ग्लोबलाईज़ेशन (globalisation) ने इंडस्ट्रियलाइज़ेशन (industrialisation) की जगह
फानांसियालाईज़ेशन (financialization) को मुतआरुफ़ करा के
करेंसी के ज़रिये दुनिया के मुल्कों के वसाएल पर क़ब्ज़ा करना जारी रखे हुए है, जबकि अमेरिका के नोबेल इनामयाफ़्ता आलिमी बैंक (world bank) के साबिक़ मुशीर जोज़ेफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph
Stiglitz) अपनी किताब ‘नाबराबरी की
क़ीमत’ (The Price of Inequality) में लिखा है कि
अमेरिका जब क़र्ज़दार नहीं था और तरक़्क़ी के उरुज पर था उस वक़्त अमेरिका के साहूकार
और सरमायादार मुल्क के अंदर सरमायाकारी (investment) को तरजीह देते थे और
सरमायाकारी बराए रोज़गार (मुलाज़िमत) की जाती थी लेकिन सट्टाबाज़ी (speculation)
और करेंसियों के खेल ने सरमायाकारी का रंग बदल दिया है और अब यह
सरमायाकारी “ग्लोबलाईज़्ड” (globalised) हो गयी है और सरमायाकारी सिर्फ़
मुनाफ़े के लिए होती है. यह नुक्ता, यह बात अक्सर मुल्क की
मईशत के मैनेजरों को समझ नहीं आती कि कार्ल
मार्क्स ने क्यूँ मुनाफ़ा और सूद को जोड़कर “सरप्लस वैल्यू” (“surplus value”) का नज़रिया दिया था. वह इसलिए कि क़यासआराईयों और सट्टा बाज़ारी के खेल ने “काग़ज़” यानि करेंसी को
शेर बना दिया. 1945 में ब्रेटन वुड्स के तहेत जब आई॰एम॰एफ़॰ और आलिमी बैंक को
मुताआरिफ़ (introduce) कराया गया तो लॉर्ड कीन्स, जो
सरमायादाराना निज़ाम का सबसे बड़ा माहिरे इक़्तसादियात था, उस
ने कहा था कि “क़र्ज़ों के खेल से दुनिया को काग़ज़ी शेर बना दिया जाएगा”. साबिक़ सोविएत
यूनियन के जोज़ेफ स्टालिन ने कहा था कि “अब सरमायादारी
निज़ाम जदीद ग़ुलामी को तौसीक़ कर रहा है”.
क़िस्सा कोताह
यह कि, रुपए की घटती हुई क़ीमत को इसी—फानांसियालाईज़ेशन के पस-ए-मंज़र में देखना
चाहिए.
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