Friday, October 25, 2013

हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में वसाएलसमाजी, मआशी और सक़ाफ़तीकी ग़ैर-मसावी तक़सीम [unequal distribution] है. इन वसाएल का असमान वितरणजो दर हक़ीक़त एक स्ट्रकचरल प्रॉबलम हैही समाजी ग़ैर बराबरी को जनम व फ़रोग़ देता है. माहिरे समाजियात पीएरे बोर्द्यू (Pierre Bourdieu) का मानना है कि पावर और प्रिविलेज वासएल [resources] की ग़ैर-मसावी तक़सीम का नतीजा और सबब दोनों हैं. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सरमाये के ये तीन इक़्सामसमाजी, मआशी और सक़ाफ़तीका इंट्रैकशन ही समाज में पावर डिस्ट्रिब्यूशन को तय करता है. समाज का जो तबक़ा इन वसाएल पर क़ाबिज़ होता है, पावर और प्रिविलेज उसी तबक़े की मीरास होती है. अब चूँकि पावर और प्रिविलेज पर क़ब्ज़े का अमल दरअस्ल ज़ीरो सम गेम (zero-sum game) है चुनांचे यह समाज में ग़ैर बराबरी और अदम मसावात को पैदा करेगा ही.


तारीख़ी एतबार से, तब्क़-ए-अशराफ़ का सरमाये तीनों इक़्साम पर पूरा क़ब्ज़ा रहा है जिसके नतीजे में पसमान्दा हमेशा से ग़ैर बराबरी का सामना करते रहे हैं. अब ज़रूरत इस बात की है पावर और प्रिविलेज के ज़ीरो सम गेम को नॉन-ज़ीरो सम गेम में बदला जाए जिसके लिए ज़रूरी है की वसाएल का मसावी बटवारा. और इस मसावी बटवारे की पहली शर्त है दाख़िली जम्हूरियत [internal democratization].
सच्चर कमेटी का अहेम तरीन हिस्सा है—अंदरूनी तक़सीम [internal division] पर बहेस, जो हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज में तारीख़ी एतबार से मौजूद रहा है. आम तसव्वुर यह था कि मुसलमानों में कोई ज़ात-पात नहीं—मुस्लिम सोसाइटी एक मोनोलिथ सोसाइटी है—लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि यह ज़ातों और बिरादरियों में मुनक़िस्म [divided] हैं. यहाँ ज़ात पात की उतनी ही मज़बूत दर्जाबंदी [stratification] है जितनी कि हिन्दू फ़िरक़े में. मोटे तौर पर मुस्लिम फ़िरक़ा तीन स्ट्रेटा—अशराफ़, अजलाफ़ और अर्ज़ाल—में बटा हुआ है. यही अजलाफ़ और अर्ज़ाल मजमुई तौर पर पसमान्दा हैं. तरक़्क़ीयाती सहूलियात तक रसाई का इनहसार इन ग्रुपों/स्ट्रेटा के महल वक़ूअ पर है. दीगर अल्फ़ाज़ में यह कहा जा सकता है कि अशराफ़ कि हालत आम तौर से अच्छी है. अजलाफ़ कि हालत निसबतन बुरी है और अर्ज़ाल सबसे ख़राब हालत में हैं.

मुसबत कार्रवाई तरक़्क़ी की सहूलतों तक रसाई बढ़ाने और मसावात को फ़रोग़ के लिए मोसर आला है. अब सवाल उठता है, आया कि मुसबत कार्रवाई पूरे फ़िरक़े के लिए की जाए या फ़िर इसका दायरा उन हलक़ों तक महदूद रखा जाए, जो अपनी कमज़ोर मआशी व समाजी पोज़ीशन की वजह से बदस्तूर पिछड़े हुए हैं??


