मुसलमानों के बीच इम्तियाज़ात और तफ़रीक़ (discrimination) की बात करिए कि मुल्ला-मौलाना गला फाड़-फाड़ कर,
तमाम हदीस और क़ुरआन की आयतों का हवाला देकर, बताने लगेंगे कि
इस्लाम में ज़ात-पात, छुआछूत नहीं है। अरे भाई! इससे कौन
इंकार करता है कि—इस्लाम में ज़ात-पात नहीं है। दरअस्ल, यह
बुराई इस्लाम की नहीं मुसलमानों की है। इस बुराई के अमल में,
आम मुसलमान ही नहीं उलेमा और क़ायद (leaders) भी पेश पेश और
शाना-ब-शाना हैं, आम-ओ-ख़ास मुसलमान इन मकरुहात से आज़ाद ओ
इसतस्ना नहीं है। हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰) ने अपने आख़िरी हज के मौक़े—जो ‘ख़ुत्बा हज्जत-उल-विदा’(‘farewell pilgrimage sermon’) के नाम से भी जाना जाता है—पर फ़रमाया कि, किसी भी
अरब को ग़ैर-अरब पर, अमीर को ग़रीब पर,
गोरे को काले पर कोई बरतरी (superiority) नहीं हासिल है। ग़रज़
यह कि तमाम मुसलमान एक “उम्मा” हैं और इनके बीच किसी भी क़िस्म की कोई तफ़रीक़ ओ इम्तियाज़
नहीं होना चाहिए। पर सितमज़रीफ़ी यह है कि कुछ लोगों ने अपने आप को प्रॉफ़ेट
मुहम्मद (स॰अ॰) के ख़ानदान का होने का भरम पाल रखा है। ये अपना शजरा (family tree) हज़रत (स॰अ॰) के ख़ानदान में तलाश करते हैं; और ये “नजीब-उत-तरफ़ैन” अपने को आला और अफ़ज़ल मान बैठे हैं। ये लोग
अपने आप को “सादात” (direct descendants of Mohammad SAW) कहते हैं।
मसलक-ए-जाफ़रिया (शिया फ़िरक़े) के ‘सादात’ मौलानाओं ने तो अपना लिबास तक अलग कर लिया
है। इनके अमामे (पगड़ी) के रंग इसकी निशानदेही
करते है—सिर्फ़ ‘सय्यद’ मौलाना
ही काला अमामा पहनते है; दीगर ज़ातों के मौलाना काले रंग के
अलावा, किसी भी रंग का अमामा बांध सकते हैं। अमामे (पगड़ी) के
रंग पर ख़ास ज़ात (जाति) की इजारादारी (monopoly)! अद्भुत!!
अब ये मत कह
देना कि इस फ़िरक़े—शिया फ़िरक़े के लोग मुसलमान ही नहीं है, जैसा कि एक स्कल कैप (गोल टोपी) और बकर दाढ़ी वाला शख़्स कहता है...
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