Saturday, August 30, 2014

सैनिटेशन की समस्या से जूझता भारत

खुले में शौच के मामले में अव्वल
गतवर्ष यूपीए सरकार के ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हम खुले में शौच के मामलों में विश्व में अग्रगणीय हैं; विश्व में खुले में शौच करने वाली आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा भारत में रहता है जो हमारे लिए शर्म की बात है। वहीं मौजूदा प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतन्त्रता दिवस के मौक़े पर लाल क़िले की प्राचीर से अपने भाषण में शौचालय की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। इससे पहले भी  उन्होने अपने चुनाव अभियान के दौरान कहा था देश को देवालय की नहीं शौचालय की ज़रूरत है। इन्हीं बातों की पुष्टि विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनीसेफ की संयुक्त रिपोर्ट प्रोग्रैस ऑन ड्रिकिंग वाटर एंड सैनीटेशन-2014 अपडेट कर रही है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि विश्व भर में खुले में शौच करने वाले एक अरब लोगों में से 82 प्रतिशत लोग केवल 10 देशों में हैं। वैश्विक स्तर पर भारत ऐसा देश बना हुआ है जहां सबसे अधिक यानी तक़रीबन साठ करोड़ लोग खुले में शौच करने वाले लोग रहते हैं। देश के लगभग 130 मिलियन घरों में शौचालय की सुविधा नहीं है। ग्रामीण इलाक़ों के लगभाग 72 प्रतिशत लोग अभी भी खुले में शौच करते हैं। अलबत्ता, इसी बीच अच्छी बात यह हुई है कि पिछली 10 जुलाई को वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा कि 2019 तक इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का लक्ष्य है।
पब्लिक हेल्थ प्रॉब्लम
खुले में शौच करना शर्म की बात हो या न हो लेकिन इतना ज़रूर है कि इससे स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। इसका डायरिया और अन्य मल-जनित जैसे रोगों से सीधा संबंध है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार खुले में शौच, असुरक्षित पानी, साफ़ सफ़ाई की कमी से होने वाली डायरिया जैसी बीमारियां दुनिया में हर रोज़ पांच वर्ष से कम उम्र के करीब दो हज़ार बच्चों की जान ले लेती हैं। इनमें से एक चौथाई मौतें अकेले भारत में होती हैं। अन्य अनुमानों के मुताबिक इससे मृत्यु के आंकड़े काफी ज्यादा हैं। वहीं विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया कि अपर्याप्त साफ़-सफ़ाई के कारण भारत को हर साल 5,400 करोड़ डॉलर मतलब तक़रीबन 3.2 लाख करोड़ रुपये का नुकसान होता है। यह रकम भारत के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की क़रीब 6 फ़ीसदी है।
भारत में कुपोषण के लिए साफ़ सफ़ाई या सैनिटेशन की ख़राब हालत भी ज़िम्मेदार है। देश में पांच साल से कम उम्र के 6.2 करोड़ बच्चों के उचित शारीरिक और मानसिक विकास के साफ़ सफ़ाई वाला वातावरण नहीं मिल पाता। वर्ष 2012 में 'सेव द चिल्ड्रन' के एक अनुमान के अनुसार देश में 43 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के और 'कुपोषित' थे।
