Saturday, November 30, 2013

अमामे (पगड़ी) के रंग पर ख़ास ज़ात (जाति) की इजारादारी

मुसलमानों के बीच इम्तियाज़ात और तफ़रीक़ (discrimination) की बात करिए कि मुल्ला-मौलाना गला फाड़-फाड़ कर, तमाम हदीस और क़ुरआन की आयतों का हवाला देकर, बताने लगेंगे कि इस्लाम में ज़ात-पात, छुआछूत नहीं है। अरे भाई! इससे कौन इंकार करता है कि—इस्लाम में ज़ात-पात नहीं है। दरअस्ल, यह बुराई इस्लाम की नहीं मुसलमानों की है। इस बुराई के अमल में, आम मुसलमान ही नहीं उलेमा और क़ायद (leaders) भी पेश पेश और शाना-ब-शाना हैं, आम-ओ-ख़ास मुसलमान इन मकरुहात से आज़ाद ओ इसतस्ना नहीं है। हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰) ने अपने आख़िरी हज के मौक़े—जो ख़ुत्बा हज्जत-उल-विदा’(‘farewell pilgrimage sermon’) के नाम से भी जाना जाता है—पर फ़रमाया कि, किसी भी अरब को ग़ैर-अरब पर, अमीर को ग़रीब पर, गोरे को काले पर कोई बरतरी (superiority) नहीं हासिल है। ग़रज़ यह कि तमाम मुसलमान एक उम्मा हैं और इनके बीच किसी भी क़िस्म की कोई तफ़रीक़ ओ इम्तियाज़ नहीं  होना चाहिए। पर सितमज़रीफ़ी  यह है कि कुछ लोगों ने अपने आप को प्रॉफ़ेट मुहम्मद (स॰अ॰) के ख़ानदान का होने का भरम पाल रखा है। ये अपना शजरा (family tree) हज़रत (स॰अ॰) के ख़ानदान में तलाश करते हैं; और ये नजीब-उत-तरफ़ैन अपने को आला और अफ़ज़ल मान बैठे हैं। ये लोग अपने आप को सादात (direct descendants of Mohammad SAW) कहते हैं। 

मसलक-ए-जाफ़रिया (शिया फ़िरक़े) के सादात मौलानाओं ने तो अपना लिबास तक अलग कर लिया है। इनके अमामे (पगड़ी) के रंग इसकी निशानदेही  करते है—सिर्फ़ सय्यद मौलाना ही काला अमामा पहनते है; दीगर ज़ातों के मौलाना काले रंग के अलावा, किसी भी रंग का अमामा बांध सकते हैं। अमामे (पगड़ी) के रंग पर ख़ास ज़ात (जाति) की इजारादारी (monopoly)! अद्भुत!!


अब ये मत कह देना कि इस फ़िरक़े—शिया फ़िरक़े के लोग मुसलमान ही नहीं है, जैसा कि एक स्कल कैप (गोल टोपी) और बकर दाढ़ी वाला शख़्स कहता है...

...वही गोश-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम

अक्सर ओ बेशतर, ख़ासकर के मुस्लिम लीडरान और मुल्ला–मौलाना इस बात को अक्सर कहते हुए देखे/सुने जा सकते हैं कि—सच्चर कमेटी ने बताया कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों की हालत दलितों से बदतरहै। मिसाल के तौर पर आज के रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के मज़मून मसाएल से कैसे निजात पाएँ मुसलमान?’ में मौलाना इसरार-उल-हक़ क़ासमी—जो काँग्रेस के एम॰पी॰ भी हैं—अपनी बात यही सच्चर कमेटी के ग़लत हवाले (misquote) से ही शुरू करते हैं। यह बात सर ता पैर ग़लत और बेबुनियाद है। हाँ! सच्चर कमेटी ने इतना ज़रूर बताया कि, कुछ इंडिकेटर्स (indicators) में मुसलमानों का परफॉर्मेंस (performance) हिन्दू दलितों से ख़राब है।

