Monday, September 22, 2014

हाशिये की संस्कृति

मराठी की मशहूर कहावत हैऊँची ज़ात के लोगों के पास इल्म होता है, किसानों के पास अनाज, लेकिन अछूतों (अस्पृश्यों) के पास उनके गीत होते हैं। लेकिन सीतम ज़रीफ़ी यह है कि जब कभी कला और संस्कृति की बात आती है तो हाशिये के लोगों की संस्कृति का कोई ज़िक्र नहीं होता; मुख्य धारा की ही संस्कृति ही हावी हो जाती है—यही मेन डिसकोर्स का सब्जेक्ट बनती है। लोक कला दूसरे दर्जे की चीज़ समझी जाती है। कमोबेश यही हक़ीक़त मुस्लिम संस्कृति की भी है।

याह आम प्रवृति है कि मुसलमानों की बात करते हुए मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद स्तरीकरण को नज़रअंदाज कर दिया जाता है। मुसलमानों को एक एकाश्म (मोनोलिथ) समुदाय समझा जाता है। हक़ीक़त तो यह है कि ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम-अल्पसंख्यक वर्ग भी कई हिस्सों में बंटा हुआ है और स्वयं इस वर्ग के भीतर अगड़े और पिछड़े मुस्लिम जैसी श्रेणियां हैं। अगड़े मुस्लिमों को अशराफ़ और दलित या पिछड़े मुस्लिमों को पसमान्दा कहते है। मुस्लिम समुदाय के इस स्तरीकरण को कभी इरादतन तो कभी ग़ैर-इरादतन नज़अंदाज किया जाता है। हालांकि, सच्चर कमेटी नें मुस्लिम समाज के भीतर के स्तरीकरण को भली भांति संस्कृतिसमझा। सच्चर कमेटी रिपोर्ट का दसवाँ अध्याय मुस्लिम वर्ग के भीतर जाति-गत बँटवारे और भेदभाव का अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस रिपोर्ट में कहा गया की मुस्लिमों की तीन श्रेणियां हैं: पहली श्रेणी में अशराफ़ हैं—वे जिनमें कोई सामाजिक अपंगता नहीं है। दूसरी में अजलाफ़’—वे जो हिन्दू ओबीसी के समतुल्य हैं। तीसरी में अर्ज़ाल हैं—वे जो हिन्दू एससी के समतुल्य हैं। वे जो मुस्लिम ओबीसी (या, पसमान्दा) से संबोधित किए जाते हैं दूसरे और तीसरे समूह को मिला कर हैं।

जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने पूंजीवाद व्यवस्था के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है। ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया (ऊंची ज़ात ओ हसब-नसब वाले मुसलमानों) की सांस्कृतिक अधिनायकवादभी, एक हद तक, ज़िम्मेदार है। मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृतिख़ास कर के प्रदर्शन कलाओं या परफॉर्मिंग आर्ट्सको, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा, शेर-ओ-शायरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से जाना जाता है। इस संस्कृति का संस्थानीकरण मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है। क़ाबिले ग़ौर है कि शाही मस्जिदोंकी इमामत व मज़ारों की मुजावरी पर तब्क़-ए-अशराफ़िया (उच्च जाति/वर्ग) के कुटुम्ब विशेष का ही क़ब्ज़ा होता है जो पुश्त-दर-पुश्त चलता रहता है। इस तरह यह वर्ग अशराफ़ियासामाजिक मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में मनमाना रूप देकरइन संस्थाओं और मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है। दूसरी ओर, हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त का कोई ज़िक्र नहीं, मसलन, नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर में कोई स्थान नहीं। यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों, सामाजिक-मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम संस्कृति के विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है। मिसाल के तौर, पर हाल ही प्रकाशित होने वाली बरजोर अवारी (2013) की पुस्तक इस्लामिक सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशियामें भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम संस्कृति को सिर्फ क़व्वाली, ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है; पसमान्दा मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी।


इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर अशराफ़िया का आधिपत्य सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है। चुनाँचे, समाजिक ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास में और मुस्लिम समाज के आंतरिक लोकतांत्रिकरण के लिए, एक समानांतर संस्कृति का विकास और हाशिये संस्कृति को मुख्य धारा मे लाना भी ज़रूरी होगा।

Monday, September 15, 2014

योजना आयोग के ख़ात्मे की योजना पर हो पुनर्विचार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले के प्राचीर से राष्ट्र को संबोधित करते हुए अपनी अनेक प्राथमिकताएँ बतायीं उनमें योजना आयोग का ख़ात्मा भी शामिल है। क़रीब ढाई दशक से चल रहे आर्थिक सुधारों के दौर में योजना आयोग की भूमिका में काफी परिवर्तन हुआ है। लेकिन इसकी प्रासंगिकता को एकसिरे से ख़ारिज कर इसको विघटित कर देना अलग बात है। भारतीय जनता पार्टी और इसके पूर्व संस्करण—हिन्दू महासभा और भारतीय जनसंघ—योजनाबद्ध आर्थिक विकास का विरोध हमेशा से करते रहे हैं। अलबत्ता उन्होंने कभी यह नहीं बतलाया कि इसका विकल्प क्या है।
आइए पहले, योजना आयोग की ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि पर एक नज़र डालते हैं। योजनाबद्ध विकास की दाग़बेल वर्ष 1938 में कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में राखी गयी जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष बने और उन्होंने स्पष्ट तौर पर कहा कि दरिद्रता, अशिक्षा और बीमारी से जुड़ी समस्याएं समाजवाद के रास्ते पर चलकर ही समाप्त की जा सकती हैं। उत्पादन और वितरण का मसला भी इसी रास्ते हल किया जा सकता है। उन्होंने अपने भाषण में नियोजित विकास की परिकल्पना सामने रखी जिसे अपनाकर देश की अर्थव्यवस्था को आगे ले जाया जा सकता है। उन्हों ने राष्ट्रीय नियोजन समिति के गठन का प्रस्ताव रखा और जवाहरलाल नेहरू से इस समिति के अध्यक्ष बने। नेहरू का मानना था कि नियोजन का वास्ता केवल देश के औद्योगीकरण से ही नहीं जुड़ा है बल्कि वह लोगों के सामाजिक-आर्थिक जीवन को पूरी तरह बदलने का सामर्थ्य रखता है। वर्ष 1946 में नेहरू अंतरिम सरकार के अध्यक्ष बन गए और समिति का काम रुक गया। उधर देश के बड़े पूंजीपतियों ने बंबई योजना प्रस्तुत की। इसे टाटा-बिड़ला योजना और बॉम्बे प्लान भी कहते हैं। दूसरी ओर, कम्युनिस्टों और सोशलिश्टों ने मानवेन्द्रनाथ राय की अध्यक्षता में पीपुल्स प्लान प्रस्तुत किया। ग़रज़ यह कि देश स्वतंत्र होते-होते पूँजीपतियों से लेकर साम्यवादियों और समाजवादियों तक हर कोई देश के योजनाबद्ध विकास की बात करने लगा था।
भारत ने 1951 में पहली पंचवर्षीय योजना की पेश की थी और 1965 तक लगातार दो पंचवर्षीय योजनाएं बनीं लेकिन इसके बाद भारत-पाक संघर्ष के कारण इसमें विराम आया। लगातार दो साल तक सूखे, मुद्रा का अवमूल्यन, मंहगाई और संसाधन में कमी के कारण योजना प्रक्रिया बाधित हुई और 1966 से 1969 के बीच तीन सालाना योजनाओं, जिसे प्लान हॉली डे के नाम से भी जाना जाता है के बाद 1969 में चौथी पंचवर्षीय योजना तैयार हुई। केंद्र में तेजी से बदलते हालात के बीच 1990 में आठवीं योजना पेश नहीं हो सकी और 