बच्चों के जन्म के दो वर्ष का समय उनके शारीरिक विकास के लिए महत्वपूर्ण होता है। इस अवधि में खुले में शौच के कारण विभिन्न बीमारियों के कीटाणु बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। बच्चों के सामान्य कद में आ रही कमी जिसे जनस्वास्थ्य की शब्दावली में स्टंटिंग कहते हैं का सीधा नाता खुले में शौच से है। अमरीका स्थित प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के हेल्थ-एकॉनमिस्ट डीन स्पेयर्स ने अपने अध्ययन में इस बात का खुलासा किया कि खुले में शौच की बुराई के कारण भारतीय बच्चों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है—वे स्टंटिंग से ग्रसित हैं।
लैंगिक हिंसा की राह हमवार करता है
शौचालयों की अनुपलब्धता न सिर्फ़ एक जनस्वास्थ्य समस्या है बल्कि इसका नाता लैंगिक हिंसा और यौन हिंसा से भी है। गत मई महीने में उत्तर प्रदेश के बदायूं ज़िले में दो युवतियों का पहले सामूहिक बलात्कार हुआ और उसके बाद उनकी हत्या कर दी गई। ख़बरों में बताया गया है कि दोनों नाबालिग़ लड़कियां अपने घर से शौच के लिए निकलीं थीं और उसके बाद लापता हुईं। यह वाक़्या बताता है कि भारत में शौचालय की कमी की सबसे बड़ी शिकार महिलाएं किस तरह होती हैं। गोकि महिलाओं पर हो रही लैंगिक हिस्सा का एक मात्र कारण खुले में शौच करना नहीं है बल्कि इसकी वजहें पृतिसत्तात्मक सोच की जड़ों में पिन्हा हैं मगर फिरभी खुले में शौच बलात्कारी दरिंदों को कन्डूसिव अवसर उपलब्ध कराता है। भारत ही नहीं केन्या और युगांडा जैसे अन्य देशों में खुले में शौच के लिए जाने वाली महिलाओं के साथ यौन हिंसा की अक्सर वारदातें होती हैं।
समस्या के सांस्कृतिक कारण
इस समस्या के सांस्कृतिक कारण भी हैं। हमारे देश में घर के अंदर ही शौचालय बनाने की परंपरा नहीं रही है। दो हज़ार साल पुराने ग्रंथ मनु-स्मृति में, अनुष्ठान अशुद्धि से बचने हेतु, घर से दूर खुले में शौच क्रिया को प्रोत्साहित किया गया है। आज भी गवों रहने वाले बहुतेरे लोग, घरों में शौचालय की सुविधा होने के बावजूद खुले में जाते हैं।
निश्चित ही यह गंभीर समस्या है और इससे छुटकारा हासिल करने के लिए इसके सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर भी विचार करना होगा। सांस्थानिक प्रयास के साथ साथ वैयक्तिक स्तर पर भी प्रयास ज़रूरी है; तभी तो गांधी जी ने भी कहा था कि स्वच्छता स्वतंत्रता से भी अधिक महत्वपूर्ण है अत: हमें खुले में थूकने व शंका निवारण आदि से संकोच करना चाहिए। दूसरी ओर संस्थागत प्रयास भी बहुत ही अच्छे नतीजे देते हैं। डबल्यूएचओ के एक अध्ययन के अनुसार साफ़-सफ़ाई में ख़र्च किया गया एक रुपया सामाजिक-आर्थिक फ़ायदे के लिहाज से नौ गुना प्रतिफल देता है। संक्रमण और बीमारी का स्तर घटता है जिससे स्वास्थ्य सेवाओं पर कम ख़र्च तो होता है; एक स्वस्थ्य व्यक्ति की उत्पादकता निश्चित रूप से अधिक होती है।
कैसे मिले निजात?