पूरे फ़िरक़े के लिए मुसबत कार्रवाई—टोटल मुस्लिम रिज़र्वेशन [टी॰एम॰आर॰]—की मांग, दर अस्ल, एक कम्यूनल डिमांड है, और हिंदुस्तान का आईन तो क़तई इस बात की इजाज़त नहीं देता कि मज़हब कि बुनियाद पर मुराआत दिया जाए. दूसरे, इंसाफ़ की रु से समाज के सबसे कमज़ोर तब्क़े को मुसबत कार्रवाई में पहला प्रीफ्रेंस मिलना चाहिए. कम से कम जॉन राउल्स (John Rawls) का वेल ऑफ़ इग्नोरेंस (फ़र्स्ट प्रिन्सिपल ऑफ़ जस्टिस) यही कहता है. चुनाँचे, टी॰एम॰आर॰ की मांग करना बेमानी और बेईमानी दोनों हैं.
ईद की छुट्टियों के दौरान फ़ुरसत के अवक़ात में, अल-रिसाला की पुरानी फाइल्स की वरक़ गरदानी करते हुए, मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान का एक लेख एक सफ़र [अल-रिसाला, जुलाई 1987, अंक 128] आँखों से गुज़रा, जिसमें मौलाना ख़ान साहब ने, दिल्ली से इलाहाबाद, इलाहाबाद से बॉम्बे, बॉम्बे से आजमगढ़ और आजमगढ़ से दिल्ली के सफ़र की रुदाद में कई लोगों—अनवर आली ख़ान सोज़’, नसर हशमत, सुरेश मंचंदानी और अपने भाई इक़बाल अहमद सुहैल—का ज़िक्र तो बड़े ही एहतराम से किया है और वहीं दूसरी ओर एक दलित व्यक्ति का ज़िक्र सिर्फ़ एक हरिजन कह कर किया गया है. इस लेख को पढ़ते हुए हल ही में अनिल चमड़िया जी के जनसत्ता में प्रकाशित दो लेख—जातिवादी मानस की परतें और खंडित दृष्टि का समाज [क्रमशः 10 एवं 11 जुलाई, 2013] याद आ गए. आख़िर एक इंसान को इंसान न समझ करके उसे उसकी जाति से जाना जा रहा है.


यह भी अजीब बात है कि, कोई भी सवर्ण व्यक्ति चाहे जिस भी मज़हब—हिन्दू, इस्लाम, ईसाई या सिख—का हो, पढ़ा-लिखा हो या जाहिल उसका एक दलित को ट्रीट करने का तरीक़ा एक ही है——हिक़ारत! मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान को क्या जातिवादी नहीं कहेंगे?? अगर यह मान भी लें कि वे जातिवादी नहीं हैं, तो क्या उनके भीतर जातीय भावना होने से भी इंकार किया जा सकता है?? इस्लाम तो मसावात सिखाता है. बात-बात में क़ुरान और हदीस का हवाला देने वाले उलमा जब जातिवादी मानसिकता से निजात नहीं पा सके हैं, तो आम अशराफ़िया का क्या कहा जाये???
जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने सरमायेदाराना निज़ाम (पूंजीवाद) के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है. ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया की सक़ाफ़ती अनानियत [Cultural Hegemony] भी, एक हद तक, ज़िम्मेदार है. मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृति को, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा—शेर-ओ-शाइरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से जाना जाता है, इस संस्कृति का संस्थानीकरण [Institutionalization] मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है.  बज़रिये सक़ाफ़ती अनानियत, अशराफ़िया—समाजी क़द्रों (सामाजिक मूल्यों) और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में मनमाना रूप देकर—इन संस्थाओं और मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है. दूसरी ओर, हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त का कोई ज़िक्र नहीं—नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर में कोई स्थान नहीं. यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों, सामाजिक-नितृत्वशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम संस्कृति के विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है. मिसाल के तौर पर हाल ही—2013—में बरजोर अवारी ने अपनी पुस्तइस्लामिक सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशियामें भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम संस्कृति को क़व्वाली, ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है; पसमान्दा मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी.


इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर अशराफ़िया का आधिपत्य सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है. चुनाँचे, समाजी ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास में और मुस्लिम समाज की दाख़िली जम्हूरियत (आंतरिक लोकतांत्रिकरण) के लिए, समानांतर संस्कृति का विकास और पसमान्दा संस्कृति को मुख्य धारा मे लाना भी ज़रूरी है...
