Saturday, August 30, 2014

सैनिटेशन की समस्या से जूझता भारत

खुले में शौच के मामले में अव्वल
गतवर्ष यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हम खुले में शौच के मामलों में विश्व में अग्रगणीय हैं; विश्व में खुले में शौच करने वाली आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है जो हमारे लिए शर्म की बात है। वहीं मौजूदा प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतन्त्रता दिवस के मौक़े पर लाल क़िले की प्राचीर से अपने भाषण में शौचालय की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। इससे पहले भी  उन्होने अपने चुनाव अभियान के दौरान कहा था देश को देवालय की नहीं शौचालय की ज़रूरत है। इन्हीं बातों की पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनीसेफ की संयुक्त रिपोर्ट प्रोग्रैस ऑन ड्रिकिंग वाटर एंड सैनीटेशन-2014 अपडेट कर रही है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व भर में खुले में शौच करने वाले एक अरब लोगों में से 82 प्रतिशत लोग केवल 10 देशों में हैं। वैश्विक स्तर पर भारत ऐसा देश बना हुआ है जहां सबसे अधिक यानी तक़रीबन साठ करोड़ लोग खुले में शौच करने वाले लोग रहते हैं। देश के लगभग 130 मिलियन घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। ग्रामीण इलाक़ों के लगभाग 72 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। अलबत्ता, इसी बीच अच्छी बात यह हुई है कि पिछली 10 जुलाई को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि 2019 तक इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का लक्ष्य है।
पब्लिक हेल्थ प्रॉब्लम
खुले में शौच करना शर्म की बात हो या न हो लेकिन इतना ज़रूर है कि इससे स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसका डायरिया और अन्य मल-जनित जैसे रोगों से सीधा संबंध है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार खुले में शौच, असुरक्षित पानी, साफ़ सफ़ाई की कमी से होने वाली डायरिया जैसी बीमारियां दुनिया में हर रोज़ पांच वर्ष से कम उम्र के करीब दो हज़ार बच्चों की जान ले लेती हैं। इनमें से एक चौथाई मौतें अकेले भारत में होती हैं। अन्य अनुमानों के मुताबिक इससे मृत्यु के आंकड़े काफी ज्यादा हैं। वहीं विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया कि अपर्याप्त साफ़-सफ़ाई के कारण भारत को हर साल 5,400 करोड़ डॉलर मतलब तक़रीबन 3.2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है। यह रकम भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की क़रीब 6 फ़ीसदी है।
भारत में कुपोषण के लिए साफ़ सफ़ाई या सैनिटेशन की ख़राब हालत भी ज़िम्मेदार है। देश में पांच साल से कम उम्र के 6.2 करोड़ बच्चों के उचित शारीरिक और मानसिक विकास के साफ़ सफ़ाई वाला वातावरण नहीं मिल पाता। वर्ष 2012 में 'सेव द चिल्ड्रन' के एक अनुमान के अनुसार देश में 43 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के और 'कुपोषित' थे।
बच्चों के जन्म के दो वर्ष का समय उनके शारीरिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है। इस अवधि में खुले में शौच के कारण विभिन्न बीमारियों के कीटाणु बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। बच्चों के सामान्य कद में आ रही कमी जिसे जनस्वास्थ्य की शब्दावली में स्टंटिंग कहते हैं का सीधा नाता खुले में शौच से है। अमरीका स्थित प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के हेल्थ-एकॉनमिस्ट डीन स्पेयर्स ने अपने अध्ययन में इस बात का खुलासा किया कि खुले में शौच की बुराई के कारण भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है—वे स्टंटिंग से ग्रसित हैं।