गत दशकों में हमने शौचालय का दायरा 27.5 करोड़ लोगों तक बढ़ाया लेकिन यह नाकाफी है। एसोसिएटेड प्रेस के एक आकलन के अनुसार लगभग 64 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं, जिससे रोजाना 72,000 टन मल का ढेर लगता है। इससे 10 ऐफिल टावर बनाए जा सकते हैं, राष्ट्रीय शर्म का यह एक ऐसा संग्रहालय, जो सभ्य समाज के हमारे दावे को तार-तार कर रहा है।
निर्मल भारत अभियान के तहत 2022 इस समस्या से मुकम्मल निजात हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन इस की प्राप्ति अभी तक दूर की कौड़ी बनी हुई है। तिस पर तुर्रा यह कि, 2014 के बजट में वित्तमंत्री ने प्रत्येक घर को 2019 तक स्वच्छता सुविधा उपलब्ध कराने के लिए "स्वच्छ भारत अभियान" चलाने की घोषणा कर दी। देखना अब यह है कि सरकार कितनी प्रतिबद्धता से इस राष्ट्रीय शर्म को दूर करती है।
(नवभारत टाइम्स में 29 अगस्त 2014 को प्रकाशित 'डिवेलपमेंट के अजेंडे का हिस्सा बने सैनिटेशन' का ग़ैर- संपादित आलेख)

Wednesday, August 6, 2014

कैसा है स्वास्थ्य बजट का स्वास्थ्य

पिछली दस जुलाई को वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वर्ष 2014-15 का केंद्रीय आम बजट पेश किया। आम बजट सिर्फ़ देश की आमदनी और ख़र्च का लेखा-जोखा नहीं होता बल्कि यह यह सरकार की प्राथमिकताओं और प्रतिबद्धताओं का भी आईना होता है। बतौर वित्त मंत्री यह उनका और मोदी सरकार का पहला बजट है। सबका साथ सबका विकास के वादे, मोदीनॉमिक्स की महारत के दावे और गुडगवर्नेंस के दिलासे के सुनहरे सपने दिखा कर लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक जीत के साथ बनने वाली मज़बूत सरकार के हाथ में केन्द्रीय बजट वह टूल है जिसके ज़रिये सरकार आम देशवासियों की मूलभूत समस्याएं हल करने की पहल कर सकती है।
बीजेपी और मोदी ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में आम लोगों तक अच्छी गुणवत्ता वाली एवं सस्ती स्वास्थ्य सेवाएं को उपलब्ध कराने का वादा किया गया था। अब सवाल यह उठता है कि अरुण जेटली ने अपने बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए जो घोषणाएं की हैं, क्या वे लोगों की आकांक्षाएँ और ज़रूरतें पूरी करने के लिए पर्याप्त हैं?
सब पहले इस तथ्य से आरास्ता हो लिया जाय कि इस साल भी, तमाम दावों कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में सार्वजनिक ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के कम से कम 2 फ़ीसद पहुंचाया जाएगा के बावजूद मात्र 1.2 प्रतिशत पर ही सिमट कर रह गया है। गोकि, आदर्श स्थिति तो यह है कि स्वास्थ्य ख़र्च और जीडीपी का अनुपात 6 प्रतिशत हो। स्वास्थ्य पर सार्वजनिक ख़र्च का देश जीडीपी में हिस्सेदारी इस बात की ओर इशारा करती है कि कोई देश नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति कितनी संवेदनशील है।
ग़ौरतलब है कि, चिकित्सा और स्वास्थ्यकर्मी किसी भी चिकित्सा तंत्र की रीढ़ होते हैं। देश स्वास्थ्य-कर्मियों की भरी कमी से जूझ रहा है। वर्ष 2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण में स्वास्थ्य कर्मियों की कमी दूर करने के लिए उपायों पर अमल करने की बात कही गई थी। इसी क्रम में, इस साल के बजट में आंध्र प्रदेश, पश्‍चिम बंगाल, महाराष्ट्र के विदर्भ एवं उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में एम्स जैसे चार और संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव रखा गया है।