एक समाज दुनिया का है. एक समाज हिंदुस्तान का है. एक समाज हिंदुओं का है. एक समाज मुसलमानों का है. और हिंदुस्तानी मुसलमान का समाजी निज़ाम (social structure), मास्जिद-मज़ार-दरगाह-ख़ानक़ाह के निज़ाम के इर्दगिर्द घूमता है, जिसके पास जदीद तालीमी निज़ाम से इस्तफ़ादा का कोई प्रोग्राम नहीं. जदीद तालीममसवात और समाजी इन्साफ का सब से बड़ा ज़रिया होने के साथ साथ—इंसानी सरमाये [human capital] का अहेम जुज़ है. चुनाँचे, एक मसावी समाज [egalitarian society] के लिए, आम लोगों की जदीद तालीम तक रसाई को यक़ीनी बनाना यक़ीनन नागुज़ीर है.

मुसलमानों की बड़ी तादाद मदरसों से वाबस्ता है या फिर वह सरकारी स्कूलों में तालीम हासिल कर रही है (सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी इस बात की तसदीक़-ओ-अक्कासी करती है). मगर वो आरज़ूएँ और उमंगें पूरी होने की क्या कहिए जो अभी जगी ही नहीं हैं, जो जदीद, असरी और अंग्रेज़ी तालीम के आला मेयार को हासिल करने से वाबस्ता हैं.
गरचे, कुछ अक़लियती तालीमी इदारे ज़रूर हैं जहां जदीद तालीम का भी इंतेज़ाम है लेकिन इन इदारों का नज़्म-ओ-नस्क़ ऐसे लोगों के हाथों में है, जो अंग्रेज़ी तालीमयाफ़्ता और जदीद ज़हन के इंसान होते हुए भी ख़ानक़ाही सिस्टम की पैदावार हैं और इस सिस्टम को बिलवास्ता या बिलावास्ता [directly or indirectly] फ़रोग़ [perpetuate] दे रहे हैं. इस तरह इन्हों ने तालीम के रास्ते रूपये बनाने का काम कर रखा है. इनके निज़ाम-ए-तालीम से अमीर लोग इस्तफ़ादा कर रहे हैं और हिंदुस्तान में आला ज़ात (तब्क़-ए-अशराफ़िया) के लोग इन से फ़ायदा उठा रहे हैं, इस तरह ये लोग अदम मसावात [inequality], ग़ैर शमूलियत [exclusion] और इम्तियाज़ात [discrimination] को भी फ़रोग़ दे रहे हैं.


अब बचे ग़रीब और पसमान्दा —जिनके लिए मदरसे हैं या तो सरकारी स्कूल, जो मदरसे हैं वो तो उन्हे कूप-मंडूक बना रहे हैं रही बात सरकारी स्कूलों की, तो इनके बारे मज़ीद कहने की ज़रूरत ही नहीं.
Muslims are not different from the Hindus—caste inequality/discrimination is as prevalent and rooted in the society as in the Hindu society. Interestingly, the social inequality—caste inequality in the form of Ashraf-Pasmanda division—clearly add to class inequality as all the working class forms the Pasmanda as a whole and all the propertied and landed class, which historically cotrolled wealth and power in the form of zamindaari and are still controlling the power structures as they are on the upper rung of power structures, are in fact the Ashrafiya. Muslim society is the classical example which shows how caste inequalities add to class inequalities.