सच्चाई जबकि इसके बारअक्स है, हालत तो दलित व पिछड़े मुसलमानों की बदतर है। मिसाल के तौर पर नेशनल नमूना सर्वेक्षण (NSS) का 61वां राउंड (61 Round) बताता है कि हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ का महाना फ़ी कस अख़राजात (monthly per capita expenditure) रु 620 है और मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰ का रु 605 है जबकि मुस्लिम अगड़ी (सामान्य) जाति का रु 633 हैं इस तरह मुस्लिम अशराफ़ आमदनी के लेहाज़ से न सिर्फ़ पसमान्दा मुस्लिम (मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰) से आगे है बल्कि वो हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ से भी आगे है।

इसके अलावा, जहां तक समाजी मोर्चे की बात है तो यह बात ढकी-छुपी नहीं कि यह सिर्फ़ कहने को है कि—एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ आयाज़, न कोई बंदा रहा न बंदा नवाज़, पर सच्चाई यह है कि मस्जिद की चौखट पार करते ही महमूद महमूद हो जाता है और बंदा नवाज़ बंदा नवाज़। यह शेर दलित-पसमान्दा मुसलमानों के लिए सिर्फ़ छलावा ही साबित हुआ है। एक सय्यद के लिए एक हलालख़ोर (भंगी) उतना ही अछूत है जितना एक ब्राहमण के लिए एक हिन्दू भंगी।

सियासत में हिस्सेदारी का मुआमला तो और भी दीगर गूँ है– एक अध्ययन के मुताबिक़ अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की फेहरिस्त उठा कर देखें तो पाएंगे कि अबतब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ़ और केवल 60 पसमान्दा तबक़े से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफ़िया आबादी  2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी  नुमाइंदगी  4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज़्यादा। वहीँ दूसरी तरफ़, पसमान्दा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है। भारत में मुसलमानों की आबादी के मुताबिक़ कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे। इसलिए सिर्फ़ चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, मगर आंकड़ों का ठीक से मुआयना करने पर देखेंगे कि अगड़े मुसलमानों (अशराफ़) को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है। ये तो पिछड़े (पसमान्दा) मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है।


क़िस्सा कोताह यह कि, दौरे हाज़िर के गोएब्ल्सों! अपने फ़ाएदे के लिए झूट की पासदारी करना बंद करो और मुस्तहक़ीन को उनका जाएज़ हक़ दिलवाने में अड़ंगेबाज़ी करना बंद करो।

रूहानी इल्हाद (Spiritual Atheism)

मेरे कई, जदीद तालिम याफ़्ता (modern educated) और लेफ़्टिस्ट/कम्यूनिस्ट/मार्कसिस्ट दोस्त ऐसे हैं जो अपने आप को मुलहिद (atheist) कहते हैं—वो अमलन मज़हब को छोड़ चुके हैं; लेकिन इस के बावजूद, वो स्प्रीचुअलिटी  (spirituality) की तलाश में रहते हैं। वो चाहते हैं कि मज़हब (religion) के दायरे से बाहर उन्हे कोई ऐसी चीज़ मिल जाए जो उनको रूहानी सुकून (spiritual ecstasy) दे सके। इसी रूहानी तस्कीन के लिए इनलोगों ने सूफिज़्म को गले लगाने का हरबा अपनाया है। सूफिज़्म का फ़लसफ़ा (philosophy), दरअस्ल, वहदतुल वजूद (unity of existence) का फ़लसफ़ा है जिसको फ़लसफ़ीयाना इस्तलाह (philosophical terminology) में मोनिज़्म (monism) कहा जाता है। शेख़ मोहयुद्दीन इब्न अल-अरबी एक सूफ़ी पेशवा की हैसियत से मशहूर हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि—वह इबादात में ज़ाहिरी (literal) थे और अक़ीदे में बातनी (esoteric) थे। उनके बारे में इमाम ज़हेबी ने कहा है कि—वह वहदतुल वजूद के मानने वालों के पेशवा हैं। इब्न अल-अरबी ने क़ुरान की आयत (15:99) की तफ़सीर यूं की है—यानी यहाँ तक कि तुझे हक़-उल-यक़ीन हासिल हो, और तेरे वजूद के ख़त्म होने से तेरी इबादत भी ख़त्म हो जाये, फिर आबिद और माबूद सब एक होंगे, ग़ैर नहीं। क़िस्सा कोताह यह कि, रूहानीयत—सूफिज़्म का मामला सीधे-सीधे मज़हब ओ ख़ुदा से है।