यद्यपि इन नए एम्स के लिए 500 करोड़ रुपये की धनराशि अलग से आवंटित करने की बात कही गई है, तथापि उक्त राशि निश्चित तौर पर ऐसे संस्थान स्थापित करने के लिए बहुत कम है। इसके अतिरिक्त, बजट में 12 नये सरकारी चिकित्सा संस्थानों की स्थापना का भी ज़िक्र है। चिकित्सा शिक्षा, प्रशिक्षण और शोध पर पिछले बजट में वित्तीय प्रविधान 6,278 करोड़ रूपये जो इस साल के बजट में घटा कर 5,110 कर दिया गया। ऐसे में यह सवाल जायज़ है कि जब तमान योजनाएँ अपर्याप्त वित्तपोषण और धनाभाव के चलते दम तोड़ रही हैं तो इस घटे हुए बजटीय एलोकेशन से कैसे 12 नए मेडिकल कॉलेज खोले जा सकेंगे।
इस बजट में नई ड्रग परीक्षण प्रयोगशालाओं की स्थापना एवं राज्य दवा विनियामक और खाद्य विनियामक प्रणाली का सुदृढ़ीकरण होगा और 31 मौजूदा प्रयोगशालाओं को भी सुदृढ़ किया जाएगा। पिछले कई सालों में जिस प्रकार दवाओं की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, उसको देखते हुए विनियमन प्रणाली का सुदृढीकरण, ज़ाहिर है यह अच्छा क़दम है। लेकिन निजी निवेश के प्रति अत्यंत आग्राही यह सरकार निजी दवा कंपनियों के द्वारा औषधियों के मनमाने मूल्य निर्धारण में कैसे लगाम लगाएगी इस बात को लेकर थोड़ी शंका अवश्य है।
सरकार ने इस बजट में इस बात का वादा किया है कि वह ग्रामीणों की देखभाल के लिए स्थानीय स्वास्थ्य मामलों पर शोध व अनुसंधान के लिए 15 ग्रामीण स्वास्थय अनुसंधान केन्द्रों की स्थापना करेगी। प्रस्तावित योजना निःसन्देह बहुत ही अच्छी योजना है क्योंकि देश भले ही एपिडमेओलॉजिकल ट्रांज़ीशन की प्रक्रिया से गुज़र रहा हो लेकिन कई ग्रामीण क्षेत्रों में संक्रामक बीमारियां का फैलाव अभी भी चुनौती बनी हुई हैं। टीबी, डाईरिया और मलेरिया जैसी बीमारियों से अभी भी बड़े पैमाने पर लोगों की जान चली जाती है। डब्ल्यूएचओ की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में टीबी के रोग से 13 लाख लोग असमय काल के गर्त में समा गए। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैलने वाली जैपनीज़ इन्सेफ़लाइटिस जैसी बीमारियां अभी भी काफी तादाद में लोगों को अपने ख़ूनी पंजे के गिरफ़्त में ले लेती हैं। इन बीमारियों पर अनुसंधान के ज़रिये काबू पाया जा सकता है।
भाजपा ने चुनाव के दौरान किए गए सबके लिए स्वास्थ्य के अपने वादे को पूरा करते हुए इस बजट में सबके लिए स्वास्थ्य अभियान की शुरुआत की घोषणा की है, जिसके तहत मरीजों को प्राथमिकता के आधार पर नि:शुल्क दवाएं देने और नि:शुल्क जांच की बात कही गई है। सितमज़रीफ़ी यह है कि इस योजना के लिए अलग से कोई राशि आवंटित नहीं की गई है। ऐसे में इस महत्वाकांक्षी योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए फंड कहाँ से आएगा यह एक बड़ा प्रश्न है। दूसरे, इस नि:शुल्क दवा की योजना में यह बात भी स्पष्ट नहीं है कि महंगी लाइफ सेविंग ड्रग्स मुफ़्त बांटी जाने वाली दवाओं की फ़ेहरिस्त में है या नहीं।