मंसूबा बंदी कमीशन (planning commission) ने हाल ही में, साल 2011-12 के लिए ग़ुरबत का तख़्मीना (poverty estimates) पेश किया है; इसमे ख़त-ए-इफ़लास (ग़रीबी रेखा) से नीचे के लोगों के तनासुब (प्रतिशत) का अंदाज़ा लगाया गया है. इस तख़्मीने में कहा गया—देही इलाक़ों (ग्रामीण क्षेत्रों) की 25.7% आबादी और शहरी इलाक़ों की 13.7% आबादी और पूरे मुल्क की  21.9% आबादी ख़त-ए-इफ़लास (poverty line) से नीचे है. चुनाँचे, शहरी और देही (rural) आमदनी में वाज़ेह फ़र्क़ दिखाई देता है. यह याद रहे की देहातों की क़ीमत पर शहर कभी तरक़्क़ी नहीं कर सकते. देहातों की तरक़्क़ी शहरों की तरक़्क़ी की ज़ामिन है. लेकिन सरमायादारी निज़ाम (capitalist system) देहातों को खा रहा है. नियो-मार्क्सियन (neo-Marxian) नज़रिये से देखें तो देहातों का सरप्लस शहरों में पहुंचाया जारहा है. इस में एक उनसुर सट्टा बाज़ारों (स्टॉक मार्केट) का है जिन्हों ने आराज़ी को इतना महंगा कर दिया की आम आदमी के लिए सर छुपाने के लिए साएबान बनाना दुश्वार हो गया है. ज़रई इस्तलाहात (agricultural reforms) देही तरक़्क़ी (rural development) के लिए ज़रूरी है वरना सरमायादाराना काश्तकारी से छोटे काश्तकार गुरबत की वजह से शहरों में दाख़िल होते रहेंगे. नियो-मार्क्सियन नज़रिया इसकी वज़ाहत यूँ करता है—एक सरमायादाराना निज़ाम में समायेदार को प्रॉडक्शन बढ़ाने के लिए ज़्यादा, सस्ता और आसानी से कंट्रोल किए जा सकने वाले मज़दूरों की ज़रूरत होती है और भारी तादाद में छोटे काश्तकार जो शहरों में दाख़िल होते हैं वे दरअस्ल रिज़र्व्ड आर्मी ऑफ लेबर होते हैं, टेक्नोलोजिकल इनोवेशन और अर्बन ट्रांसफ़ारमेशन इस अमल—काश्तकारों की मज़दूरों के शक्ल में शहरों में मुंतक़्ली—को फ़राहम करता है. सट्टा बाज़ारी (speculation) और आज़ाद मार्केट (free market) के ज़रिये क़ीमतों के तअय्युन नें दुनिया को मुश्किल में डाल दिया है इसलिए हिंदुस्तान की तरक़्क़ी हो या ब्राज़ील की इस का इनहसार बारआमदात और आज़ाद तिजारत पर है जिसमें टेकनालोजी का रोल अहेम है लेकिन करेंसी के खेल ने भी ऐसे मद-ओ-जज़र पैदा कर दिये हैं कि दुनिया चंद बड़े साहूकारों के अलावा तमाम मुमालिक क़र्ज़ों और ख़सारों में फंसे हुए हैं इसीलिए अमेरिका के नोबेल इनामयाफ़्ता आलिमी बैंक के साबिक़ मुशीर जोज़ेफ स्टिग्लिट्ज़ अपनी किताब नाबराबरी की क़ीमत (The Price of Inequality) में लिखा है कि अमेरिका को ज़्यादा सोशलिज़्म और कम कैपिटलिज़्म की ज़रूरत है. और यही बात हिंदुस्तान के लिए भी सच है. नोम चोम्सकी  ने प्रॉफ़िट ओवर पीपल (Profit over People) में नियोलिबरलाईज़ेशन (neo-liberalization) को इर्तकाज़ दौलत का सबब समझा है उन का सिर्फ़ ऑफर यह है कि दुनिया रहने के क़ाबिल बनाना है तो एक मुंसिफ़ाना मआशी मॉडल की अशद ज़रूरत है.
