इंसाफ़ (ख़ास तौर पर समाजी इंसाफ़) के लिए ऐसे
समाजी इंतज़ामात की ज़रूरत है जिसमे सभी लोगों का समाजी-सियासी ज़िंदगी में साथियों (peers) के तौर पर हिस्सा लेना यक़ीनी बनाया जा सके. नाइंसाफ़ी पर क़ाबू पाने का
मतलब है ऐसी संस्थागत बाधाओं (institutionalized obstacles)
को ख़त्म करना जो कुछ लोगों को दूसरों के साथ समाजी तअल्लुक़ात (social
interaction) में मुकम्मल व बराबर का हिस्सा लेने में रोड़ा अटकाती
हैं. इन संस्थागत बाधाओं—इक़्तसादी ढांचा (economic structure), इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी, एक्सक्ल्यूश्ज़्न (exclusion) और प्रोसीजर्स (procedures) के हवाले से भी देख
सकते हैं. इक़्तसादी ढांचा जो समाज के पिछड़े लोगों (पसमान्दा) की उन वासएल तक की
रसाई को महदूद करता हो जिसके ज़रिए उनकी समाजी ज़िंदगी में बराबर की हिस्सेदारी
होसके; इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी दरअस्ल, सक़ाफ़ती इक़दारों की दर्जाबंदी (हाईरारकी) है जो पसमान्दा को मतलूबा
स्टैंडिंग से रोक सकती हैं और रही बात एक्सक्लूश्ज़्न की, तो
जनाब इसके ज़रिए एक ख़ास तब्क़े को उसकी शिनाख़्त (आइडैनटिटी) की बिना पर समाजी-सियासी
हिस्सेदारी से महरूम कर दिया जाता है, मुखतलिफ़ क़िस्म के
प्रोसीजरल नार्म्स—एक्सक्लूश्ज़्न का मोसर हरबा—बराबर की हिस्सेदारी में रुकावट
पैदा करते हैं.
अब सवाल उठता है कि, समाजी इंसाफ़ मे हाएल इन संस्थागत बाधाओं से निजात कैसे मिले? मोटे तौर पर इन तीन संस्थागत बाधाएं—इक़्तसादी ढांचा, इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी और एक्सक्ल्यूश्ज़्न से निजात के लिए, तीन टूल—रीडिस्ट्रिब्यूशन (redistribution),
रिकगनीशन (recognition) और पार्टीसीपेशन (participation) हैं. इन तीनों टूल्स का कारगर इस्तेमाल इस बात पर मुनहसर करता है कि
तब्क़-ए-पसमान्दा की सियासी समझ ओ शऊर क्या है और वो अपने हक़-ओ-हुक़ूक़ की लड़ाई को
लेकर कितना बेदार है...
इस ज़मन में, "पसमांदा स्टूडेंट्स फ़ोरम, जे॰एन॰यू॰" मुस्लिम समाज के दबे-कुचले-दलित (पसमान्दा)
लोगों की मुख्य-धारा में शमूलियत के लिए जारी किए गए विमर्श का हिस्सा है और दिन-ब-दिन
इस विमर्श को आगे बढ़ा रहा है.
No comments:
Post a Comment