लैंगिक हिंसा की राह हमवार करता है
शौचालयों की अनुपलब्धता न सिर्फ़ एक जनस्वास्थ्य समस्या है बल्कि इसका नाता लैंगिक हिंसा और यौन हिंसा से भी है। गत मई महीने में उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले में दो युवतियों का पहले सामूहिक बलात्कार हुआ और उसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। ख़बरों में बताया गया है कि दोनों नाबालिग़ लड़कियां अपने घर से शौच के लिए निकलीं थीं और उसके बाद लापता हुईं। यह वाक़्या बताता है कि भारत में शौचालय की कमी की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं किस तरह होती हैं। गोकि महिलाओं पर हो रही लैंगिक हिस्सा का एक मात्र कारण खुले में शौच करना नहीं है बल्कि इसकी वजहें पृतिसत्तात्मक सोच की जड़ों में पिन्हा हैं मगर फिरभी खुले में शौच बलात्कारी दरिंदों को कन्डूसिव अवसर उपलब्ध कराता है। भारत ही नहीं केन्या और युगांडा जैसे अन्य देशों में खुले में शौच के लिए जाने वाली महिलाओं के साथ यौन हिंसा की अक्सर वारदातें होती हैं।
समस्या के सांस्कृतिक कारण
इस समस्या के सांस्कृतिक कारण भी हैं। हमारे देश में घर के अंदर ही शौचालय बनाने की परंपरा नहीं रही है। दो हज़ार साल पुराने ग्रंथ मनु-स्मृति में, अनुष्ठान अशुद्धि से बचने हेतु, घर से दूर खुले में शौच क्रिया को प्रोत्साहित किया गया है। आज भी गवों रहने वाले बहुतेरे लोग, घरों में शौचालय की सुविधा होने के बावजूद खुले में जाते हैं।
निश्चित ही यह गंभीर समस्या है और इससे छुटकारा हासिल करने के लिए इसके सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर भी विचार करना होगा। सांस्थानिक प्रयास के साथ साथ वैयक्तिक स्तर पर भी प्रयास ज़रूरी है; तभी तो गांधी जी ने भी कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक महत्वपूर्ण है अत: हमें खुले में थूकने व शंका निवारण आदि से संकोच करना चाहिए। दूसरी ओर संस्थागत प्रयास भी बहुत ही अच्छे नतीजे देते हैं। डबल्यूएचओ के एक अध्ययन के अनुसार साफ़-सफ़ाई में ख़र्च किया गया एक रुपया सामाजिक-आर्थिक फ़ायदे के लिहाज से नौ गुना प्रतिफल देता है। संक्रमण और बीमारी का स्तर घटता है जिससे स्वास्थ्य सेवाओं पर कम ख़र्च तो होता है; एक स्वस्थ्य व्यक्ति की उत्पादकता निश्चित रूप से अधिक होती है।
कैसे मिले निजात?
गत दशकों में हमने शौचालय का दायरा 27.5 करोड़ लोगों तक बढ़ाया लेकिन यह नाकाफी है। एसोसिएटेड प्रेस के एक आकलन के अनुसार लगभग 64 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, जिससे रोजाना 72,000 टन मल का ढेर लगता है। इससे 10 ऐफिल टावर बनाए जा सकते हैं, राष्ट्रीय शर्म का यह एक ऐसा संग्रहालय, जो सभ्य समाज के हमारे दावे को तार-तार कर रहा है।
निर्मल भारत अभियान के तहत 2022 इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन इस की प्राप्ति अभी तक दूर की कौड़ी बनी हुई है। तिस पर तुर्रा यह कि, 2014 के बजट में वित्तमंत्री ने प्रत्येक घर को 2019 तक स्वच्छता सुविधा उपलब्ध कराने के लिए "स्वच्छ भारत अभियान" चलाने की घोषणा कर दी। देखना अब यह है कि सरकार कितनी प्रतिबद्धता से इस राष्ट्रीय शर्म को दूर करती है।
(नवभारत टाइम्स में 29 अगस्त 2014 को प्रकाशित 'डिवेलपमेंट के अजेंडे का हिस्सा बने सैनिटेशन' का ग़ैर- संपादित आलेख)

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