ग्लोबलाईज़ेशन (globalisation) ने इंडस्ट्रियलाइज़ेशन (industrialisation) की जगह फानांसियालाईज़ेशन (financialization) को मुतआरुफ़ करा के करेंसी के ज़रिये दुनिया के मुल्कों के वसाएल पर क़ब्ज़ा करना जारी रखे हुए है, जबकि अमेरिका के नोबेल इनामयाफ़्ता आलिमी बैंक (world bank) के साबिक़ मुशीर जोज़ेफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph Stiglitz) अपनी किताब नाबराबरी की क़ीमत (The Price of Inequality) में लिखा है कि अमेरिका जब क़र्ज़दार नहीं था और तरक़्क़ी के उरुज पर था उस वक़्त अमेरिका के साहूकार और सरमायादार मुल्क के अंदर सरमायाकारी (investment) को तरजीह देते थे और सरमायाकारी बराए रोज़गार (मुलाज़िमत) की जाती थी लेकिन सट्टाबाज़ी (speculation) और करेंसियों के खेल ने सरमायाकारी का रंग बदल दिया है और अब यह सरमायाकारी ग्लोबलाईज़्ड (globalised) हो गयी है और सरमायाकारी सिर्फ़ मुनाफ़े के लिए होती है. यह नुक्ता, यह बात अक्सर मुल्क की मईशत के मैनेजरों को समझ नहीं आती कि कार्ल मार्क्स ने क्यूँ मुनाफ़ा और सूद को जोड़कर सरप्लस वैल्यू (surplus value) का नज़रिया दिया था. वह इसलिए कि क़यासआराईयों और सट्टा बाज़ारी के खेल ने काग़ज़ यानि करेंसी को शेर बना दिया. 1945 में ब्रेटन वुड्स के तहेत जब आई॰एम॰एफ़॰ और आलिमी बैंक को मुताआरिफ़ (introduce) कराया गया तो लॉर्ड कीन्स, जो सरमायादाराना निज़ाम का सबसे बड़ा माहिरे इक़्तसादियात था, उस ने कहा था कि क़र्ज़ों के खेल से दुनिया को काग़ज़ी शेर बना दिया जाएगा. साबिक़ सोविएत यूनियन के जोज़ेफ स्टालिन ने कहा था कि अब सरमायादारी निज़ाम जदीद ग़ुलामी को तौसीक़ कर रहा है.

क़िस्सा कोताह यह कि, रुपए की घटती हुई क़ीमत को इसी—फानांसियालाईज़ेशन के पस-ए-मंज़र में देखना चाहिए.
इंसाफ़ (ख़ास तौर पर समाजी इंसाफ़) के लिए ऐसे समाजी इंतज़ामात की ज़रूरत है जिसमे सभी लोगों का समाजी-सियासी ज़िंदगी में साथियों (peers) के तौर पर हिस्सा लेना यक़ीनी बनाया जा सके. नाइंसाफ़ी पर क़ाबू पाने का मतलब है ऐसी संस्थागत बाधाओं (institutionalized obstacles) को ख़त्म करना जो कुछ लोगों को दूसरों के साथ समाजी तअल्लुक़ात (social interaction) में मुकम्मल व बराबर का हिस्सा लेने में रोड़ा अटकाती हैं. इन संस्थागत बाधाओं—इक़्तसादी ढांचा (economic structure), इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी, एक्सक्ल्यूश्ज़्न (exclusion) और प्रोसीजर्स (procedures) के हवाले से भी देख सकते हैं. इक़्तसादी ढांचा जो समाज के पिछड़े लोगों (पसमान्दा) की उन वासएल तक की रसाई को महदूद करता हो जिसके ज़रिए उनकी समाजी ज़िंदगी में बराबर की हिस्सेदारी होसके; इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी दरअस्ल, सक़ाफ़ती इक़दारों की दर्जाबंदी (हाईरारकी) है जो पसमान्दा को मतलूबा स्टैंडिंग से रोक सकती हैं और रही बात एक्सक्लूश्ज़्न की, तो जनाब इसके ज़रिए एक ख़ास तब्क़े को उसकी शिनाख़्त (आइडैनटिटी) की बिना पर समाजी-सियासी हिस्सेदारी से महरूम कर दिया जाता है, मुखतलिफ़ क़िस्म के प्रोसीजरल नार्म्स—एक्सक्लूश्ज़्न का मोसर हरबा—बराबर की हिस्सेदारी में रुकावट पैदा करते हैं.
