मराठी की मशहूर कहावत
है—“ऊँची ज़ात के लोगों के पास
इल्म होता है, किसानों के पास
अनाज, लेकिन अछूतों
(अस्पृश्यों) के पास उनके गीत होते हैं।” लेकिन सीतम ज़रीफ़ी यह है कि जब कभी कला और संस्कृति की बात
आती है तो हाशिये के लोगों की संस्कृति का कोई ज़िक्र नहीं होता; मुख्य धारा की ही
संस्कृति ही हावी हो जाती है—यही ‘मेन डिसकोर्स’ का ‘सब्जेक्ट’ बनती है। लोक कला दूसरे दर्जे की चीज़ समझी जाती है। कमोबेश
यही हक़ीक़त मुस्लिम संस्कृति की भी है।
याह आम प्रवृति है
कि मुसलमानों की बात करते हुए मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद स्तरीकरण को नज़रअंदाज कर
दिया जाता है। मुसलमानों को एक एकाश्म (मोनोलिथ) समुदाय समझा जाता है। हक़ीक़त तो यह
है कि ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम-अल्पसंख्यक वर्ग भी कई हिस्सों में बंटा हुआ है और स्वयं
इस वर्ग के भीतर अगड़े और पिछड़े मुस्लिम जैसी श्रेणियां हैं। अगड़े मुस्लिमों को अशराफ़
और दलित या पिछड़े मुस्लिमों को पसमान्दा कहते है। मुस्लिम समुदाय के इस स्तरीकरण को
कभी इरादतन तो कभी ग़ैर-इरादतन नज़अंदाज किया जाता है। हालांकि,
सच्चर कमेटी नें मुस्लिम समाज के भीतर के स्तरीकरण को भली भांति संस्कृतिसमझा। सच्चर कमेटी रिपोर्ट का दसवाँ अध्याय मुस्लिम वर्ग के भीतर जाति-गत बँटवारे और
भेदभाव का अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस रिपोर्ट में कहा गया की मुस्लिमों की
तीन श्रेणियां हैं: पहली श्रेणी में ‘अशराफ़’ हैं—वे जिनमें कोई सामाजिक अपंगता नहीं है। दूसरी में ‘अजलाफ़’—वे जो हिन्दू
ओबीसी के समतुल्य हैं। तीसरी में ‘अर्ज़ाल’ हैं—वे जो हिन्दू एससी के समतुल्य हैं। वे जो मुस्लिम ओबीसी
(या, पसमान्दा) से संबोधित किए
जाते हैं दूसरे और तीसरे समूह को मिला कर हैं।
जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने पूंजीवाद व्यवस्था के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है। ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया
(ऊंची ज़ात ओ हसब-नसब वाले मुसलमानों) की ‘सांस्कृतिक अधिनायकवाद’ भी,
एक हद तक, ज़िम्मेदार है। मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृति—ख़ास कर के प्रदर्शन कलाओं या परफॉर्मिंग आर्ट्स—को, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा, शेर-ओ-शायरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से जाना जाता है। इस संस्कृति का
संस्थानीकरण मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है। क़ाबिले ग़ौर है कि ‘शाही मस्जिदों’ की इमामत व मज़ारों की मुजावरी पर तब्क़-ए-अशराफ़िया (उच्च जाति/वर्ग) के कुटुम्ब
विशेष का ही क़ब्ज़ा होता है जो पुश्त-दर-पुश्त चलता रहता है। इस तरह यह वर्ग अशराफ़िया—सामाजिक मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में
मनमाना रूप देकर—इन संस्थाओं और
मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है। दूसरी ओर,
हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त
का कोई ज़िक्र नहीं, मसलन,
नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर
में कोई स्थान नहीं। यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों,
सामाजिक-मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम
संस्कृति के विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है।
मिसाल के तौर, पर हाल ही प्रकाशित
होने वाली बरजोर अवारी (2013) की पुस्तक ‘इस्लामिक सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशिया’में भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम संस्कृति को सिर्फ क़व्वाली,
ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है;
पसमान्दा मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी।
इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर अशराफ़िया का आधिपत्य
सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है। चुनाँचे, समाजिक ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास
में और मुस्लिम समाज के आंतरिक लोकतांत्रिकरण के लिए, एक समानांतर संस्कृति का विकास और हाशिये संस्कृति को मुख्य
धारा मे लाना भी ज़रूरी होगा।
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