (free market) के ज़रिये क़ीमतों के तअय्युन नें दुनिया को मुश्किल में डाल दिया है इसलिए हिंदुस्तान की तरक़्क़ी हो या ब्राज़ील की इस का इनहसार बारआमदात और आज़ाद तिजारत पर है जिसमें टेकनालोजी का रोल अहेम है लेकिन करेंसी के खेल ने भी ऐसे मद-ओ-जज़र पैदा कर दिये हैं कि दुनिया चंद बड़े साहूकारों के अलावा तमाम मुमालिक क़र्ज़ों और ख़सारों में फंसे हुए हैं इसीलिए अमेरिका के नोबेल इनामयाफ़्ता आलिमी बैंक के साबिक़ मुशीर जोज़ेफ स्टिग्लिट्ज़ अपनी किताब नाबराबरी की क़ीमत (The Price of Inequality) में लिखा है कि अमेरिका को ज़्यादा सोशलिज़्म और कम कैपिटलिज़्म की ज़रूरत है. और यही बात हिंदुस्तान के लिए भी सच है. नोम चोम्सकी  ने प्रॉफ़िट ओवर पीपल (Profit over People) में नियोलिबरलाईज़ेशन (neo-liberalization) को इर्तकाज़ दौलत का सबब समझा है उन का सिर्फ़ ऑफर यह है कि दुनिया रहने के क़ाबिल बनाना है तो एक मुंसिफ़ाना मआशी मॉडल की अशद ज़रूरत है.

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