इस साल का कुल स्वास्थ्य बजट 35,163 करोड़ रुपए प्रस्तावित है जो पिछली वर्ष से मात्र 5 फ़ीसदी ज़्यादा है। पिछले वर्ष यह स्वास्थ्य बजट 32,278 था। कबीले ग़ौर बात यह है कि अगर मुद्रास्फीति की दर जो तकरीबन 8.9 प्रतिशत है को भी ध्यान मे रखे तो इस साल बजट बढ्ने के बजाए 3.9 प्रतिशत घाट गया है। यही हाल स्वास्थ्य क्षेत्रक अन्तर्गत आने वाली योजनाओं का भी है—पिछले साल एनआरएचएम के लिए 21,103 करोड़ रुपए एलोकेट किए गए थे जो इस साल 21,912 करोड़ रूपये ही है।
वाज़ेह हो कि स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ़ डॉक्टर, दवा और अस्पताल नहीं हैं बल्कि वे सारे कारक जो एक इंसान के स्वास्थ्य को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित हैं। मसलन, शिक्षा, रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा आदि जैसी तमाम योजनाएँ भी स्वास्थ्य के बृहत्तर लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है। इस स्सल के बजट में यदि हम सामाजिक क्षेत्रक के बजट पर नज़र डालें तो यह वर्ष 2013-14 में जीडीपी के अनुपात में 15.7 प्रतिशत था जो इस साल के बजट 2014-15 में घाट कर 13.9 प्रतिशत पर पहुँच गया है। यह अजीब विरोधभास है कि एक ओर सबके लिए स्वास्थ्य का दवा किया जा रहा ही और दूसरी ओर इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक योजनाओं के पर कतरे जा रहे हैं। इस बजट में स्वास्थ्य पर सिर्फ़ 1.2 फ़ीसदी, शिक्षा पर 3.5 और असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों के लिए मात्र 0.15 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की गयी। सामाजिक क्षेत्र में इतनी मामूली बढ़ोत्तरी मात्र ज़बानी जमा ख़र्च दिखाता है नाकि अपने वचनों के प्रति प्रतिबद्धता।

जनता को सुनहरे ख़्वाब दिखाने में माहिर प्रधानमंत्री मोदी, वित्तमंत्री जेटली व उनकी सरकार ने इस बजट में तमाम वादों के बावजूद इस बात का कोई ख़ाका न पेश कर पाये जो यह बताए कि स्वास्थ्य सेवाओं को कैसे सर्वसुलभ बनाया जाएगा। देखना अब यह है कि मोदी सरकार ने देश की जनता से जो वादा किया है, क्या वाक़ई उसे वह निभाएगी या हमेशा की तरह ये सारे वादे महज़ खोखले ही साबित होंगे।

Saturday, August 2, 2014

मुस्लिम समुदाय को है नए नेतृत्व की दरकार

यह भारत के आम मुसलमानों की सबसे बड़ी बदक़िस्मती है कि उनका नेतृत्व हमेशा या तो कठमुल्ला उलेमाओं के हाथ में रहा है या राजनीतिक-वैचारिक दिवालियेपन का शिकार पतित राजनीतिक नेताओं के हाथ में। वे कठमुल्लाओं, जिनका सारा चिंतन चौदह सौ साल पुरानी उन अंधेरी गुफ़ाओं में मह्व-ए-ख़्वाब है, जिन्हें न ही समाज और राजनीति में आ रहे परिवर्तनों की कोई आहट उन्हे इस चिरकालीन निंद्रा से उठा सकती है और न ही वे निकलना चाहते हैं। उन्हें न आम मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक दशा और दिशा के बारे में चिंता है और, न ही उनके पास दरपेश चुनौतियों को समझने का कोई कारगर टूल है। उनके पास वही सदियों पुराना एक चश्मा है। वह सब चीज़ उसी से देखते हैं। वह मुसलमानों को कभी धार्मिक कूप-मंडूपता के पिंजड़े के बाहर नहीं निकालना चाहते।
दूसरी तरफ़, मुसलमानों नेतृत्व या तो उन विशुद्ध राजनैतिक नेताओं के हाथ में है जिनका सारा ध्यान इस पर केन्द्रित रहता है कि किस प्रकार ऐसा माहौल तैयार किया जाये कि स्वयं का महत्व और स्वयं की रक्षा के बंदोबस्त का जुगाड़ हो। राष्ट्र की मुख्य धारा में मुसलमानों को कैसे और किस प्रकार से भागेदारी हो, उनकी सामाजिक-आर्थिक प्रगति कैसे हो, इन सबकी तनिक भी चिंता न मुस्लिम राजनीतिक नुमाइंदों को और न ही कठमुल्ला उलेमाओं को।