1990-91 और 1991-92 में सालाना योजनाएं यानी एनुअल प्लान पेश किया गया। ढांचागत समायोजन नीतियां शुरू करने के दौरान 1992 में आठवीं योजना पेश की गई। पहली आठ योजनाओं में आधारभूत और भारी उद्योगों में विशाल निवेश के साथ सार्वजनिक क्षेत्र की वृद्धि पर था लेकिन 1997 में नौवीं योजना के साथ र्सावजनिक क्षेत्र पर जोर कम हुआ है। देश में योजना पर मौजूदा सोच आम तौर पर यह है कि इसे संकेतात्मक होना चाहिए। फिलहाल 12वीं पंचवर्षीय योजना चल रही है और यह मार्च 2017 में खत्म होगी।
किसी भी देश की आर्थिक उन्नति व विकास इस बात पर निर्भर करता है कि वह देश अपने मौजूद संसाधनों को कैसे प्रयोग में लाता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री डेरॉन एसमोगलू और राजनीति शास्त्री जेम्स रॉबिंसन ने संस्थाओं और आर्थिक विकास के बीच के रिश्ते का अध्ययन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि किसी देश की आर्थिक प्रगति उस देश की संस्थाओं पर निर्भर करती है। देश की दीर्घवधि आर्थिक प्रगति के लिए सुचारु संस्थाओं होना अपरिहार्य है। बेहतर विकास के लिए बेहतर संस्थानों की आवश्यकता होती है जो नीतियां और योजनाएँ बनाएं और उनका प्रभावी क्रियान्वयन करें।
यह योजना आयोग नामक ही संस्था थी जिसने देश के विकास के रोडमैप और संसाधनों के वितरण की दिशा में कार्य करना शुरू किया। इस के ज़िम्मे यह काम आया कि कैसे केंद्रीय बजट में योजना संसाधनों को केंद्र एवं राज्यों और केंद्रीय मंत्रालयों के बीच आवंटित किया जाय। यह प्रत्येक योजना अवधि की शुरुआत में कार्यक्रमों का मूल्यांकन करता है। ग़ौरतलब है कि भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (कंट्रोलर ऑडीटर जनरल) या सीएजी अगर केंद्र व राज्य सरकारों के विभागों और उनके द्वारा नियंत्रित संस्थानों के आय-व्यय की जाँच करती है तो वित्त आयोग केंद्र व राज्य सरकारों के बीच वित्त का बटवारा करता है। इस तरह, वित्त आयोग का काम मुख्य रूप से वित्त केंद्रित ही है क्योंकि यह राज्य की कुल संसाधन जरूरत और कर संग्रह की उसकी क्षमता का आकलन करता है। ऐसे में किसी न किसी संस्था को तो मूल्यांकन का काम करना ही होता और यह काम योजना आयोग करता है। प्रत्येक क्षेत्र में नीतियों का मूल्यांकन तो करता ही है साथ में सुझाव भी देता है। आयोग सरकार को स्वतंत्र दृष्टिकोण मुहैया कराता है। साथ ही यह हर एक राज्य के हिसाब से भी नीतियों की समीक्षा करके केंद्र और राज्यों दोनों को अपनी राय से अवगत कराता हैं। आयोग विभिन्न मंत्रालयों के बीच संबंधित मामलों में समन्वयकारी नीतियों में मदद करता है। मिसाल के तौर पर ऊर्जा को ही लें। यह विषय सात मंत्रालयों के अधिकार क्षेत्र में आता है। कई और मामले ऐसे हैं।
ग़ौरतलब है कि केवल केंद्र प्रायोजित योजनाएं या सेंट्रली स्पोंसर्ड स्कीम्स यानी सीएसएस ही योजना कार्यक्रम का हिस्सा नहीं हैं। इसमें परमाणु ऊर्जा, विज्ञान, राष्ट्रीय राजमार्गों, रेलवे और बड़े बंदरगाहों वग़ैरा के क्षेत्र में केंद्र का खर्च भी शामिल है। अगर सीएसएस को खत्म भी कर दिया गया तबभी इसकी ज़रूरत तब तक रहेगी जब तक कि केंद्रीय क्षेत्र के सभी क्षेत्रों में निवेश होता रहेगा।