ऐसा क्यूँ है कि, एक तरफ़ मज़हब ओ इबादत से बेज़ारी और दूसरी तरफ़ ख़ुदा और माबूद से शनासाई?? इस का सबब यह है कि इन्सान अपनी फ़ितरत के एतबार से एक रूहानियत (spirituality) पसंद मख़लूक़ है। मज़हब के नाम से वो सिर्फ़ उस कल्चर को जानता है जो आज मज़हबी गिरोहों के दरमियान पाया जाता है। यह कल्चर उसको अपील नहीं करता, इसलिए वो अपनी फ़ितरत की तस्कीन के लिए स्प्रीचुअलिटी की तलाश में रहता है।

Friday, October 25, 2013

हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में वसाएलसमाजी, मआशी और सक़ाफ़तीकी ग़ैर-मसावी तक़सीम [unequal distribution] है. इन वसाएल का असमान वितरणजो दर हक़ीक़त एक स्ट्रकचरल प्रॉबलम हैही समाजी ग़ैर बराबरी को जनम व फ़रोग़ देता है. माहिरे समाजियात पीएरे बोर्द्यू (Pierre Bourdieu) का मानना है कि पावर और प्रिविलेज वासएल [resources] की ग़ैर-मसावी तक़सीम का नतीजा और सबब दोनों हैं. रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में सरमाये के ये तीन इक़्सामसमाजी, मआशी और सक़ाफ़तीका इंट्रैकशन ही समाज में पावर डिस्ट्रिब्यूशन को तय करता है. समाज का जो तबक़ा इन वसाएल पर क़ाबिज़ होता है, पावर और प्रिविलेज उसी तबक़े की मीरास होती है. अब चूँकि पावर और प्रिविलेज पर क़ब्ज़े का अमल दरअस्ल ज़ीरो सम गेम (zero-sum game) है चुनांचे यह समाज में ग़ैर बराबरी और अदम मसावात को पैदा करेगा ही.


तारीख़ी एतबार से, तब्क़-ए-अशराफ़ का सरमाये तीनों इक़्साम पर पूरा क़ब्ज़ा रहा है जिसके नतीजे में पसमान्दा हमेशा से ग़ैर बराबरी का सामना करते रहे हैं. अब ज़रूरत इस बात की है पावर और प्रिविलेज के ज़ीरो सम गेम को नॉन-ज़ीरो सम गेम में बदला जाए जिसके लिए ज़रूरी है की वसाएल का मसावी बटवारा. और इस मसावी बटवारे की पहली शर्त है दाख़िली जम्हूरियत [internal democratization].
सच्चर कमेटी का अहेम तरीन हिस्सा है—अंदरूनी तक़सीम [internal division] पर बहेस, जो हिंदुस्तान के मुस्लिम समाज में तारीख़ी एतबार से मौजूद रहा है. आम तसव्वुर यह था कि मुसलमानों में कोई ज़ात-पात नहीं—मुस्लिम सोसाइटी एक मोनोलिथ सोसाइटी है—लेकिन यह भी हक़ीक़त है कि यह ज़ातों और बिरादरियों में मुनक़िस्म [divided] हैं. यहाँ ज़ात पात की उतनी ही मज़बूत दर्जाबंदी [stratification] है जितनी कि हिन्दू फ़िरक़े में. मोटे तौर पर मुस्लिम फ़िरक़ा तीन स्ट्रेटा—अशराफ़, अजलाफ़ और अर्ज़ाल—में बटा हुआ है. यही अजलाफ़ और अर्ज़ाल मजमुई तौर पर पसमान्दा हैं. तरक़्क़ीयाती सहूलियात तक रसाई का इनहसार इन ग्रुपों/स्ट्रेटा के महल वक़ूअ पर है. दीगर अल्फ़ाज़ में यह कहा जा सकता है कि अशराफ़ कि हालत आम तौर से अच्छी है. अजलाफ़ कि हालत निसबतन बुरी है और अर्ज़ाल सबसे ख़राब हालत में हैं.