ईद से तीन दिन पहले, अलविदा जुमा की नमाज़ के बाद लखनऊ में शिया धर्म गुरु और इमाम-ए-जुमा मौलाना कल्बे जव्वाद ने सैकड़ों नमाज़ियों और रोज़ेदारों का हुजूम लेकर उत्तर प्रदेश सरकार के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री का घेराव करने जा रहे थे। शहीद स्मारक पहुचते ही पुलिस ने प्रदर्शनकारियोंको रोक लिया। जिसपर कुछ शरारती तत्वों ने पुलिस पर पथराव किया इसके जवाब में पुलिस ने पदर्शन में जा रहे लोगों पर बेतहाशा लाठियां भांजनी शुरू कर दी। जिसमे एक बुज़ुर्ग की जान गयी और सैकड़ों घायल हो गए।
सवाल यह नहीं कि पुलिस की कार्यवाही इतनी भायावह क्यों हुई? या यह कि सरकार या मंत्री खिलाफ प्रदर्शन करना ग़लत है। बल्कि, सवाल यह है कि प्रदर्शन का नेतृत्व किनके हाथों में था और वे कौन से मांग मनवाने जा रहे थे। जब इस बात का पूरा-पूरा अंदेशा और इल्म हो कि लखनऊ जैसी जगह में उपद्रवी तत्व हर वक़्त मौके के इन्तेज़ार में रहते हैं तो ऐसे ग़ैर-जिम्मेदाराना क़दम क्यों उठाए जाएँ।
देश के मुसलमानों के सामाजिक-आर्थिक हालात ख़ास करके शिक्षा जो मानव विकास का अहम पहलू है पर अगर नज़र डालें तो बहुत ही निराशाजनक तस्वीर उभरती है। देश की मुस्लिम आबादी में साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से तो काफी कम है ही। वहीं उच्च शिक्षा में इस वर्ग के बच्चों की सकल नामांकन दर गैर मुस्लिम बच्चों की तुलना में करीब आधी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, असम, पश्चिम बंगाल और पंजाब में मुस्लिम साक्षरता दर इन राज्यों की औसत साक्षरता से काफी कम हैं। बिहार की साक्षरता दर 61.80 प्रतिशत की तुलना में वहां मुस्लिम साक्षरता दर 36 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश की साक्षरता दर 67 प्रतिशत की तुलना में मुस्लिम साक्षरता दर 37.28 प्रतिशत है। वहीं, मुस्लिम समुदाय के बच्चों की सकल नामांकन दर 8.7 प्रतिशत थी जबकि गैर मुस्लिम छात्रों की सकल नामांकन दर 16.8 प्रतिशत थी।
शिक्षा का स्तर किसी समाज को अच्छे रोज़गार के मौक़े फ़राहम करता है और इनके लिए सक्षम बनाता है। उल्लेखनीय है कि, मुस्लिम समुदाय के धार्मिक और स्वनिर्मित संगठन, कठमुल्ला उलेमा और नेता जो पिछले सात दहाईयों से मुसलमानों की नुमांइदगी का दावा तो करते रहे हैं लेकिन ये संगठन और लीडरशिप भारत के मुसलमानों की कितनी हमदर्द हैं, इसका अंदाजा सिर्फ इस हकीकत से लगाया जा सकता है कि आधुनिक शिक्षा के केन्द्रों—कॉलेज और विश्वविद्यालयों—तो खोलना दूर रहा वे मुसलमानों के आधुनिक-वैज्ञानिक शिक्षा ग्रहण करने का ये कह कर विरोध करते रहे हैं कि ये ग़ैर इस्लामी शिक्षा है।