अब सवाल उठता है कि, समाजी इंसाफ़ मे हाएल इन संस्थागत बाधाओं से निजात कैसे मिले? मोटे तौर पर इन तीन संस्थागत बाधाएं—इक़्तसादी ढांचा, इन्स्टीट्यूशनल हाईरारकी और एक्सक्ल्यूश्ज़्न से निजात के लिए, तीन टूल—रीडिस्ट्रिब्यूशन (redistribution), रिकगनीशन (recognition) और पार्टीसीपेशन (participation) हैं. इन तीनों टूल्स का कारगर इस्तेमाल इस बात पर मुनहसर करता है कि तब्क़-ए-पसमान्दा की सियासी समझ ओ शऊर क्या है और वो अपने हक़-ओ-हुक़ूक़ की लड़ाई को लेकर कितना बेदार है...


इस ज़मन में, "पसमांदा स्टूडेंट्स फ़ोरम, जे॰एन॰यू॰" मुस्लिम समाज के दबे-कुचले-दलित (पसमान्दा) लोगों की मुख्य-धारा में शमूलियत के लिए जारी किए गए विमर्श का हिस्सा है और दिन-ब-दिन इस विमर्श को आगे बढ़ा रहा है.
समाजी इंसाफ़ (social justice) और इकनॉमिक वेल-बीइंग (well-being) के लिए ज़रूरी है कि समाज में स्ट्रकचरल चेंज लाया जाए, और यही तबदीली—स्ट्रकचरल चेंज और मेयार-ए-ज़िन्दगी (standard of living) में बेहतरी—ही, दरअस्ल, तरक़्क़ी (development) है.

सियासी आज़ादी के सिर्फ़ उसी वक़्त कुछ माने होते हैं जब की लोगों को तरक़्क़ीयाती सरगरमियों के नतीजे में समाजी इंसाफ़ मिले और उनकी ज़िंदगी पहले के मुक़ाबले में बेहतर हो. ज़राअत (agriculture), सिनअत (industry), साइन्स, टेक्नोलोजी, सेहत, तालीम, ग़र्ज़ कि हर शोअबा-ए-ज़िन्दगी में हमारी पॉलिसियां इसी उसूल के तहेत वज़अ कि गईं हों और पाए-तक्मील को पहुंचायी गईं हों. अब सवाल उठता है कि इन पॉलिसियों को बनाता कौन है? एक मुनज़्ज़म मईशत (economy) में पॉलिसियों को बनाने में इन्सटीट्यूशन (इदारों) का अहेम किरदार होता है.
माहीरीन-ए-इक़्तसादियात (economists) और सियासी-ओ-समाजी साइन्सदानों (social and political scientists) के बीच, एक तरह से, यह इत्तेफाक़े राय है कि डगलस नॉर्थ (Douglas North) का यह मफ़रूज़ा—एक मुआशरे की समाजी, इक़्तसादी, क़ानूनी और सियासी तंज़ीमें यानी इसके इदारे (institutions) इसकी इक़्तसादी कारकरदगी (performance) का बुनियादी उंसुर है. इन्स्टीट्यूशन लिज़्म की सारी बहेस, मोटे तौर पर, दो मफ़रुज़ों (propositions) पर मुश्तमिल है: अव्वल, इदारे माने रखते हैं या यूँ कहें कि इन से फ़र्क़ पड़ता हैवो मेयार (standard), अक़ाएद (belief) और आमाल (actions) को मुतास्सिर करते हैं, लिहाज़ा वो नताएज (outcomes) की तश्कील करते हैं. दूसरे, इदारे एण्डोजेनस (endogenous) हैं—उनकी शकल और उनके कामकाज उनके ज़हूर (emergence) और बक़ा (endurance) के हालात पर मुनहसर होते हैं. मतलब यह कि, मुआशरे का समाजी निज़ाम और दीगर इन्स्टीट्यूशन्स एकदूसरे से असरअंदाज़ भी होते हैं और एकदूसरे को असरअंदाज़ भी करते हैं. बअल्फ़ाज़े दीगर, समाजी इंसाफ़ ओ तरक़्क़ी के लिए समाज और इसके इन्स्टीट्यूशन्स को ज़्यादा से ज़्यादा डेमोक्रेटाईज़ करना होगा.