मुसबत कार्रवाई तरक़्क़ी की सहूलतों तक रसाई बढ़ाने और मसावात को फ़रोग़ के लिए मोसर आला है. अब सवाल उठता है, आया कि मुसबत कार्रवाई पूरे फ़िरक़े के लिए की जाए या फ़िर इसका दायरा उन हलक़ों तक महदूद रखा जाए, जो अपनी कमज़ोर मआशी व समाजी पोज़ीशन की वजह से बदस्तूर पिछड़े हुए हैं??


पूरे फ़िरक़े के लिए मुसबत कार्रवाई—टोटल मुस्लिम रिज़र्वेशन [टी॰एम॰आर॰]—की मांग, दर अस्ल, एक कम्यूनल डिमांड है, और हिंदुस्तान का आईन तो क़तई इस बात की इजाज़त नहीं देता कि मज़हब कि बुनियाद पर मुराआत दिया जाए. दूसरे, इंसाफ़ की रु से समाज के सबसे कमज़ोर तब्क़े को मुसबत कार्रवाई में पहला प्रीफ्रेंस मिलना चाहिए. कम से कम जॉन राउल्स (John Rawls) का वेल ऑफ़ इग्नोरेंस (फ़र्स्ट प्रिन्सिपल ऑफ़ जस्टिस) यही कहता है. चुनाँचे, टी॰एम॰आर॰ की मांग करना बेमानी और बेईमानी दोनों हैं.
ईद की छुट्टियों के दौरान फ़ुरसत के अवक़ात में, अल-रिसाला की पुरानी फाइल्स की वरक़ गरदानी करते हुए, मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान का एक लेख एक सफ़र [अल-रिसाला, जुलाई 1987, अंक 128] आँखों से गुज़रा, जिसमें मौलाना ख़ान साहब ने, दिल्ली से इलाहाबाद, इलाहाबाद से बॉम्बे, बॉम्बे से आजमगढ़ और आजमगढ़ से दिल्ली के सफ़र की रुदाद में कई लोगों—अनवर आली ख़ान सोज़’, नसर हशमत, सुरेश मंचंदानी और अपने भाई इक़बाल अहमद सुहैल—का ज़िक्र तो बड़े ही एहतराम से किया है और वहीं दूसरी ओर एक दलित व्यक्ति का ज़िक्र सिर्फ़ एक हरिजन कह कर किया गया है. इस लेख को पढ़ते हुए हल ही में अनिल चमड़िया जी के जनसत्ता में प्रकाशित दो लेख—जातिवादी मानस की परतें और खंडित दृष्टि का समाज [क्रमशः 10 एवं 11 जुलाई, 2013] याद आ गए. आख़िर एक इंसान को इंसान न समझ करके उसे उसकी जाति से जाना जा रहा है.


यह भी अजीब बात है कि, कोई भी सवर्ण व्यक्ति चाहे जिस भी मज़हब—हिन्दू, इस्लाम, ईसाई या सिख—का हो, पढ़ा-लिखा हो या जाहिल उसका एक दलित को ट्रीट करने का तरीक़ा एक ही है——हिक़ारत! मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान को क्या जातिवादी नहीं कहेंगे?? अगर यह मान भी लें कि वे जातिवादी नहीं हैं, तो क्या उनके भीतर जातीय भावना होने से भी इंकार किया जा सकता है?? इस्लाम तो मसावात सिखाता है. बात-बात में क़ुरान और हदीस का हवाला देने वाले उलमा जब जातिवादी मानसिकता से निजात नहीं पा सके हैं, तो आम अशराफ़िया का क्या कहा जाये???
जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने सरमायेदाराना निज़ाम (पूंजीवाद) के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है. ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया की सक़ाफ़ती अनानियत [Cultural Hegemony] भी, एक हद तक, ज़िम्मेदार है. मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृति को, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा—शेर-ओ-शाइरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से जाना जाता है, इस संस्कृति का संस्थानीकरण [Institutionalization] मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है.  बज़रिये सक़ाफ़ती अनानियत, अशराफ़िया—समाजी क़द्रों (सामाजिक मूल्यों) और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में मनमाना रूप देकर—इन संस्थाओं और मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है. दूसरी ओर, हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त का कोई ज़िक्र नहीं—नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर में कोई स्थान नहीं. यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों, सामाजिक-नितृत्वशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम संस्कृति के विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है. मिसाल के तौर पर हाल ही—2013—में बरजोर अवारी ने अपनी पुस्तइस्लामिक सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशियामें भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम संस्कृति को क़व्वाली, ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है; पसमान्दा मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी.


इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर अशराफ़िया का आधिपत्य सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है. चुनाँचे, समाजी ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास में और मुस्लिम समाज की दाख़िली जम्हूरियत (आंतरिक लोकतांत्रिकरण) के लिए, समानांतर संस्कृति का विकास और पसमान्दा संस्कृति को मुख्य धारा मे लाना भी ज़रूरी है...
एक समाज दुनिया का है. एक समाज हिंदुस्तान का है. एक समाज हिंदुओं का है. एक समाज मुसलमानों का है. और हिंदुस्तानी मुसलमान का समाजी निज़ाम (social structure), मास्जिद-मज़ार-दरगाह-ख़ानक़ाह के निज़ाम के इर्दगिर्द घूमता है, जिसके पास जदीद तालीमी निज़ाम से इस्तफ़ादा का कोई प्रोग्राम नहीं. जदीद तालीममसवात और समाजी इन्साफ का सब से बड़ा ज़रिया होने के साथ साथ—इंसानी सरमाये [human capital] का अहेम जुज़ है. चुनाँचे, एक मसावी समाज [egalitarian society] के लिए, आम लोगों की जदीद तालीम तक रसाई को यक़ीनी बनाना यक़ीनन नागुज़ीर है.

मुसलमानों की बड़ी तादाद मदरसों से वाबस्ता है या फिर वह सरकारी स्कूलों में तालीम हासिल कर रही है (सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी इस बात की तसदीक़-ओ-अक्कासी करती है). मगर वो आरज़ूएँ और उमंगें पूरी होने की क्या कहिए जो अभी जगी ही नहीं हैं, जो जदीद, असरी और अंग्रेज़ी तालीम के आला मेयार को हासिल करने से वाबस्ता हैं.
गरचे, कुछ अक़लियती तालीमी इदारे ज़रूर हैं जहां जदीद तालीम का भी इंतेज़ाम है लेकिन इन इदारों का नज़्म-ओ-नस्क़ ऐसे लोगों के हाथों में है, जो अंग्रेज़ी तालीमयाफ़्ता और जदीद ज़हन के इंसान होते हुए भी ख़ानक़ाही सिस्टम की पैदावार हैं और इस सिस्टम को बिलवास्ता या बिलावास्ता [directly or indirectly] फ़रोग़ [perpetuate] दे रहे हैं. इस तरह इन्हों ने तालीम के रास्ते रूपये बनाने का काम कर रखा है. इनके निज़ाम-ए-तालीम से अमीर लोग इस्तफ़ादा कर रहे हैं और हिंदुस्तान में आला ज़ात (तब्क़-ए-अशराफ़िया) के लोग इन से फ़ायदा उठा रहे हैं, इस तरह ये लोग अदम मसावात [inequality], ग़ैर शमूलियत [exclusion] और इम्तियाज़ात [discrimination] को भी फ़रोग़ दे रहे हैं.


