Saturday, November 30, 2013

...वही गोश-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम

अक्सर ओ बेशतर, ख़ासकर के मुस्लिम लीडरान और मुल्ला–मौलाना इस बात को अक्सर कहते हुए देखे/सुने जा सकते हैं कि—सच्चर कमेटी ने बताया कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों की हालत दलितों से बदतरहै। मिसाल के तौर पर आज के रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के मज़मून मसाएल से कैसे निजात पाएँ मुसलमान?’ में मौलाना इसरार-उल-हक़ क़ासमी—जो काँग्रेस के एम॰पी॰ भी हैं—अपनी बात यही सच्चर कमेटी के ग़लत हवाले (misquote) से ही शुरू करते हैं। यह बात सर ता पैर ग़लत और बेबुनियाद है। हाँ! सच्चर कमेटी ने इतना ज़रूर बताया कि, कुछ इंडिकेटर्स (indicators) में मुसलमानों का परफॉर्मेंस (performance) हिन्दू दलितों से ख़राब है।

सच्चाई जबकि इसके बारअक्स है, हालत तो दलित व पिछड़े मुसलमानों की बदतर है। मिसाल के तौर पर नेशनल नमूना सर्वेक्षण (NSS) का 61वां राउंड (61 Round) बताता है कि हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ का महाना फ़ी कस अख़राजात (monthly per capita expenditure) रु 620 है और मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰ का रु 605 है जबकि मुस्लिम अगड़ी (सामान्य) जाति का रु 633 हैं इस तरह मुस्लिम अशराफ़ आमदनी के लेहाज़ से न सिर्फ़ पसमान्दा मुस्लिम (मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰) से आगे है बल्कि वो हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ से भी आगे है।

इसके अलावा, जहां तक समाजी मोर्चे की बात है तो यह बात ढकी-छुपी नहीं कि यह सिर्फ़ कहने को है कि—एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ आयाज़, न कोई बंदा रहा न बंदा नवाज़, पर सच्चाई यह है कि मस्जिद की चौखट पार करते ही महमूद महमूद हो जाता है और बंदा नवाज़ बंदा नवाज़। यह शेर दलित-पसमान्दा मुसलमानों के लिए सिर्फ़ छलावा ही साबित हुआ है। एक सय्यद के लिए एक हलालख़ोर (भंगी) उतना ही अछूत है जितना एक ब्राहमण के लिए एक हिन्दू भंगी।

सियासत में हिस्सेदारी का मुआमला तो और भी दीगर गूँ है– एक अध्ययन के मुताबिक़ अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की फेहरिस्त उठा कर देखें तो पाएंगे कि अबतब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ़ और केवल 60 पसमान्दा तबक़े से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफ़िया आबादी  2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी  नुमाइंदगी  4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज़्यादा। वहीँ दूसरी तरफ़, पसमान्दा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है। भारत में मुसलमानों की आबादी के मुताबिक़ कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे। इसलिए सिर्फ़ चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, मगर आंकड़ों का ठीक से मुआयना करने पर देखेंगे कि अगड़े मुसलमानों (अशराफ़) को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है। ये तो पिछड़े (पसमान्दा) मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है।


क़िस्सा कोताह यह कि, दौरे हाज़िर के गोएब्ल्सों! अपने फ़ाएदे के लिए झूट की पासदारी करना बंद करो और मुस्तहक़ीन को उनका जाएज़ हक़ दिलवाने में अड़ंगेबाज़ी करना बंद करो।

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