मेरे कई, जदीद तालिम याफ़्ता (modern educated) और लेफ़्टिस्ट/कम्यूनिस्ट/मार्कसिस्ट
दोस्त ऐसे हैं जो अपने आप को मुलहिद (atheist) कहते हैं—वो अमलन मज़हब को छोड़ चुके हैं; लेकिन इस के बावजूद, वो स्प्रीचुअलिटी
(spirituality) की तलाश में रहते हैं। वो चाहते हैं कि मज़हब (religion) के दायरे से बाहर उन्हे कोई ऐसी
चीज़ मिल जाए जो उनको रूहानी सुकून (spiritual
ecstasy) दे सके। इसी रूहानी तस्कीन के लिए
इनलोगों ने सूफिज़्म को गले लगाने का हरबा अपनाया है। सूफिज़्म का फ़लसफ़ा (philosophy), दरअस्ल, वहदतुल वजूद (unity of existence) का फ़लसफ़ा है जिसको
फ़लसफ़ीयाना इस्तलाह (philosophical terminology) में मोनिज़्म
(monism) कहा जाता है। शेख़ मोहयुद्दीन इब्न अल-अरबी एक सूफ़ी पेशवा की हैसियत से
मशहूर हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि—वह इबादात में ज़ाहिरी (literal) थे और अक़ीदे में बातनी (esoteric) थे। उनके बारे में इमाम ज़हेबी ने कहा है कि—वह वहदतुल वजूद के मानने
वालों के पेशवा हैं। इब्न अल-अरबी ने क़ुरान की आयत (15:99) की तफ़सीर यूं की है—“यानी यहाँ तक कि तुझे
हक़-उल-यक़ीन हासिल हो, और तेरे वजूद के ख़त्म होने से तेरी इबादत
भी ख़त्म हो जाये, फिर आबिद और माबूद सब एक होंगे, ग़ैर नहीं”। क़िस्सा कोताह यह
कि, रूहानीयत—सूफिज़्म का मामला सीधे-सीधे मज़हब ओ
ख़ुदा से है।
ऐसा क्यूँ है
कि, एक तरफ़ मज़हब ओ इबादत से बेज़ारी और दूसरी तरफ़ ख़ुदा और माबूद से शनासाई?? इस का सबब यह है कि इन्सान अपनी फ़ितरत के एतबार से एक रूहानियत (spirituality) पसंद मख़लूक़ है। मज़हब के नाम से वो
सिर्फ़ उस कल्चर को जानता है जो आज मज़हबी गिरोहों के दरमियान पाया जाता है। यह
कल्चर उसको अपील नहीं करता, इसलिए वो अपनी फ़ितरत की तस्कीन के लिए स्प्रीचुअलिटी की तलाश में रहता है।
No comments:
Post a Comment