अब बचे ग़रीब और पसमान्दा —जिनके लिए मदरसे हैं या तो सरकारी स्कूल, जो मदरसे हैं वो तो उन्हे कूप-मंडूक बना रहे हैं रही बात सरकारी स्कूलों की, तो इनके बारे मज़ीद कहने की ज़रूरत ही नहीं.
Muslims are not different from the Hindus—caste inequality/discrimination is as prevalent and rooted in the society as in the Hindu society. Interestingly, the social inequality—caste inequality in the form of Ashraf-Pasmanda division—clearly add to class inequality as all the working class forms the Pasmanda as a whole and all the propertied and landed class, which historically cotrolled wealth and power in the form of zamindaari and are still controlling the power structures as they are on the upper rung of power structures, are in fact the Ashrafiya. Muslim society is the classical example which shows how caste inequalities add to class inequalities.
मंसूबा बंदी कमीशन (planning commission) ने हाल ही में, साल 2011-12 के लिए ग़ुरबत का तख़्मीना (poverty estimates) पेश किया है; इसमे ख़त-ए-इफ़लास (ग़रीबी रेखा) से नीचे के लोगों के तनासुब (प्रतिशत) का अंदाज़ा लगाया गया है. इस तख़्मीने में कहा गया—देही इलाक़ों (ग्रामीण क्षेत्रों) की 25.7% आबादी और शहरी इलाक़ों की 13.7% आबादी और पूरे मुल्क की  21.9% आबादी ख़त-ए-इफ़लास (poverty line) से नीचे है. चुनाँचे, शहरी और देही (rural) आमदनी में वाज़ेह फ़र्क़ दिखाई देता है. यह याद रहे की देहातों की क़ीमत पर शहर कभी तरक़्क़ी नहीं कर सकते. देहातों की तरक़्क़ी शहरों की तरक़्क़ी की ज़ामिन है. लेकिन सरमायादारी निज़ाम (capitalist system) देहातों को खा रहा है. नियो-मार्क्सियन (neo-Marxian) नज़रिये से देखें तो देहातों का सरप्लस शहरों में पहुंचाया जारहा है. इस में एक उनसुर सट्टा बाज़ारों (स्टॉक मार्केट) का है जिन्हों ने आराज़ी को इतना महंगा कर दिया की आम आदमी के लिए सर छुपाने के लिए साएबान बनाना दुश्वार हो गया है. ज़रई इस्तलाहात (agricultural reforms) देही तरक़्क़ी (rural development) के लिए ज़रूरी है वरना सरमायादाराना काश्तकारी से छोटे काश्तकार गुरबत की वजह से शहरों में दाख़िल होते रहेंगे. नियो-मार्क्सियन नज़रिया इसकी वज़ाहत यूँ करता है—एक सरमायादाराना निज़ाम में समायेदार को प्रॉडक्शन बढ़ाने के लिए ज़्यादा, सस्ता और आसानी से कंट्रोल किए जा सकने वाले मज़दूरों की ज़रूरत होती है और भारी तादाद में छोटे काश्तकार जो शहरों में दाख़िल होते हैं वे दरअस्ल रिज़र्व्ड आर्मी ऑफ लेबर होते हैं, टेक्नोलोजिकल इनोवेशन और अर्बन ट्रांसफ़ारमेशन इस अमल—काश्तकारों की मज़दूरों के शक्ल में शहरों में मुंतक़्ली—को फ़राहम करता है. सट्टा बाज़ारी (speculation) और आज़ाद मार्केट (free market) के ज़रिये क़ीमतों के तअय्युन नें दुनिया को मुश्किल में डाल दिया है इसलिए हिंदुस्तान की तरक़्क़ी हो या ब्राज़ील की इस का इनहसार बारआमदात और आज़ाद तिजारत पर है जिसमें टेकनालोजी का रोल अहेम है लेकिन करेंसी के खेल ने भी ऐसे मद-ओ-जज़र पैदा कर दिये हैं कि दुनिया चंद बड़े साहूकारों के अलावा तमाम मुमालिक क़र्ज़ों और ख़सारों में फंसे हुए हैं इसीलिए अमेरिका के नोबेल इनामयाफ़्ता आलिमी बैंक के साबिक़ मुशीर जोज़ेफ स्टिग्लिट्ज़ अपनी किताब नाबराबरी की क़ीमत (The Price of Inequality) में लिखा है कि अमेरिका को ज़्यादा सोशलिज़्म और कम कैपिटलिज़्म की ज़रूरत है. और यही बात हिंदुस्तान के लिए भी सच है. नोम चोम्सकी  ने प्रॉफ़िट ओवर पीपल (Profit over People) में नियोलिबरलाईज़ेशन (neo-liberalization) को इर्तकाज़ दौलत का सबब समझा है उन का सिर्फ़ ऑफर यह है कि दुनिया रहने के क़ाबिल बनाना है तो एक मुंसिफ़ाना मआशी मॉडल की अशद ज़रूरत है.