कहना न होगा कि ग़रीबी आकलन समेत ऐसे कई मुद्दे हैं जिनको योजना आयोग भलीभांति एड्रेस न कर पाया लेकिन इसका मतलब ये क़तई नहीं कि इसके अस्तित्व को ही ख़त्म कर दिया जाए। करना तो यह चाहिए कि आयोग को नीति निर्माण के बेहतरीन तकनीकों का वाहक बनाया जाय। लाफ़ीताशाही के मकड़जाल से बाहर निकाल कर इसे देश की आवाम के प्रति जवाब देह भी बनाया जाय। साथ ही दीर्घकालिक विश्लेषण के साथ इसको ऐसी संस्था के रूप में विकसित करना होगा जो आज के नवउदारवादी दौर में भी जनोमुखी विकास को उत्प्रेरित कर सके तभी सबका साथ और सबका विकास सुनिश्चित हो सकेगा।


(डीएनए  हिन्दी में 15 सितम्बर 2014 को प्रकाशित 'खत्म नहीं, योजना आयोग में कीजिए सुधार')

Thursday, September 4, 2014

लव जिहाद का सामाजिक इतिहास

तमाम हथकण्डों के बीच, दूसरे धार्मिक समुदाय विशेषतः अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में झूठा प्रचार करना फ़ासीवादियों तथा दक्षिणपंथी-सांप्रदायिकों का पुराना हथकण्डा रहा है। इसी संदर्भ में, हाल ही में लव जिहाद का एक नया हौव्वा खड़ा किया जा रहा है। इस मिथ्याप्रचार के अनुसार मुसलमान हिन्दू नवयुवतियों को प्यार के जाल में फँसाकर उनका धर्मांतरण तो कराते ही है साथ में अपनी आबादी भी बढ़ाते हैं। पिछले कई सालों से विश्व हिन्दू परिषद, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिन्दू जन जागरण समिति आदि संगठन इस अफ़वाह-तंत्र को विकसित करने के सुकार्य में पूरी तल्लीनता के साथ लगे हुए हैं। पिछले साल मुज़फ़्फ़रनगर का बहू-बेटी बचाओ आंदोलन और कुछ दिनों पहले मेरठ का धर्मांतरण वाला क़िस्सा इसी मिथ्याप्रचार की अगली कड़ी है।
इससे पहले, कर्नाटक और केरल लव जिहाद का प्रयोगशाला बना। 2010 में दक्षिण कर्नाटक में हिन्दू जनजागृति समिति ने यह प्रचार शुरू किया कि प्रान्त में तीस हज़ार हिन्दू नवयुवतियों को लव जिहाद वालों ने अपने प्यार-चक्कर में फाँसकर मुस्लिम बना लिया है। लगभग ऐसा ही प्रचार केरल में भी शुरू किया गया था और केरल के उच्चन्यायालय ने बाक़ायदा इसकी जाँच के आदेश भी दिए; मगर पुलिस को ऐसे किसी भी जिहाद का किसी भी तरह का कोई सबूत तक नहीं मिला और अदालत को यह केस बंद करना पड़ा। वहीं कर्नाटक पुलिस की जाँच से पता चला कि हिन्दू जनजागृति समिति ने जिस समयावधि के दौरान तीस हज़ार हिन्दू लड़कियों के गुम होने का प्रचार किया है, वह सरासर ग़लत है। उस समयावधि में ऐसी सिर्फ़ 404 लड़कियाँ गुम हुई और उनमें से 332 को पुलिस ने ढूँढ़ निकाला। पुलिस की जाँच से यह भी हक़ीक़त आशकार हुई कि इनमें से ज़्यादातर मामलों में हिन्दू लड़कियाँ हिन्दू लड़कों से शादी करने के लिए घर से गयी थीं। दूसरी तरफ़, मेरठ के एक मदरसे में पढ़ाने वाली युवती के धर्म परिवर्तन के आरोप भी ग़लत साबित हुए, लड़की ने जो हलफ़नामा दाख़िल किया है उसमें उसने कहा है कि वह अपनी मर्ज़ी से अपना धर्म बदला है।
ग़ौरतलब है कि लव जिहाद का मिथ्याप्रचार कोई नयी चीज़ नहीं है इसका सिलसिला 1920 के दशक में जनसंघ और आरएसएस के आविर्भाव के काल से अलग-अलग पेशबंदियों के तहत चल रहा था। 1924 में कानपुर में एक पुस्तिका प्रकाशित की गयी जिसका शीर्षक था—हमारा भीषण ह्रास। इस पुस्तक में यह बताया गया कि—भारी संख्या में आर्य महिलाएं यवनों और मलेक्षों (मुसलमानों) से निकाह कर रही हैं और गौभक्षकों को जन्म दे रही हैं। मुसलमानों की जनसंख्या बढ़ा रही हैं। 1928 में एक कविता प्रकाशित की गयी जिसे बाद में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने बैन कर दिया गया। इस कविता का शीर्षक था—चंद मुसलमानों की हरकतें’, इस कविता की चंद लाइनें इस प्रकार हैं:
तादाद बढ़ाने के लिए चल चलायी
मुस्लिम बनाने के लिए स्कीम आई..
इक्कों को गली गाँव में लेकर घूमते हैं
पर्दे को डाल मुस्लिम औरत बैठाते हैं।
लगभग इसी लाइन पर आज के आरएसएस के आनुषांगिक संगठन और हिन्दू रक्षक समिति जैसे गिरोह काम करते हैं। महाराष्ट्र के धुले ज़िले के ये गिरोह उन मोटरसाइकिल पर भी नज़र रखते हैं जिनपर लड़के के पीछे लड़की बैठी हो। ये लोग मोटरसाइकिल का नंबर ले कर स्थानीय ट्रांसपोर्ट दफ़्तर से यह पता करते हैं कि मोटरसाइकिल हिन्दू की है या मुस्लिम की, और अगर मोटरसाइकिल मुस्लिम की है तो उसके पीछे बैठी लड़की हिन्दू ही होगी!
लव जिहाद अफ़वाहसाज़ी के उसी बड़े गेम प्लान का हिस्सा है जिसे नरेन्द्र मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद वहाँ हुए चुनाव के दौरान कहा थाहम (मतलब हिन्दू) दो हमारे दो, वो (मतलब मुस्लिम) पाँच उनके पचीस। दरअस्ल इस गेमप्लान की जड़ें इतिहास में पैवस्ता हैं। एक सदी पहले 1909 में पंजाब हिन्दू महासभा के सह-संस्थापक यू॰एन॰ मुखर्जी ने हिन्दू : ए डाईंग रेस नामक किताब लिखी जिस में उन्होने ने जनसंख्या का नवमाल्थसवादी सिद्धान्त पेश किया था, जिसके अनुसार देश में मुस्लिम लोग ज़्यादा बच्चे पैदा करके हिन्दुओं से अपनी जनसंख्या अधिक करने वाले हैं और इस तरह बहुत जल्दी ही मुसलमान बहुसंखयक और हिन्दू अल्पसंखयक बन जाएंगे। मुसलमान भारत पर क़ब्ज़ा कर लेंगे। मुसलमानों के बढ़ती जनसंख्या का यह बेसुरा और घिनौना राग यू॰एन॰ मुखर्जी की उसी पुस्तक से निकला है। पिछले कई सालों से इन दक्षिण पंथियों ने इसी राग फिर से अलापना शुरू कर दिया है, लेकिन अब वे इसे नए रंग में लपेट कर लाए हैं। पहले संघी संगठन मुसलमानों द्वारा अपनी जनसंख्या बढ़ाने का हौव्वा ही खड़ा करते थे, अब उन्होंने ने इसमें लव-जिहाद का डर भी जोड़ दिया है।
लव जिहाद का मामला सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ़ मिथ्याप्रचार का ही नहीं है बल्कि पूरे समाज में नारी-विरोधी पुरुषवादी सामन्ती सोच को बढ़ावा देने का भी है। ऐसी मानसिकता न सिर्फ़ वयस्क युवक-युवतियों के अपने ज़िन्दगी के फैसले खुद करने के अधिकार को नकारती है, बल्कि ये औरतों के बच्चा पैदा करने सम्बन्धी अधिकार को भी नहीं मानना चाहती। ऐसी सोच औरत को मात्र बच्चा पैदा करने वाली मशीन समझने की ही है जो पूरी तरह से पुरुष के अनुसार पुरुष की मर्जी से बच्चे पैदा करे। इस सोच के अंतस में औरत या तो पुरुष, परिवार या धर्म की इज़्ज़त से जुड़ी कोई वस्तु है, या फिर भोगने की।
यह अकाट्य सत्य है कि बहुसंख्यक समुदाय (पढ़िये हिन्दू) जातीय, नस्लीय और लिंग के आधार पर ग़ैरबराबरी वाले समाज बंटा हुआ है। इसके अपने आंतरिक अंतर्विरोध हैं। स्तरीकृत समाजों में इन अंतर्विरोधों का होना अवश्यंभावी है। लव जिहाद दरअस्ल, बहुसंख्यक समाज के उपेक्षित, तिरस्कृत और शोषित तब्क़े का ध्यान उनकी मूल समस्याओं से हटा कर इस झूठे डर का खौफ़ दिखा कर उनको एक प्लेटफॉर्म पर लाने का हथकंडा है। पिछली लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित सफलता ने संघ परिवार के हौसलों को और बुलंद कर दिया है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के 2017 के चुनावों के मद्देनजर सांप्रदायिक शक्तियों का यह घिनौना खेल पूरे रफ़्तार से जारी है। इसके लिए ज़रूरी है कि संघपरिवार के इस झूठ को बेनक़ाब किया जाए और गंगा जमुनी तहज़ीब के उस पहलू को अंगीकार किया जाए जिसके बारे में नवाब वाजिद अली शाह ने कहा था:
हम इश्क़ के बन्दे हैं, मज़हब से नहीं वाक़िफ़
गर काबा हुआ तो क्या, बुतख़ाना हुआ तो क्या।

