Saturday, November 30, 2013

अमामे (पगड़ी) के रंग पर ख़ास ज़ात (जाति) की इजारादारी

मुसलमानों के बीच इम्तियाज़ात और तफ़रीक़ (discrimination) की बात करिए कि मुल्ला-मौलाना गला फाड़-फाड़ कर, तमाम हदीस और क़ुरआन की आयतों का हवाला देकर, बताने लगेंगे कि इस्लाम में ज़ात-पात, छुआछूत नहीं है। अरे भाई! इससे कौन इंकार करता है कि—इस्लाम में ज़ात-पात नहीं है। दरअस्ल, यह बुराई इस्लाम की नहीं मुसलमानों की है। इस बुराई के अमल में, आम मुसलमान ही नहीं उलेमा और क़ायद (leaders) भी पेश पेश और शाना-ब-शाना हैं, आम-ओ-ख़ास मुसलमान इन मकरुहात से आज़ाद ओ इसतस्ना नहीं है। हज़रत मुहम्मद (स॰अ॰) ने अपने आख़िरी हज के मौक़े—जो ख़ुत्बा हज्जत-उल-विदा’(‘farewell pilgrimage sermon’) के नाम से भी जाना जाता है—पर फ़रमाया कि, किसी भी अरब को ग़ैर-अरब पर, अमीर को ग़रीब पर, गोरे को काले पर कोई बरतरी (superiority) नहीं हासिल है। ग़रज़ यह कि तमाम मुसलमान एक उम्मा हैं और इनके बीच किसी भी क़िस्म की कोई तफ़रीक़ ओ इम्तियाज़ नहीं  होना चाहिए। पर सितमज़रीफ़ी  यह है कि कुछ लोगों ने अपने आप को प्रॉफ़ेट मुहम्मद (स॰अ॰) के ख़ानदान का होने का भरम पाल रखा है। ये अपना शजरा (family tree) हज़रत (स॰अ॰) के ख़ानदान में तलाश करते हैं; और ये नजीब-उत-तरफ़ैन अपने को आला और अफ़ज़ल मान बैठे हैं। ये लोग अपने आप को सादात (direct descendants of Mohammad SAW) कहते हैं। 

मसलक-ए-जाफ़रिया (शिया फ़िरक़े) के सादात मौलानाओं ने तो अपना लिबास तक अलग कर लिया है। इनके अमामे (पगड़ी) के रंग इसकी निशानदेही  करते है—सिर्फ़ सय्यद मौलाना ही काला अमामा पहनते है; दीगर ज़ातों के मौलाना काले रंग के अलावा, किसी भी रंग का अमामा बांध सकते हैं। अमामे (पगड़ी) के रंग पर ख़ास ज़ात (जाति) की इजारादारी (monopoly)! अद्भुत!!


अब ये मत कह देना कि इस फ़िरक़े—शिया फ़िरक़े के लोग मुसलमान ही नहीं है, जैसा कि एक स्कल कैप (गोल टोपी) और बकर दाढ़ी वाला शख़्स कहता है...

...वही गोश-ए-क़फ़स है, वही फ़स्ल-ए-गुल का मातम

अक्सर ओ बेशतर, ख़ासकर के मुस्लिम लीडरान और मुल्ला–मौलाना इस बात को अक्सर कहते हुए देखे/सुने जा सकते हैं कि—सच्चर कमेटी ने बताया कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों की हालत दलितों से बदतरहै। मिसाल के तौर पर आज के रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा के मज़मून मसाएल से कैसे निजात पाएँ मुसलमान?’ में मौलाना इसरार-उल-हक़ क़ासमी—जो काँग्रेस के एम॰पी॰ भी हैं—अपनी बात यही सच्चर कमेटी के ग़लत हवाले (misquote) से ही शुरू करते हैं। यह बात सर ता पैर ग़लत और बेबुनियाद है। हाँ! सच्चर कमेटी ने इतना ज़रूर बताया कि, कुछ इंडिकेटर्स (indicators) में मुसलमानों का परफॉर्मेंस (performance) हिन्दू दलितों से ख़राब है।

सच्चाई जबकि इसके बारअक्स है, हालत तो दलित व पिछड़े मुसलमानों की बदतर है। मिसाल के तौर पर नेशनल नमूना सर्वेक्षण (NSS) का 61वां राउंड (61 Round) बताता है कि हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ का महाना फ़ी कस अख़राजात (monthly per capita expenditure) रु 620 है और मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰ का रु 605 है जबकि मुस्लिम अगड़ी (सामान्य) जाति का रु 633 हैं इस तरह मुस्लिम अशराफ़ आमदनी के लेहाज़ से न सिर्फ़ पसमान्दा मुस्लिम (मुस्लिम ओ॰बी॰सी॰) से आगे है बल्कि वो हिन्दू ओ॰बी॰सी॰ से भी आगे है।

