पिछली
दस जुलाई को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2014-15 का केंद्रीय आम बजट
पेश किया। आम बजट सिर्फ़ देश की आमदनी और ख़र्च का लेखा-जोखा नहीं होता बल्कि यह यह
सरकार की प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं का भी आईना होता है। बतौर वित्त मंत्री यह
उनका और मोदी सरकार का पहला बजट है। सबका साथ सबका विकास के वादे, मोदीनॉमिक्स
की महारत के दावे और गुडगवर्नेंस के दिलासे के सुनहरे सपने दिखा कर लोकसभा चुनाव
में ऐतिहासिक जीत के साथ बनने वाली मज़बूत सरकार के हाथ में केन्द्रीय बजट वह टूल
है जिसके ज़रिये सरकार आम देशवासियों की मूलभूत समस्याएं हल करने की पहल कर सकती
है।
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सब
पहले इस तथ्य से आरास्ता हो लिया जाय कि इस साल भी, तमाम दावों कि
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के कम से कम 2
फ़ीसद पहुंचाया जाएगा के बावजूद मात्र 1.2 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गया है। गोकि, आदर्श स्थिति
तो यह है कि स्वास्थ्य ख़र्च और जीडीपी का अनुपात 6 प्रतिशत हो। स्वास्थ्य पर
सार्वजनिक ख़र्च का देश जीडीपी में हिस्सेदारी इस बात की ओर इशारा करती है कि कोई देश
नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी संवेदनशील है।
ग़ौरतलब
है कि, चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मी किसी भी चिकित्सा तंत्र की रीढ़ होते हैं। देश स्वास्थ्य-कर्मियों
की भरी कमी से जूझ रहा है। वर्ष 2013-14 के आर्थिक
सर्वेक्षण में स्वास्थ्य कर्मियों की कमी दूर करने के लिए उपायों पर अमल करने की
बात कही गई थी। इसी क्रम में, इस साल के बजट में आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र के विदर्भ एवं उत्तर प्रदेश के
पूर्वांचल में एम्स जैसे चार और संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया है।
यद्यपि
इन नए एम्स के लिए 500 करोड़ रुपये की धनराशि अलग से आवंटित करने की बात कही गई है, तथापि उक्त
राशि निश्चित तौर पर ऐसे संस्थान स्थापित करने के लिए बहुत कम है। इसके अतिरिक्त, बजट में 12
नये सरकारी चिकित्सा संस्थानों की स्थापना का भी ज़िक्र है। चिकित्सा शिक्षा, प्रशिक्षण और
शोध पर पिछले बजट में वित्तीय प्रविधान 6,278 करोड़ रूपये जो
इस साल के बजट में घटा कर 5,110 कर दिया गया। ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि जब तमान योजनाएँ
अपर्याप्त वित्तपोषण और धनाभाव के चलते दम तोड़ रही हैं तो इस घटे हुए बजटीय
एलोकेशन से कैसे 12 नए मेडिकल कॉलेज खोले जा सकेंगे।
इस
बजट में नई ड्रग परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना एवं राज्य दवा विनियामक और खाद्य
विनियामक प्रणाली का सुदृढ़ीकरण होगा और 31 मौजूदा प्रयोगशालाओं को भी सुदृढ़ किया
जाएगा। पिछले कई सालों में जिस प्रकार दवाओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हो रही
है, उसको देखते हुए विनियमन प्रणाली का सुदृढीकरण, ज़ाहिर है यह अच्छा क़दम
है। लेकिन निजी निवेश के प्रति अत्यंत आग्राही यह सरकार निजी दवा कंपनियों के
द्वारा औषधियों के मनमाने मूल्य निर्धारण में कैसे लगाम लगाएगी इस बात को लेकर
थोड़ी शंका अवश्य है।
सरकार
ने इस बजट में इस बात का वादा किया है कि वह ग्रामीणों की देखभाल के लिए स्थानीय
स्वास्थ्य मामलों पर शोध व अनुसंधान के लिए 15 ग्रामीण स्वास्थय अनुसंधान
केन्द्रों की स्थापना करेगी। प्रस्तावित योजना निःसन्देह बहुत ही अच्छी योजना है
क्योंकि देश भले ही एपिडमेओलॉजिकल
ट्रांज़ीशन की प्रक्रिया से गुज़र रहा हो लेकिन कई ग्रामीण क्षेत्रों में
