Monday, September 15, 2014

योजना आयोग के ख़ात्मे की योजना पर हो पुनर्विचार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए अपनी अनेक प्राथमिकताएँ बतायीं उनमें योजना आयोग का ख़ात्मा भी शामिल है। क़रीब ढाई दशक से चल रहे आर्थिक सुधारों के दौर में योजना आयोग की भूमिका में काफी परिवर्तन हुआ है। लेकिन इसकी प्रासंगिकता को एकसिरे से ख़ारिज कर इसको विघटित कर देना अलग बात है। भारतीय जनता पार्टी और इसके पूर्व संस्करण—हिन्दू महासभा और भारतीय जनसंघ—योजनाबद्ध आर्थिक विकास का विरोध हमेशा से करते रहे हैं। अलबत्ता उन्होंने कभी यह नहीं बतलाया कि इसका विकल्प क्या है।
आइए पहले, योजना आयोग की ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि पर एक नज़र डालते हैं। योजनाबद्ध विकास की दाग़बेल वर्ष 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में राखी गयी जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि दरिद्रता, अशिक्षा और बीमारी से जुड़ी समस्याएं समाजवाद के रास्ते पर चलकर ही समाप्त की जा सकती हैं। उत्पादन और वितरण का मसला भी इसी रास्ते हल किया जा सकता है। उन्होंने अपने भाषण में नियोजित विकास की परिकल्पना सामने रखी जिसे अपनाकर देश की अर्थव्यवस्था को आगे ले जाया जा सकता है। उन्हों ने राष्ट्रीय नियोजन समिति के गठन का प्रस्ताव रखा और जवाहरलाल नेहरू से इस समिति के अध्यक्ष बने। नेहरू का मानना था कि नियोजन का वास्ता केवल देश के औद्योगीकरण से ही नहीं जुड़ा है बल्कि वह लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन को पूरी तरह बदलने का सामर्थ्य रखता है। वर्ष 1946 में नेहरू अंतरिम सरकार के अध्यक्ष बन गए और समिति का काम रुक गया। उधर देश के बड़े पूंजीपतियों ने बंबई योजना प्रस्तुत की। इसे टाटा-बिड़ला योजना और बॉम्बे प्लान भी कहते हैं। दूसरी ओर, कम्युनिस्टों और सोशलिश्टों ने मानवेन्द्रनाथ राय की अध्यक्षता में पीपुल्स प्लान प्रस्तुत किया। ग़रज़ यह कि देश स्वतंत्र होते-होते पूँजीपतियों से लेकर साम्यवादियों और समाजवादियों तक हर कोई देश के योजनाबद्ध विकास की बात करने लगा था।
भारत ने 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना की पेश की थी और 1965 तक लगातार दो पंचवर्षीय योजनाएं बनीं लेकिन इसके बाद भारत-पाक संघर्ष के कारण इसमें विराम आया। लगातार दो साल तक सूखे, मुद्रा का अवमूल्यन, मंहगाई और संसाधन में कमी के कारण योजना प्रक्रिया बाधित हुई और 1966 से 1969 के बीच तीन सालाना योजनाओं, जिसे प्लान हॉली डे के नाम से भी जाना जाता है के बाद 1969 में चौथी पंचवर्षीय योजना तैयार हुई। केंद्र में तेजी से बदलते हालात के बीच 1990 में आठवीं योजना पेश नहीं हो सकी और 1990-91 और 1991-92 में सालाना योजनाएं यानी एनुअल प्लान पेश किया गया। ढांचागत समायोजन नीतियां शुरू करने के दौरान 1992 में आठवीं योजना पेश की गई। पहली आठ योजनाओं में आधारभूत और भारी उद्योगों में विशाल निवेश के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की वृद्धि पर था लेकिन 1997 में नौवीं योजना के साथ र्सावजनिक क्षेत्र पर जोर कम हुआ है। देश में योजना पर मौजूदा सोच आम तौर पर यह है कि इसे संकेतात्मक होना चाहिए। फिलहाल 12वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और यह मार्च 2017 में खत्म होगी।