इसके अलावा, जहां तक समाजी मोर्चे की बात है तो यह बात ढकी-छुपी नहीं कि यह सिर्फ़ कहने को है कि—एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ आयाज़, न कोई बंदा रहा न बंदा नवाज़, पर सच्चाई यह है कि मस्जिद की चौखट पार करते ही महमूद महमूद हो जाता है और बंदा नवाज़ बंदा नवाज़। यह शेर दलित-पसमान्दा मुसलमानों के लिए सिर्फ़ छलावा ही साबित हुआ है। एक सय्यद के लिए एक हलालख़ोर (भंगी) उतना ही अछूत है जितना एक ब्राहमण के लिए एक हिन्दू भंगी।

सियासत में हिस्सेदारी का मुआमला तो और भी दीगर गूँ है– एक अध्ययन के मुताबिक़ अगर पहली से लेकर चौदहवीं लोकसभा की फेहरिस्त उठा कर देखें तो पाएंगे कि अबतब तक चुने गए सभी 7,500 प्रतिनिधियों में 400 मुसलमान थे; इन 400 में 340 अशराफ़ और केवल 60 पसमान्दा तबक़े से थे। अगर भारत में मुसलमानों की आबादी कुल आबादी की 13.4 फीसद (जनगणना, 2001) है तो अशराफ़िया आबादी  2.01 फीसद (जो कि मुसलमान आबादी के 15 फीसद हैं) के आसपास होगी जबकि लोकसभा में उनकी  नुमाइंदगी  4.5 (340/7500) प्रतिशत है जो कि उनकी आबादी प्रतिशत के दोगुने से भी ज़्यादा। वहीँ दूसरी तरफ़, पसमान्दा मुसलमानों की नुमाइंदगी, जिनकी आबादी 11.4 फीसद है, महज़ 0.8 फीसद (एक फीसद से भी कम) है। भारत में मुसलमानों की आबादी के मुताबिक़ कुल सांसद कम से कम एक हज़ार होने चाहिए थे। इसलिए सिर्फ़ चार सौ सांसदों की मौजूदगी से लगता है कि मुसलमानों की भागीदारी मारी गई है, मगर आंकड़ों का ठीक से मुआयना करने पर देखेंगे कि अगड़े मुसलमानों (अशराफ़) को तो उनकी आबादी के दुगुने से भी ज्यादा भागीदारी मिली है। ये तो पिछड़े (पसमान्दा) मुसलमान हैं जिनकी हिस्सेदारी मारी गयी है।


क़िस्सा कोताह यह कि, दौरे हाज़िर के गोएब्ल्सों! अपने फ़ाएदे के लिए झूट की पासदारी करना बंद करो और मुस्तहक़ीन को उनका जाएज़ हक़ दिलवाने में अड़ंगेबाज़ी करना बंद करो।

रूहानी इल्हाद (Spiritual Atheism)

मेरे कई, जदीद तालिम याफ़्ता (modern educated) और लेफ़्टिस्ट/कम्यूनिस्ट/मार्कसिस्ट दोस्त ऐसे हैं जो अपने आप को मुलहिद (atheist) कहते हैं—वो अमलन मज़हब को छोड़ चुके हैं; लेकिन इस के बावजूद, वो स्प्रीचुअलिटी  (spirituality) की तलाश में रहते हैं। वो चाहते हैं कि मज़हब (religion) के दायरे से बाहर उन्हे कोई ऐसी चीज़ मिल जाए जो उनको रूहानी सुकून (spiritual ecstasy) दे सके। इसी रूहानी तस्कीन के लिए इनलोगों ने सूफिज़्म को गले लगाने का हरबा अपनाया है। सूफिज़्म का फ़लसफ़ा (philosophy), दरअस्ल, वहदतुल वजूद (unity of existence) का फ़लसफ़ा है जिसको फ़लसफ़ीयाना इस्तलाह (philosophical terminology) में मोनिज़्म (monism) कहा जाता है। शेख़ मोहयुद्दीन इब्न अल-अरबी एक सूफ़ी पेशवा की हैसियत से मशहूर हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि—वह इबादात में ज़ाहिरी (literal) थे और अक़ीदे में बातनी (esoteric) थे। उनके बारे में इमाम ज़हेबी ने कहा है कि—वह वहदतुल वजूद के मानने वालों के पेशवा हैं। इब्न अल-अरबी ने क़ुरान की आयत (15:99) की तफ़सीर यूं की है—यानी यहाँ तक कि तुझे हक़-उल-यक़ीन हासिल हो, और तेरे वजूद के ख़त्म होने से तेरी इबादत भी ख़त्म हो जाये, फिर आबिद और माबूद सब एक होंगे, ग़ैर नहीं। क़िस्सा कोताह यह कि, रूहानीयत—सूफिज़्म का मामला सीधे-सीधे मज़हब ओ ख़ुदा से है।

ऐसा क्यूँ है कि, एक तरफ़ मज़हब ओ इबादत से बेज़ारी और दूसरी तरफ़ ख़ुदा और माबूद से शनासाई?? इस का सबब यह है कि इन्सान अपनी फ़ितरत के एतबार से एक रूहानियत (spirituality) पसंद मख़लूक़ है। मज़हब के नाम से वो सिर्फ़ उस कल्चर को जानता है जो आज मज़हबी गिरोहों के दरमियान पाया जाता है। यह कल्चर उसको अपील नहीं करता, इसलिए वो अपनी फ़ितरत की तस्कीन के लिए स्प्रीचुअलिटी की तलाश में रहता है।