Wednesday, September 3, 2014

इबोला का गोला : महामारी का हौव्वा और दवाओं का कारोबार

इस वैश्वीकृत दुनिया में जब पोलियो, चेचक जैसी तमाम बीमारियों पर विजय हासिल करने के दावे किए जा रहे हैं तो वहीं इबोला नाम के खतरनाक वायरस ने तांडव मचाना शुरू कर दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डबल्यूएचओ ने इसे रिस्क ग्रुप-4 पेथोजेन अर्थात महामारी की श्रेणी में रखा है। डबल्यूएचओ के अनुसार यह हालिया चार दशकों की सबसे ख़तरनाक और व्यापक बीमारी है। नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, इस साल के शुरुवात से अब तक, इबोला विषाणु से पीड़ित होकर मरने वालों की संख्या 1427 हो गई है जबकि 2615 लोग ऐसे हैं जो इस रोग से ग्रस्त होकर जिंदगी और मौत के बीच जूझ रहे हैं। बताया जाता है कि इबोला बीमार इस वर्ष के शुरू में गिनी कोनाकरी, और उसके बाद लाइबेरिया, सिएरालोन और नाइजीरिया में फैली।
दुनियाभर में भय का पर्याय बना इबोला कोई नया रोग नहीं है। क़रीब 40 साल पहले इस रोग के केस मिले। इसको पहले इबोला हेमरेजिक फ़ीवर या रक्तस्रावी बुखार के रूप में जाना जाता था। पहली बार इस रोग के संक्रमण के केस 1976 में सूडान और कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य में मिले। इबोला नामक नदी के तट पर स्थित गाँव सर्वप्रथम इस रोग के प्रकोप का कोपभजन बना इसी के नाम से ये रोग जाना जाने लगा और इसके विषाणु को इबोला वाइरस कहा जाने लगा।
गोकि यह बीमारी चालीस साल पुरानी है लेकिन इसका अभी तक इसकी कोई वैक्सीन या टीका विकसित नहीं किया जा सका है। बड़ी-बड़ी फार्मास्युटिकल कम्पनियाँ और अनुसंधान संस्थाएं उन्हीं दवाओं को विकसित करने में दिलचस्पी लेती हैं जिससे उनको मोटी आमदनी हो सके। ज़ाहिर है, ग़रीब देशों में रहने वाले लोग अपनी बीमारी पर मोटी रक़म ख़र्च करने की हालत में नहीं होते हैं। लिहाज़ा इन देशों में होनेवाली बीमारियों के दवाओं को और ज़्यादा विकसित और प्रभावी बनाने लिए आवश्यक अनुसंधान इन कम्पनियों की वरीयता सूची से बाहर रहते हैं। कालाज़ार, मलेरिया, टीबी, दस्त और चागा रोग की दवाओं में नया अनुसंधान लगभग न के बराबर है। इन रोगों का इलाज दशकों पुराने फॉरमूले के आधार पर ही किया जा रहा है। अलबत्ता इबोला जैसी बीमारियों का हौव्वा खड़ा करके विकासशील देशों में अपनी उपयुक्त-अनुपयुक्त दवाओं को बेचना इनका प्रिय शग़ल और मार्केटिंग स्ट्रेटजी है। हालांकि जिस अमेरिकी कम्पनी ज़ेड मैपने इबोला के टीके को विकसित करने में दिलचस्पी दिखाई है वह कोई बहुत बड़ी कम्पनी नहीं है। यह पूरी तरह से पब्लिक फंडेड कंपनी है। यह अलग बात है इसके हौव्वे में अपार मार्केटिंग संभावनाओं की प्रत्याशा में ब्रिटेन की ग्लैक्सोस्मिथक्लाइन जैसी बड़ी दवा निर्माता और वितरक कम्पनी इबोला टीके को लेकर काफी उत्साहित हैं।
