Wednesday, September 3, 2014

इबोला का गोला : महामारी का हौव्वा और दवाओं का कारोबार

इस वैश्वीकृत दुनिया में जब पोलियो, चेचक जैसी तमाम बीमारियों पर विजय हासिल करने के दावे किए जा रहे हैं तो वहीं इबोला नाम के खतरनाक वायरस ने तांडव मचाना शुरू कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डबल्यूएचओ ने इसे रिस्क ग्रुप-4 पेथोजेन अर्थात महामारी की श्रेणी में रखा है। डबल्यूएचओ के अनुसार यह हालिया चार दशकों की सबसे ख़तरनाक और व्यापक बीमारी है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस साल के शुरुवात से अब तक, इबोला विषाणु से पीड़ित होकर मरने वालों की संख्या 1427 हो गई है जबकि 2615 लोग ऐसे हैं जो इस रोग से ग्रस्त होकर जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। बताया जाता है कि इबोला बीमार इस वर्ष के शुरू में गिनी कोनाकरी, और उसके बाद लाइबेरिया, सिएरालोन और नाइजीरिया में फैली।
दुनियाभर में भय का पर्याय बना इबोला कोई नया रोग नहीं है। क़रीब 40 साल पहले इस रोग के केस मिले। इसको पहले इबोला हेमरेजिक फ़ीवर या रक्तस्रावी बुखार के रूप में जाना जाता था। पहली बार इस रोग के संक्रमण के केस 1976 में सूडान और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में मिले। इबोला नामक नदी के तट पर स्थित गाँव सर्वप्रथम इस रोग के प्रकोप का कोपभजन बना इसी के नाम से ये रोग जाना जाने लगा और इसके विषाणु को इबोला वाइरस कहा जाने लगा।
गोकि यह बीमारी चालीस साल पुरानी है लेकिन इसका अभी तक इसकी कोई वैक्सीन या टीका विकसित नहीं किया जा सका है। बड़ी-बड़ी फार्मास्युटिकल कम्पनियाँ और अनुसंधान संस्थाएं उन्हीं दवाओं को विकसित करने में दिलचस्पी लेती हैं जिससे उनको मोटी आमदनी हो सके। ज़ाहिर है, ग़रीब देशों में रहने वाले लोग अपनी बीमारी पर मोटी रक़म ख़र्च करने की हालत में नहीं होते हैं। लिहाज़ा इन देशों में होनेवाली बीमारियों के दवाओं को और ज़्यादा विकसित और प्रभावी बनाने लिए आवश्यक अनुसंधान इन कम्पनियों की वरीयता सूची से बाहर रहते हैं। कालाज़ार, मलेरिया, टीबी, दस्त और चागा रोग की दवाओं में नया अनुसंधान लगभग न के बराबर है। इन रोगों का इलाज दशकों पुराने फॉरमूले के आधार पर ही किया जा रहा है। अलबत्ता इबोला जैसी बीमारियों का हौव्वा खड़ा करके विकासशील देशों में अपनी उपयुक्त-अनुपयुक्त दवाओं को बेचना इनका प्रिय शग़ल और मार्केटिंग स्ट्रेटजी है। हालांकि जिस अमेरिकी कम्पनी ज़ेड मैपने इबोला के टीके को विकसित करने में दिलचस्पी दिखाई है वह कोई बहुत बड़ी कम्पनी नहीं है। यह पूरी तरह से पब्लिक फंडेड कंपनी है। यह अलग बात है इसके हौव्वे में अपार मार्केटिंग संभावनाओं की प्रत्याशा में ब्रिटेन की ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन जैसी बड़ी दवा निर्माता और वितरक कम्पनी इबोला टीके को लेकर काफी उत्साहित हैं।
अमेरिका की दवा कंपनी मैप बायोफार्मास्युटिकल ने इबोला के लिए ज़ेड मैप (ZMapp) नामक दवा इसी महीने के पहले सप्ताह में पेश कर दिया है। इस दवा को एक गुप्त सीरम बताया गया। यह मैप बायोफार्मास्युटिकल और कनाडा की कंपनी डिफाइरस (Defyrus) द्वारा उत्पादित दवाओं का कॉकटेल है। उल्लेखनीय है कि ज़ेड मैप दवा का परीक्षण अभी तक केवल बंदरों पर ही किया गया था। इसका मनुष्य स्वयंसेवकों पर परीक्षण 2015 में प्रस्तावित था लेकिन इबोला के अचानक प्रकोप और बीमारी के इलाज की हड़बड़ी में इसको एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट यानी प्रयोगात्मक उपचार के लिए उतार दिया गया है। किंग्स कॉलेज लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ सोशल साइन्स एंड हैल्थ की प्रोफेसर अनेते रीद और बायोएथिक्स के विशेषज्ञ अमेरिकावासी एज़कील एमैनुएल का कहना है कि वे दवाएं जो अभी सिर्फ़ ट्रायल के फेज़ से गुज़र रही हों उनका उपयोग एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट के लिए करना अनैतिक तो है ही साथ में एपिडेमेयोलॉजिकल नज़रिये से भी दुरुस्त नहीं। वह भी तब जब औषधि की प्रभावकारिता और प्रभावशीलता दोनों का परीक्षण पूरी तरह से सम्पन्न न हुआ हो। वैक्सीन की अपेक्षा स्वस्थ्य तंत्र को विकसित करने की ज़्यादा ज़रूरत है। स्वस्थ्य तंत्र और स्वास्थ्य अवसंरचना का विकास इस बीमारी पर लगाम तो लगाएगा ही साथ में यह अन्य बीमारियों के उन्मूलन का संपार्श्विक (कोलैटरल) लाभ भी देगा।
ग़ौरतलब है कि इबोला के इस हड़बोंग के बीच फिर कोई बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कंपनी, मसलन ग्लाक्सोस्मिथलाइन, इस बीमारी की वैक्सीन तैयार कर देगी। फिर ये दवाएं ख़ासतौर से विकासशील देशों में खपाई जायेंगी। बीमारियों का हौव्वा खड़ा करना और फिर इनके टीके बेचना इन कंपनियों की मार्केटिंग का एक हथकंडा है। पहले भी हेपेटाईटिस-बी का हौव्वा खड़ा किया गया था और उसके बाद इसका टीके बाज़ार में आ गये। देखते ही देखते कंपनियों ने अपने मुनाफ़े का जुगाड़ पक्का कर लिया। लगभग यही तरीक़ा इन कंपनियों ने पशुओं में फैलने वाली बीमारी बर्ड फ़्लू के सिलसिले में भी अपनाया था। ठीक इसी तर्ज़ पर स्वाइन फ्लू का हव्वा खड़ा किया गया। इस बीमारी से भयाक्रांत होकर देश की तत्कालीन यूपीए सरकार ने स्वाइन फ़्लू से लड़ने के लिए ने देश के प्रत्येक ज़िले के लिए दस हज़ार ख़ुराक़ टेमीफ्लू नामक दवा ख़रीदी गयी थी। बाद में न तो बीमारी रही और न इन दवाओं कि उपयोगिता। अरबों रूपये की ये दवाएं एक्सपायर होने की वजह से नष्ट करनी पड़ीं। इसी ज़मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं इबोला बीमारी दवा कंपनियों का मार्केटिंग का हथकंडा या षड्यंत्र तो नहीं है!
यह बात बिलकुल आईने कि तरह साफ़ है कि डब्ल्यूएचओ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं अमेरिका की जेबी की संस्थाएं हैं। अमेरिका पिछले कई सालों से आर्थिक मंदी की गिरफ़्त में है जिसका असर वहाँ की दवा कंपनियों में भी है। वहाँ की वित्तीय कंपनियों को तो बेलआउट और स्टिमुलस पैकेज तो मिल गए लेकिन दवा कंपनियां लगातार मंदी और व्यापार के संकट से जूझ रही हैं। इस मंडी से निकालने का सबसे सुलभ रास्ता है कि दवाओं और मेडिकल टेक्नोलॉजी की बिक्री विश्व बाज़ार में बढ़े। भारत समेत अन्य विकासशील देश इन कंपनियों का बृहत बाज़ार हैं।

इबोला का हौव्वा खड़ा करके, अमेरिकी मैप बायोफार्मास्युटिकल, कनाडा की टेकमीरा फार्मास्युटिकल्स कार्पोरेशन और डिफाइरस इंक जैसी मल्टीनेशनल कंपनियाँ एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट के आवरण में दक्षिण अफ़्रीक़ी देशों के लोगों को अपना तख़्त-ए-मश्क़ तो बना ही रही हैं वहीं दवाओं के कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियाँ अपनी  वैक्सीन और ग़ैर ज़रूरी दवाएं बेचने की क़वायद भी कर रही हैं। उनकी नज़र हिन्दुस्तान पर भी है। इसलिए देश के हुक्मरानों को इसके बारे में कोई भी फैसले पर बड़ी तार्किकता के साथ विचार करना होगा। क्यूंकी इस बीमारी से पार पाने के लिए सुव्यवस्थित, मज़बूत और सुसंगत स्वास्थ्य-तंत्र पहली आवश्यकता है फिर उसके बाद कोई अन्य चीज़।
(डीएनए हिन्दी में 3 सितम्बर 2014 को प्रकाशित 'इबोला का गोला और दवाओं का कारोबार')

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