संक्रामक बीमारियां का फैलाव अभी भी चुनौती बनी हुई हैं। टीबी, डाईरिया और
मलेरिया जैसी बीमारियों से अभी भी बड़े पैमाने पर लोगों की जान चली जाती है। डब्ल्यूएचओ
की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में टीबी के रोग से 13 लाख लोग असमय काल के गर्त
में समा गए। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैलने वाली जैपनीज़ इन्सेफ़लाइटिस
जैसी बीमारियां अभी भी काफी तादाद में लोगों को अपने ख़ूनी पंजे के गिरफ़्त में ले
लेती हैं। इन बीमारियों पर अनुसंधान के ज़रिये काबू पाया जा सकता है।
भाजपा
ने चुनाव के दौरान किए गए ‘सबके लिए स्वास्थ्य’ के अपने वादे को पूरा
करते हुए इस बजट में सबके लिए स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की घोषणा की है, जिसके तहत मरीजों को
प्राथमिकता के आधार पर नि:शुल्क दवाएं देने और नि:शुल्क जांच की बात कही गई है। सितमज़रीफ़ी
यह है कि इस योजना के लिए अलग से कोई राशि आवंटित नहीं की गई है। ऐसे में इस
महत्वाकांक्षी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए फंड कहाँ से आएगा यह एक बड़ा प्रश्न
है। दूसरे, इस नि:शुल्क दवा की योजना में यह बात भी स्पष्ट नहीं है कि महंगी लाइफ सेविंग
ड्रग्स मुफ़्त बांटी जाने वाली दवाओं की फ़ेहरिस्त में है या नहीं।
इस
साल का कुल स्वास्थ्य बजट 35,163 करोड़ रुपए प्रस्तावित है जो पिछली वर्ष से मात्र 5
फ़ीसदी ज़्यादा है। पिछले वर्ष यह स्वास्थ्य बजट 32,278 था। कबीले ग़ौर बात
यह है कि अगर मुद्रास्फीति की दर जो तकरीबन 8.9 प्रतिशत है को भी ध्यान मे रखे तो
इस साल बजट बढ्ने के बजाए 3.9 प्रतिशत घाट गया है। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत्रक
अन्तर्गत आने वाली योजनाओं का भी है—पिछले साल एनआरएचएम के लिए 21,103 करोड़ रुपए
एलोकेट किए गए थे जो इस साल 21,912 करोड़ रूपये ही है।
वाज़ेह
हो कि स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ़ डॉक्टर, दवा और अस्पताल नहीं हैं बल्कि वे सारे
कारक जो एक इंसान के स्वास्थ्य को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित हैं।
मसलन, शिक्षा, रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा आदि जैसी तमाम योजनाएँ भी स्वास्थ्य के
बृहत्तर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस स्सल के बजट में यदि हम
सामाजिक क्षेत्रक के बजट पर नज़र डालें तो यह वर्ष 2013-14 में जीडीपी के अनुपात
में 15.7 प्रतिशत था जो इस साल के बजट 2014-15 में घाट कर 13.9 प्रतिशत पर
पहुँच गया है। यह अजीब विरोधभास है कि एक ओर “सबके लिए स्वास्थ्य” का दवा किया जा रहा ही और दूसरी ओर इस
उद्देश्य की पूर्ति में सहायक योजनाओं के पर कतरे जा रहे हैं। इस बजट में
स्वास्थ्य पर सिर्फ़ 1.2 फ़ीसदी, शिक्षा पर 3.5 और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए मात्र
0.15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी। सामाजिक क्षेत्र में इतनी मामूली बढ़ोत्तरी मात्र
ज़बानी जमा ख़र्च दिखाता है नाकि अपने वचनों के प्रति प्रतिबद्धता।
जनता
को सुनहरे ख़्वाब दिखाने में माहिर प्रधानमंत्री मोदी, वित्तमंत्री जेटली व
उनकी सरकार ने इस बजट में तमाम वादों के बावजूद इस बात का कोई ख़ाका न पेश कर पाये
जो यह बताए कि स्वास्थ्य सेवाओं को कैसे सर्वसुलभ बनाया जाएगा। देखना अब यह है कि मोदी
सरकार ने देश की जनता से जो वादा किया है, क्या वाक़ई उसे वह निभाएगी या हमेशा की तरह
ये सारे वादे महज़ खोखले ही साबित होंगे।
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