अमेरिका की दवा कंपनी मैप बायोफार्मास्युटिकल ने इबोला के लिए ज़ेड मैप (ZMapp) नामक दवा इसी महीने के पहले सप्ताह में पेश कर दिया है। इस दवा को एक गुप्त सीरम बताया गया। यह मैप बायोफार्मास्युटिकल और कनाडा की कंपनी डिफाइरस (Defyrus) द्वारा उत्पादित दवाओं का कॉकटेल है। उल्लेखनीय है कि ज़ेड मैप दवा का परीक्षण अभी तक केवल बंदरों पर ही किया गया था। इसका मनुष्य स्वयंसेवकों पर परीक्षण 2015 में प्रस्तावित था लेकिन इबोला के अचानक प्रकोप और बीमारी के इलाज की हड़बड़ी में इसको एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट यानी प्रयोगात्मक उपचार के लिए उतार दिया गया है। किंग्स कॉलेज लंदन के डिपार्टमेंट ऑफ सोशल साइन्स एंड हैल्थ की प्रोफेसर अनेते रीद और बायोएथिक्स के विशेषज्ञ अमेरिकावासी एज़कील एमैनुएल का कहना है कि वे दवाएं जो अभी सिर्फ़ ट्रायल के फेज़ से गुज़र रही हों उनका उपयोग एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट के लिए करना अनैतिक तो है ही साथ में एपिडेमेयोलॉजिकल नज़रिये से भी दुरुस्त नहीं। वह भी तब जब औषधि की प्रभावकारिता और प्रभावशीलता दोनों का परीक्षण पूरी तरह से सम्पन्न न हुआ हो। वैक्सीन की अपेक्षा स्वस्थ्य तंत्र को विकसित करने की ज़्यादा ज़रूरत है। स्वस्थ्य तंत्र और स्वास्थ्य अवसंरचना का विकास इस बीमारी पर लगाम तो लगाएगा ही साथ में यह अन्य बीमारियों के उन्मूलन का संपार्श्विक (कोलैटरल) लाभ भी देगा।
ग़ौरतलब है कि इबोला के इस हड़बोंग के बीच फिर कोई बहुराष्ट्रीय अमेरिकी कंपनी, मसलन ग्लाक्सोस्मिथलाइन, इस बीमारी की वैक्सीन तैयार कर देगी। फिर ये दवाएं ख़ासतौर से विकासशील देशों में खपाई जायेंगी। बीमारियों का हौव्वा खड़ा करना और फिर इनके टीके बेचना इन कंपनियों की मार्केटिंग का एक हथकंडा है। पहले भी हेपेटाईटिस-बी का हौव्वा खड़ा किया गया था और उसके बाद इसका टीके बाज़ार में आ गये। देखते ही देखते कंपनियों ने अपने मुनाफ़े का जुगाड़ पक्का कर लिया। लगभग यही तरीक़ा इन कंपनियों ने पशुओं में फैलने वाली बीमारी बर्ड फ़्लू के सिलसिले में भी अपनाया था। ठीक इसी तर्ज़ पर स्वाइन फ्लू का हव्वा खड़ा किया गया। इस बीमारी से भयाक्रांत होकर देश की तत्कालीन यूपीए सरकार ने स्वाइन फ़्लू से लड़ने के लिए ने देश के प्रत्येक ज़िले के लिए दस हज़ार ख़ुराक़ टेमीफ्लू नामक दवा ख़रीदी गयी थी। बाद में न तो बीमारी रही और न इन दवाओं कि उपयोगिता। अरबों रूपये की ये दवाएं एक्सपायर होने की वजह से नष्ट करनी पड़ीं। इसी ज़मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कहीं इबोला बीमारी दवा कंपनियों का मार्केटिंग का हथकंडा या षड्यंत्र तो नहीं है!
यह बात बिलकुल आईने कि तरह साफ़ है कि डब्ल्यूएचओ, संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं अमेरिका की जेबी की संस्थाएं हैं। अमेरिका पिछले कई सालों से आर्थिक मंदी की गिरफ़्त में है जिसका असर वहाँ की दवा कंपनियों में भी है। वहाँ की वित्तीय कंपनियों को तो बेलआउट और स्टिमुलस पैकेज तो मिल गए लेकिन दवा कंपनियां लगातार मंदी और व्यापार के संकट से जूझ रही हैं। इस मंडी से निकालने का सबसे सुलभ रास्ता है कि दवाओं और मेडिकल टेक्नोलॉजी की बिक्री विश्व बाज़ार में बढ़े। भारत समेत अन्य विकासशील देश इन कंपनियों का बृहत बाज़ार हैं।