तारीख़ी एतबार से, हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में, तब्क़-ए-अशराफ़ का इन्स्टीट्यूशन्स (समाजी, मआशी और सक़ाफ़ती) पर पूरा क़ब्ज़ा रहा है जिसके नतीजे में उन्हों ने पॉलिसियों को अपने फ़ेवर में हमेशा असरअंदाज़ किया है और पसमान्दा मुसलमानों को हमेशा हाशिये पर रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा. मसलन, जब कभी मुस्लिम समाज के सबसे पिछड़ों (दलित मुसलमान) को मुसबत कार्रवाई (affirmative action) के ज़रिये, तरक़्क़ी की सहूलतों तक उनकी रसाई बढ़ाने और मसावात को फ़रोग़ देने के लिए कोई कारगर टूल (पढ़िये 1950 के प्रेसीडेनशियल ऑर्डर की वापसी) की बात की जाती है तो ये तब्क़ा—तब्क़-ए-अशराफ़ (सवर्ण मुसलमान) टोटल मुस्लिम रिज़र्वेशन [टी॰एम॰आर॰] जैसी कम्यूनल मांग उठा कर पूरे मूवमेंट में ख़लल डालने की, सैबोटाज करने की कोशिश करते हैं. चुनाँचे, हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज और इन्स्टीट्यूशन्स का डेमोक्रेटाईज़ेशन नागुज़ीर है, और इस अमल के लिए अशद ज़रूरी है पसमान्दा मुसलमानों की सियासी इक़्तेदार में उनकी जायज़ हिस्सेदारी.
मार्केटिंग गुरु फ़िलिप कॉटलर (Philip Kotler) नें टार्गेट मार्केट्स और सेगमेंटेशन (target market and segmentation) का बुनियादी तसव्वुर (core concept) दिया. उनका कहना था कि मार्केटर को शुरुवात यूँ करनी चाहिए—पहले वह मार्केट को कई हिस्सों में बांटे, जिसको उन्हों ने सेगमेंटेशन करना कहा; फिर जिस सेगमेंट में ज़्यादा मवाक़े (opportunities) हों, उसे वह टार्गेट करे. अगर आप इस तमसील (analogy) से देखें तो हिंदुस्तान का हुक्मरान तब्क़ा—जो सवर्ण मुसलमान और अशराफ़ हिन्दुओं पर मबनी है—ने मार्केटिंग के इस फ़ण्डे (फंदे भी!) को अच्छी तरह से समझ लिया है. इसने पहले हिंदुस्तानी मुसलमानों के मुद्दों—रोज़गार, ग़रीबी, मसावात, समाजी-ओ-इक़्तसादी नाबराबारी, समाजी इंसाफ़ और मज़हबी तअस्सुब (communalism) वग़ैरा वग़ैरा—को मुख़्तलिफ़ सेगमेंट में बांटा, फिर एक ऐसा  सेगमेंट चुना जो उसे ज़्यादा मवाक़े फ़राहम करता हो. ज़ाहिर इसके लिए उसने सेकुलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म का मुद्दा चुना क्यूंकि इससे उनके तब्क़ाती मफ़ादात (class interest) पूरे होते हैं. उनके ये तब्क़ाती मफ़ादात दो तरीक़ों से पूरे होते हैं. पहला यह कि, सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म के इस डिबेट में समाजी इंसाफ़ और मुआशरे के अंदरूनी तज़ादात (internal conflicts) जैसे मुद्दे पसे पुश्त चले जाते हैं, दाख़िली जम्हूरियत (internal democracy) का मुद्दा पीछे ढकेल दिया जाता है इस तरह स्टेटस कू (status quo) बना रहता हैवे अपने अपने ओहदों और मक़ाम पर फ़ाईज़ रहते हैं, समाजी निज़ाम ज्यों का त्यों बना