कठमुल्लों की ये जमात मस्जिद और मजलिस के मिम्बर पर से मुसलमानों के भीतर की सामाजिक बुराइयों को दूर करने की तक़रीर-ओ-तरगीब भले ही न देती हो अलबत्ता वो हर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दे पर अपनी राय से जरूर नवाज़ती है। कुछ दिन पहले मशहूर सुन्नी मौलाना सलमान नदवी ने बग़दादी को ख़त लिख कर बक़ायदा ख़लीफ़ा मान लिया जबकि दुनिया भर के प्रगतिशील उलेमाओं ने बग़दादी की इस्लामी ख़िलाफ़तकी स्थापना को ग़ैर-इस्लामी कह कर ख़ारिज कर दिया है। वहीं दूसरी तरफ़ प्रमुख शिया मौलाना आग़ा रूही बड़े गर्व से एक न्यूज़ चैनल पर बता रहे थे कि उनका बेटा इराक़ में आइएसआइएस के विरुद्ध जिहाद कर रहा है। जंग इराक़ में हो रही है और उलेमा शिया-सुन्नियों को वरग़लाने में जुटे हुए हैं। शिया मौलाना अपने बेटे की शौर्यगाथा सुना सुना कर लोगों को क़ुरबानी देने के लिए उकसा रहे हैं तो उधर सुन्नी मौलाना को यह ज़र्रा बराबर एहसास नहीं कि उनका यह बग़दादी के शान में क़सीदे पढ़ना तालिबानीकरण के रास्ते को ही हमवार करेगा।
एनएसएसओ के आंकड़ों के अनुसार अधिकांश मुसलमान छोटे-मोटे कारोबार या लघुस्तरीय हथकरघा जैसे असंगठित क्षेत्रों से जुड़े हैं। निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के रोज़गारों में मुसलमान समुदाय की भागीदारी आबादी में उनके अनुपात से कहीं कम है। स्वरोज़गार में बढ़ता हुआ इनका हिस्सा वास्तव में असंगठित क्षेत्र में बढ़ रहा है। कहना न होगा कि असंगठित सेक्टर तमाम तरह की सामाजिक सुरक्षाओं से महरूम है। इसके पास बीमारी, दुर्घटना, वृद्धावस्थाब, रोग, बेरोजगार आदि के कारण उत्पन्न जोखिमों का सामना करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं। लेकिन अफ़सोस की बात है कि इन मुल्लाओं और अपना हित साधने वाले नेताओं ने अशिक्षा और बेरोज़गारी के खिलाफ़ कभी कोई बड़ा धरना या प्रदर्शन नहीं किया। ऐसी शायद ही कोई मिसाल हो जब इन कठमुल्लों ने कभी मज़दूरों के हक़-हुक़ूक़ को लोगों को लामबंद कर के सड़कों पर उतारा हो। मगर हाँ इतना तो ज़रूर है कि वक़्फ़ सम्पत्तियों के माल को गपकने के ख़ातिर अक्सर ये सड़कों पर उतर आते हैं।
इन कठमुल्लाओं के लिए किसी दूर-दराज़ मुल्क में मुसलमानों के साथ हो रही ज़्यादती तो ज़रूर एक मसला है और उस पर अक्सर-ओ-बेशतर लफ़्फ़ाज़ियाँ भी करते रहते हैं लेकिन ये अपने ही मुल्क के मसायल पर चुप्पी का मोटा लबादा ओढ़ लेते हैं। अभी दो-तीन दिन पहले दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमामअहमद बुख़ारी जामा मस्जिद के इलाक़े की तहज़ीब को बचाने का बीड़ा उठाया है और उनका निशाना बने हैं वे ग़रीब, बेसहारा, मज़लूम और बेघर लोग, जिन्होंने कई रैन-बसेरो में पनाह ले रखी है। ज़ाहिर है, इनमें से अधिकांश पसमांदा मुसलमान और दलित हैं। तहज़ीब, मज़हब, शरीयत और तरीक़त की बलिवेदिका पर इन्हीं ग़रीब और पसमांदा लोगों की ही बलि चढ़ाई जाती है।

साल दर साल हाशिए पर पहुँचते मुस्लिम समुदाय को अपने समाज के भीतर की आवाज़ों को सुनना पड़ेगा और लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया को बढ़ाना होगा। साथ ही, अपना नेतृत्व उन सक्षम हाथों में सौंपना पड़ेगा जो बहुत तेज़ी से बदलते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय प्रदृश्य में सही निर्णय ले सकें और समुदाय को राहे रास्त पर ले जा सकें। जिसके लिए पहली शर्त है कि मज़ार-मस्जिद-मजलिस-मिंबर-मुल्ला-मुजाविर को धर्मस्थल तक महदूद कर दिया जाय। धर्म को राजनीति से घाल-मेल करने के प्रयास को रोका जाय क्यूंकी धर्म और राजनीति का घालमेल ने दुनिया को हमेशा तबाही की गहरी खाईं में ढकेलता है।
(डीएनए  हिन्दी में 1 अगस्त को मुस्लिम समुदाय को है नुमाइंदगी की दरकार' के शीर्षक से प्रकाशित)