किसी भी देश की आर्थिक उन्नति व विकास इस बात पर निर्भर करता है कि वह देश अपने मौजूद संसाधनों को कैसे प्रयोग में लाता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री डेरॉन एसमोगलू और राजनीति शास्त्री जेम्स रॉबिंसन ने संस्थाओं और आर्थिक विकास के बीच के रिश्ते का अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसी देश की आर्थिक प्रगति उस देश की संस्थाओं पर निर्भर करती है। देश की दीर्घवधि आर्थिक प्रगति के लिए सुचारु संस्थाओं होना अपरिहार्य है। बेहतर विकास के लिए बेहतर संस्थानों की आवश्यकता होती है जो नीतियां और योजनाएँ बनाएं और उनका प्रभावी क्रियान्वयन करें।
यह योजना आयोग नामक ही संस्था थी जिसने देश के विकास के रोडमैप और संसाधनों के वितरण की दिशा में कार्य करना शुरू किया। इस के ज़िम्मे यह काम आया कि कैसे केंद्रीय बजट में योजना संसाधनों को केंद्र एवं राज्यों और केंद्रीय मंत्रालयों के बीच आवंटित किया जाय। यह प्रत्येक योजना अवधि की शुरुआत में कार्यक्रमों का मूल्यांकन करता है। ग़ौरतलब है कि भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (कंट्रोलर ऑडीटर जनरल) या सीएजी अगर केंद्र व राज्य सरकारों के विभागों और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थानों के आय-व्यय की जाँच करती है तो वित्त आयोग केंद्र व राज्य सरकारों के बीच वित्त का बटवारा करता है। इस तरह, वित्त आयोग का काम मुख्य रूप से वित्त केंद्रित ही है क्योंकि यह राज्य की कुल संसाधन जरूरत और कर संग्रह की उसकी क्षमता का आकलन करता है। ऐसे में किसी न किसी संस्था को तो मूल्यांकन का काम करना ही होता और यह काम योजना आयोग करता है। प्रत्येक क्षेत्र में नीतियों का मूल्यांकन तो करता ही है साथ में सुझाव भी देता है। आयोग सरकार को स्वतंत्र दृष्टिकोण मुहैया कराता है। साथ ही यह हर एक राज्य के हिसाब से भी नीतियों की समीक्षा करके केंद्र और राज्यों दोनों को अपनी राय से अवगत कराता हैं। आयोग विभिन्न मंत्रालयों के बीच संबंधित मामलों में समन्वयकारी नीतियों में मदद करता है। मिसाल के तौर पर ऊर्जा को ही लें। यह विषय सात मंत्रालयों के अधिकार क्षेत्र में आता है। कई और मामले ऐसे हैं।
ग़ौरतलब है कि केवल केंद्र प्रायोजित योजनाएं या सेंट्रली स्पोंसर्ड स्कीम्स यानी सीएसएस ही योजना कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। इसमें परमाणु ऊर्जा, विज्ञान, राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे और बड़े बंदरगाहों वग़ैरा के क्षेत्र में केंद्र का खर्च भी शामिल है। अगर सीएसएस को खत्म भी कर दिया गया तबभी इसकी ज़रूरत तब तक रहेगी जब तक कि केंद्रीय क्षेत्र के सभी क्षेत्रों में निवेश होता रहेगा।

कहना न होगा कि ग़रीबी आकलन समेत ऐसे कई मुद्दे हैं जिनको योजना आयोग भलीभांति एड्रेस न कर पाया लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं कि इसके अस्तित्व को ही ख़त्म कर दिया जाए। करना तो यह चाहिए कि आयोग को नीति निर्माण के बेहतरीन तकनीकों का वाहक बनाया जाय। लाफ़ीताशाही के मकड़जाल से बाहर निकाल कर इसे देश की आवाम के प्रति जवाब देह भी बनाया जाय। साथ ही दीर्घकालिक विश्लेषण के साथ इसको ऐसी संस्था के रूप में विकसित करना होगा जो आज के नवउदारवादी दौर में भी जनोमुखी विकास को उत्प्रेरित कर सके तभी सबका साथ और सबका विकास सुनिश्चित हो सकेगा।


(डीएनए  हिन्दी में 15 सितम्बर 2014 को प्रकाशित 'खत्म नहीं, योजना आयोग में कीजिए सुधार')

No comments: