विश्व
स्वास्थ्य संगठन यानी डब्लूएचओ ने आगामी 24 मार्च को विश्व क्षय रोग दिवस घोषित
किया है। इस दिवस का ध्येय है लोगों को इस बीमारी के विषय में जागरूक करना और इस
बीमारी की रोकथाम के लिए क़दम उठाना है। दुनिया में नौ करोड़ लोग इस बीमारी से
ग्रस्त हैं और प्रत्येक वर्ष दस लाख तीस हज़ार लोगों की इससे मौत हो जाती है। हर
साल तीस लाख लोगों को यह रोग अपने शिकंजे में लेता है। इस साल की थीम ‘रीच द 3 मिलियन’ है। मतलब यह
कि कैसे इन तीस लाख लोगों को असमय काल का ग्रास बनने से रोका जाये।
विकसित देशों से ये रोग लगभग ख़त्म हो चुका है लेकिन भारत
जैसे विकासशील देश इस रोग के ख़ूनी पंजों से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए हैं। देश में
इस रोग की व्यापकता इतनी भयंकर है कि इस मर्ज़ से जूझ रहे लोगों की फ़ेहरिस्त में हर
साल लगभग दो लाख लोगों का
इज़ाफ़ा होता रहता है और हर साल लगभग तीन लाख तीस हज़ार लोग इस बीमारी की वजह से मौत का निवाला बन
जाते हैं। हर दिन लगभग 750 लोग टीबी का
शिकार बनते हैं और हर दो मिनट पर एक व्यक्ति मौत की गिरफ़्त में होता है।
डब्ल्यूएचओ का कहना है कि टीबी के रोकथाम और उपचार में भारत का विकासशील देशों के
बीच सबसे ख़राब प्रदर्शन है।
स्वास्थ्य और प्रगति का आपस में बाहमी (दो तरफ़ा) रिश्ता है।
दोनों एक दूसरे का कारण और परिणाम हैं। स्वस्थ्य कार्यशील मानव पूँजी किसी भी देश
की आर्थिक संवृद्धि की ज़मानत होती है। स्वास्थ्य आर्थिक पहलुओं के दोनों—व्यष्टि
और समष्टि स्तरों पर क्रियाशील होता है। अमर्त्य सेन के शब्दों में अच्छा
स्वास्थ्य व्यक्तिगत स्तर पर बेसिक कैपेबिलिटी या मौलिक योग्यताओं के घटक के रूप
आर्थिक सफलताओं के सृजन में सहायक होती हैं। स्वास्थ्य हमें और उत्पादक और अधिक
उत्पादन एवं आय का सृजन करने में सहायक होता है। वहीं कोलम्बिया विश्वविद्यालय के
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जैफ़री सैश अपनी पुस्तक ‘द एंड ऑफ
पॉवर्टी’ में कहते हैं कि किसी देश के स्वस्थ नागरिक उस देश को
प्रगति के रास्तों पर ले जाते हैं। इस पुस्तक में "क्लीनिकल इक्नोमिक्स" की शब्दावली का
प्रयोग करते हुए इस बात को बड़ी तार्किकता से कहा गया है कि कोई भी देश टीबी, एड्स और
मलेरिया जैसी बीमारियों से छुटकारा पाये बग़ैर विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में
स्थान नहीं बना सकता।
विश्व बैंक के एक अनुमान के मुताबिक़ टीबी के कारण उत्पादकता
में भी काफ़ी हानि होती है जो सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का 4 से 7 प्रतिशत है। टीबी का
मर्ज़ ग़रीबी—बीमारी के दुष्चक्र को और मज़बूत करता है। एक अध्ययन के अनुसार इसके
इलाज में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लगभग 29,126 रूपए ख़र्च करने
पड़ते हैं। इतना ही नहीं, एक मजदूर को, लगभग 83 दिन मज़दूरी भी छोड़नी पड़ती है और
साथ ही लगभग 14686 रुपए के ऋण का अतिरिक्त भार भी पड़ता है। भारत जैसा देश जहां 93
प्रतिशत कामगार तब्क़ा इन्फ़ारमल सैक्टर में है और जिसे कोई वित्तीय सुरक्षा प्राप्त
नहीं है को इस दुष्चक्र में फँसने के बहुत ही ज़्यादा संभाव्यता रहती है।
अस्पतालीकृत बीमारियों की वजह से ग़रीब परिवारों को वित्तीय
संकट में फंसने की बहुत ही ज़्यादा संभाव्यता रहती है। देश में, स्वास्थ के लिए जेबी ख़र्च या आउट-ऑफ़-पॉकेट एक्सपेंडीचर यानी निजी ख़र्च न
सिर्फ ज़्यादा हैं बल्कि हाल के दिनों में तेजी से बढ़ा भी हैं। एन॰एस॰एस॰ओ॰ के
सर्वेक्षण के अनुसार, 1995-96 और 2003-04 के बीच ग्रामीण
क्षेत्रों में अस्पताल में भर्ती लागत में 78 प्रतिशत की वृद्धि हुई
जबकि शहरी क्षत्रों यह बढ़ोत्तरी 126 प्रतिशत तक हुई। ध्यान
देने योग्य बात यह है कि स्वास्थ्य पर निजी ख़र्च अक्सर उन परिवारों को वहन करना
होता है जो ये ख़र्च बर्दाश्त न कर पाने की स्थिति में होते हैं। अतः जनसँख्या का
वह पांचवा हिस्सा जो ग़रीबी रेखा के ठीक ऊपर है, को अगर कभी
किसी गंभीर स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़ता है तो वह स्वतः ग़रीबी रेखा के नीचे
चला जाता है।
ग़ौरतलब है कि टीबी से ग्रसित व्यक्ति को आर्थिक ही नहीं
सामाजिक क़ीमत भी चुकानी पड़ती है। डबल्यूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि टीबी 15 से 44
आयु वर्ग के महिलाओं की मृत्यु के शीर्ष तीन कारणों में से एक है। चेन्नई स्थित
राष्ट्रीय टीबी अनुसंधान संस्थान के ताज़ा अध्ययन के अनुसार टीबी होने मात्र से ही
अनेक महिलाओं को घर से बेघर कर दिया जाता है। लगभग सौ महिलाओं में से एक महिला को इस बीमारी की बजह से बाहर निकाल
दिया जाता है। गोकि यह बीमारी अब उतनी ख़तरनाक नहीं रही है लेकिन उसके उपचार को
पूरा न करना और सामाजिक स्तर पर हेय दृष्टि से देखे जाने के डर से अभी भी यह रोग
एक ख़ामोश क़ातिल (साइलेंट किलर) की तरह अपनी पैठ बनाए हुए है।
ग़रीबी और बीमारी, मुख्यतः टीबी के रोग, का चोली दामन
का साथ है। भारतीय साहित्य में भी निर्धनता और व्याधि के अंतर्संबंध का भरपूर
वर्णन मिलता है। उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार नय्यर मसूद के बहुप्रसिद्ध अफ़साना ‘गंजीफ़ा’ में ग़रीबी
बीमारी पर और बीमारी ग़रीबी पर हावी है। वहीं, अब्दुल बिस्मिल्लाह का
प्रसिद्ध हिन्दी उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’, जो बनारस के
बुनकरों के शोषण और बेचारगी का विस्तृत आख्यान है, में उसके मुख्य पात्र
मतीन की असहायता यूं बयान करता है कि—“अलीमुन को टी.बी. हो गयी है। मतीन को मालूम है। लेकिन वह कुछ नहीं कर सकता।” असाहयता और बेचारगी की यह दास्तान सिर्फ़
मतीन की ही नहीं बल्कि देश के उन तेरह लाख ग़रीब लोगों की है जो इस बीमारी से
लगातार जूझ रहे हैं।
नव्वे के दशक में देश के तत्कालीन वित्त मंत्री और मौजूदा
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के नेतृत्व में शुरू की गयी उदारीकरण नीतियों के
अनुसार न सिर्फ़ स्वास्थ्य बल्कि सभी सामाजिक सेवाओं के वित्तपोषण में लगातार कटौती
जारी है। आईएमएफ़ और विश्व बैंक के सामने घुटनाटेकू नीतियों नें आर्थिक विषमता की
खाई को और गहरा किया है। चिकित्सतामक सेवाएँ आम नागरिकों की पहुँच से परे होते जा
रही हैं। आगामी दो महीनों में विश्व के सबसे बड़े लोकतन्त्र में चुनाव होने जा रहा
है। तमाम पार्टियों के बीच अनेक मुद्दों पर तो बहसें जारी हैं परन्तु आर्थिक
नीतियाँ जो एक व्यक्ति के साथ साथ पूरे राष्ट्र को प्रभावित करती है, मुख्य मुद्दा
नहीं बन पाया है। अब आने वाला समय ही बताएगा कि राजनीतिक पार्टियां और देश के
योजनाकारों को करोड़ों “मतीनों” की चिंता है या नहीं।
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