यह
भारत के आम मुसलमानों की सबसे बड़ी बदक़िस्मती है कि उनका नेतृत्व हमेशा या तो कठमुल्ला
उलेमाओं के हाथ में रहा है या राजनीतिक-वैचारिक दिवालियेपन का शिकार पतित राजनीतिक
नेताओं के हाथ में। वे कठमुल्लाओं, जिनका सारा चिंतन चौदह सौ साल पुरानी उन अंधेरी गुफ़ाओं में
मह्व-ए-ख़्वाब है, जिन्हें न ही समाज और राजनीति में आ रहे परिवर्तनों की कोई
आहट उन्हे इस चिरकालीन निंद्रा से उठा सकती है और न ही वे निकलना चाहते हैं। उन्हें
न आम मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा के बारे में चिंता है और, न ही उनके पास
दरपेश चुनौतियों को समझने का कोई कारगर टूल है। उनके पास वही सदियों पुराना एक चश्मा
है। वह सब चीज़ उसी से देखते हैं। वह मुसलमानों को कभी धार्मिक कूप-मंडूपता के पिंजड़े
के बाहर नहीं निकालना चाहते।
दूसरी
तरफ़, मुसलमानों नेतृत्व या तो उन विशुद्ध राजनैतिक नेताओं के हाथ में है जिनका सारा
ध्यान इस पर केन्द्रित रहता है कि किस प्रकार ऐसा माहौल तैयार किया जाये कि स्वयं का
महत्व और स्वयं की रक्षा के बंदोबस्त का जुगाड़ हो। राष्ट्र की मुख्य धारा में मुसलमानों
को कैसे और किस प्रकार से भागेदारी हो, उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति कैसे हो, इन सबकी तनिक
भी चिंता न मुस्लिम राजनीतिक नुमाइंदों को और न ही कठमुल्ला उलेमाओं को।
ईद
से तीन दिन पहले, अलविदा जुमा की नमाज़ के बाद लखनऊ में शिया धर्म गुरु और
इमाम-ए-जुमा मौलाना कल्बे जव्वाद ने सैकड़ों नमाज़ियों और रोज़ेदारों का हुजूम लेकर
उत्तर प्रदेश सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री का घेराव करने जा रहे थे। शहीद स्मारक
पहुचते ही पुलिस ने प्रदर्शनकारियोंको रोक लिया। जिसपर कुछ शरारती तत्वों ने पुलिस
पर पथराव किया इसके जवाब में पुलिस ने पदर्शन में जा रहे लोगों पर बेतहाशा लाठियां
भांजनी शुरू कर दी। जिसमे एक बुज़ुर्ग की जान गयी और सैकड़ों घायल हो गए।
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देश
के मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक हालात ख़ास करके शिक्षा जो मानव विकास का अहम पहलू
है पर अगर नज़र डालें तो बहुत ही निराशाजनक तस्वीर उभरती है। देश की मुस्लिम आबादी में
साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से तो काफी कम है ही। वहीं उच्च शिक्षा में इस वर्ग के बच्चों
की सकल नामांकन दर गैर मुस्लिम बच्चों की तुलना में करीब आधी है। मानव संसाधन विकास
मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार,
बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में
मुस्लिम साक्षरता दर इन राज्यों की औसत साक्षरता से काफी कम हैं। बिहार की साक्षरता
दर 61.80 प्रतिशत की तुलना में वहां मुस्लिम साक्षरता दर 36 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की साक्षरता
दर 67 प्रतिशत की तुलना में मुस्लिम साक्षरता दर 37.28 प्रतिशत है। वहीं, मुस्लिम
समुदाय के बच्चों की सकल नामांकन दर 8.7 प्रतिशत थी जबकि गैर मुस्लिम छात्रों की सकल
नामांकन दर 16.8 प्रतिशत थी।
शिक्षा
का स्तर किसी समाज को अच्छे रोज़गार के मौक़े फ़राहम करता है और इनके लिए सक्षम बनाता
है। उल्लेखनीय है कि, मुस्लिम समुदाय के धार्मिक और स्वनिर्मित संगठन, कठमुल्ला
उलेमा और नेता जो पिछले सात दहाईयों से मुसलमानों की नुमांइदगी का दावा तो करते रहे
हैं लेकिन ये संगठन और लीडरशिप भारत के मुसलमानों की कितनी हमदर्द हैं, इसका अंदाजा सिर्फ इस हकीकत
से लगाया जा सकता है कि आधुनिक शिक्षा के केन्द्रों—कॉलेज और विश्वविद्यालयों—तो
खोलना दूर रहा वे मुसलमानों के आधुनिक-वैज्ञानिक शिक्षा ग्रहण करने का ये कह कर विरोध
करते रहे हैं कि ये ग़ैर इस्लामी शिक्षा है।
कठमुल्लों
की ये जमात मस्जिद और मजलिस के मिम्बर पर से मुसलमानों के भीतर की सामाजिक
बुराइयों को दूर करने की तक़रीर-ओ-तरगीब भले ही न देती हो अलबत्ता वो हर राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी राय से जरूर नवाज़ती है। कुछ दिन पहले मशहूर सुन्नी
मौलाना सलमान नदवी ने बग़दादी को ख़त लिख कर बक़ायदा ‘ख़लीफ़ा’ मान लिया जबकि दुनिया भर
के प्रगतिशील उलेमाओं ने बग़दादी की ‘इस्लामी ख़िलाफ़त’ की स्थापना को ग़ैर-इस्लामी कह कर ख़ारिज कर
दिया है। वहीं दूसरी तरफ़ प्रमुख शिया मौलाना आग़ा रूही बड़े गर्व से एक न्यूज़ चैनल
पर बता रहे थे कि उनका बेटा इराक़ में आइएसआइएस के विरुद्ध जिहाद कर रहा है। जंग इराक़
में हो रही है और उलेमा शिया-सुन्नियों को वरग़लाने में जुटे हुए हैं। शिया मौलाना
अपने बेटे की शौर्यगाथा सुना सुना कर लोगों को ‘क़ुरबानी’ देने के लिए उकसा रहे हैं
तो उधर सुन्नी मौलाना को यह ज़र्रा बराबर एहसास नहीं कि उनका यह बग़दादी के शान में
क़सीदे पढ़ना तालिबानीकरण के रास्ते को ही हमवार करेगा।
एनएसएसओ
के आंकड़ों के अनुसार अधिकांश मुसलमान छोटे-मोटे कारोबार या लघुस्तरीय हथकरघा जैसे असंगठित
क्षेत्रों से जुड़े हैं। निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के रोज़गारों में मुसलमान समुदाय
की भागीदारी आबादी में उनके अनुपात से कहीं कम है। स्वरोज़गार में बढ़ता हुआ इनका हिस्सा
वास्तव में असंगठित क्षेत्र में बढ़ रहा है। कहना न होगा कि असंगठित सेक्टर तमाम तरह
की सामाजिक सुरक्षाओं से महरूम है। इसके पास बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्थाब, रोग, बेरोजगार आदि के कारण उत्पन्न जोखिमों का सामना
करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इन
मुल्लाओं और अपना हित साधने वाले नेताओं ने अशिक्षा और बेरोज़गारी के खिलाफ़ कभी कोई
बड़ा धरना या प्रदर्शन नहीं किया। ऐसी शायद ही कोई मिसाल हो जब इन कठमुल्लों ने कभी
मज़दूरों के हक़-हुक़ूक़ को लोगों को लामबंद कर के सड़कों पर उतारा हो। मगर हाँ इतना तो
ज़रूर है कि वक़्फ़ सम्पत्तियों के माल को गपकने के ख़ातिर अक्सर ये सड़कों पर उतर आते
हैं।
इन
कठमुल्लाओं के लिए किसी दूर-दराज़ मुल्क में मुसलमानों के साथ हो रही ज़्यादती तो ज़रूर
एक मसला है और उस पर अक्सर-ओ-बेशतर लफ़्फ़ाज़ियाँ भी करते रहते हैं लेकिन ये अपने ही
मुल्क के मसायल पर चुप्पी का मोटा लबादा ओढ़ लेते हैं। अभी दो-तीन दिन पहले दिल्ली की
जामा मस्जिद के ‘शाही इमाम’ अहमद बुख़ारी जामा मस्जिद
के इलाक़े की तहज़ीब को बचाने का बीड़ा उठाया है और उनका निशाना बने हैं वे ग़रीब, बेसहारा, मज़लूम और बेघर लोग, जिन्होंने कई रैन-बसेरो
में पनाह ले रखी है। ज़ाहिर है,
इनमें
से अधिकांश पसमांदा मुसलमान और दलित हैं। तहज़ीब, मज़हब, शरीयत और तरीक़त की बलिवेदिका पर इन्हीं ग़रीब
और पसमांदा लोगों की ही बलि चढ़ाई जाती है।
साल
दर साल हाशिए पर पहुँचते मुस्लिम समुदाय को अपने समाज के भीतर की आवाज़ों को सुनना
पड़ेगा और लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया को बढ़ाना होगा। साथ ही, अपना नेतृत्व
उन सक्षम हाथों में सौंपना पड़ेगा जो बहुत तेज़ी से बदलते हुए राष्ट्रीय और
अंतर्राष्ट्रीय प्रदृश्य में सही निर्णय ले सकें और समुदाय को राहे रास्त पर ले जा
सकें। जिसके लिए पहली शर्त है कि मज़ार-मस्जिद-मजलिस-मिंबर-मुल्ला-मुजाविर को
धर्मस्थल तक महदूद कर दिया जाय। धर्म को राजनीति से घाल-मेल करने के प्रयास को
रोका जाय क्यूंकी धर्म और राजनीति का घालमेल ने दुनिया को हमेशा तबाही की गहरी
खाईं में ढकेलता है।
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