रहता है—समाज के मुख़्तलिफ़ इन्सटीट्यूशन (इदारों) पर उनकी पकड़ न सिर्फ़ बनी रहती है बल्कि और मज़बूत भी हो जाती है. दूसरे यह कि, सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म के खेल में समाज के किन लोगों को फ़ायदा होता है? कौन हैं वो लोग? आख़िर सेक्युलरिज़्म–कम्यूनलिज़्म का जिन्न चुनाव के ही दिनों में, क्यूँ बाहर निकाल आता है? और भाई इसका इलाज है भी या नहीं! पहले तीन सवालों के जवाब से आप बख़ूबी वाक़िफ़ होंगे; फिर भी , कुछ लोग/एन॰जी॰ओ॰ चॅंपियन्स ऑफ माइनोरिटी पॉलिटिक्स बने हुए हैं और अपने कारोबार को बख़ूबी मुनज़्ज़्म तरीक़े से चला रहे हैं. अब सवाल उठता है कि कम्यूनलिज़्म के भूत को कैसे भगाया जाए? कम्यूनलिज़्म को शिकस्त देने का सिर्फ़ वाहिद रास्ता है—सारे धर्मों/मज़हबों की कमज़ोर जातियों की बहुजन एकता! सारे मज़ाहिब (धर्मों) की कमज़ोर ज़ातों की एकता, साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिक विमर्श को कमज़ोर बनाएगी ही नहीं बल्कि, यह सेक्युलरिज्म की नयी व्याख्या भी करेगा.


चुनाँचे, ज़रूरत इस बात कि है कि दलित-मुसलमान और पसमान्दा-हिन्दुओं के बीच एकता क़ायम की जाए और तब्क़-ए-अशराफ़िया (हुक्मरान तब्क़ा) के मार्केटिंग के फंदे को ध्वस्त किया जाय.
लेनिन नें अपने मज़मून जदलियात के सवाल के बारे में कहा है—किसी एक कुल की दो हिस्सों में तक़सीम और उसके मुताज़ाद अजज़ा का वक़ूफ़... उन्हों ने मज़ीद कहा—जदलियात दरअस्ल उस तज़ाद का मुताअला है जो अशिया की माहियत में मौजूद होता है.
माद्दी जदलियात के काएनाती तसव्वुर की रु से किसी शै की नशोनुमा को समझने के लिए हमे उसका मुताअला अंदर से और दूसरी अशिया के साथ उसके ताल्लुक़ात से करना चाहिए. बअल्फ़ाज़े दीगर अशिया की नशोनुमा को उनकी दाख़िली और ज़रूरी हरकत की ज़ात के तौर पर देखना चाहिए, जबकि हर शै अपनी हरकत में अपने गिर्द-ओ-पेश अशिया से बाहमी तौर पर वाबस्ता होती है और उनपर बाहमी तौर पर असरअन्दाज़ होती है. किसी शै की नशोनुमा का बुनियादी सबब ख़ारिजी नहीं बल्कि दाख़िली होता है, ये सबब उस शै के अंदर की तज़ादियात में मुज़्मिर होता है.


समाज में तब्दीलियाँ ज़्यादातर समाज के दाख़िली तज़ादात की नशोनुमा की वजह से होती हैं, यानी पैदावारी क़ूवतों और पैदावारी रिश्तों के दरमियान तज़ाद, तब्क़ात के दरमियान तज़ाद, क़दीम और जदीद के दरमियान तज़ाद, ये उन तज़ादात की नशोनुमा ही है जो समाज को आगे बढ़ाती है और नए समाज के हाथों पुराने समाज के ख़ात्मे के लिए क़ूवत मुहय्या करती है. क्या माद्दी जदलियात ख़ारिजी असबाब को नज़रअंदाज़ कर देती है? हरगिज़ नहीं. इसकी रु से ख़ारिजी असबाब तब्दीली की शर्त होते हैं और दाख़िली असबाब तब्दीली की बुनियाद होते हैं, और ख़ारिजी असबाब दाख़िली असबाब के ज़रिए ज़ेरे अमल आते हैं.