इबोला का हौव्वा खड़ा करके, अमेरिकी मैप बायोफार्मास्युटिकल, कनाडा की टेकमीरा फार्मास्युटिकल्स कार्पोरेशन और डिफाइरस इंक जैसी मल्टीनेशनल कंपनियाँ एक्सपेरिमेंटल ट्रीटमेंट के आवरण में दक्षिण अफ़्रीक़ी देशों के लोगों को अपना तख़्त-ए-मश्क़ तो बना ही रही हैं वहीं दवाओं के कारोबार में लगी बड़ी कम्पनियाँ अपनी  वैक्सीन और ग़ैर ज़रूरी दवाएं बेचने की क़वायद भी कर रही हैं। उनकी नज़र हिन्दुस्तान पर भी है। इसलिए देश के हुक्मरानों को इसके बारे में कोई भी फैसले पर बड़ी तार्किकता के साथ विचार करना होगा। क्यूंकी इस बीमारी से पार पाने के लिए सुव्यवस्थित, मज़बूत और सुसंगत स्वास्थ्य-तंत्र पहली आवश्यकता है फिर उसके बाद कोई अन्य चीज़।
(डीएनए हिन्दी में 3 सितम्बर 2014 को प्रकाशित 'इबोला का गोला और दवाओं का कारोबार')