रंग पैरहन का, ख़ुशबू ज़ुल्फ़ लहराने का
नाम,
मौसम-ए-गुल है तुम्हारे बाम पर आने का नाम। यह शेर है उर्दू के विश्वप्रसिद्ध शायर फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
का, जिनके बग़ैर उर्दू साहित्य और
भाषा का इतिहास अधूरा है। फ़ैज़ ठीक 104 साल पहले, 13 फरवरी 1911 को स्यालकोट में पैदा हुए। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा वहीं हुई और
उच्च शिक्षा के लिए गर्वनमेंट कॉलिज लाहौर आ गए, जहां
से उन्होने ने बीए ऑनर्स अरबी भाषा और साहित्य और अंग्रेज़ी साहित्य में एमए किया। 1935 में फ़ैज़ ने एमएओ कॉलिज अमृतसर में
अंग्रेज़ी साहित्य के प्राध्यापक की हैसियत से शमूलीयत इख़तियार की। 1942 में वे ब्रिटिश फ़ौज में कैप्टन हो गए और दूसरे विश्व-युद्ध में हिस्सा लिया। 15 अगस्त 1947 को अग्रेज़ों ने जाते जाते देश के दो टुकड़े कर दिये। वे पाकिस्तान में रहे और 1951 में उन पर रावलपिंडी साज़िश केस का मशहूर मुक़द्दमा भी हुआ और उन्हें
क़ैद-ओ-बंद की दुश्वारियाँ भी बर्दाश्त करनी पड़ीं। क़ैद का यह ज़माना में उनकी
शायरी में एक नया निखार लेकर आया। कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं। सद शुक्र कि अपनी रातों में, अब हिज्र की कोई रात नहीं। फ़ैज़ के ऐसे तमाम शेर जो उनके
कारावास के दिनों की ही याद हैं जिन्हों ने उनको साहित्य की दुनिया का ताबिंदा
सितारा बना दिया।
फ़ैज़
अहमद फ़ैज़ वह एकमात्र पाकिस्तानी शायर हैं जिन को चार बार साहित्य के नोबल इनाम के
लिए नामज़द किया गया। उन्हें 1962 में लेनिन पीस प्राइज़ भी नवाज़ा
गया। फ़ैज़ की शायरी पर पंजाबी सूफ़ी रवायात और सोशलिज़्म की छाप भी नुमायां हैं। फ़ैज़ को उर्दू पोइट्री का नेरूदा भी कहा जाता है। पाब्लो नेरुदा की तरह फ़ैज़ ने शायरी को
सामाजिक मुद्दों को विभिन्न एहसासात से जोड़ते हुए यादगार रुमानवी गीतों का हिस्सा बना दिया। फ़ैज़
अपनी शायरी में सिर्फ़
भौतिक मुद्दों
पर ही
तवज्जों
नहीं देते बल्कि ठोस वास्तविक
मामलों का ज़िक्र करते हुए मिलते हैं। नेरूदा के मामले में भी यह बात दुरुस्त है।
दोनों ने हक़ीक़ी
मसायल
को
मौज़ू
बनाया। रोटी की बात की।
शांति
और
सुरक्षा के लिए दोनों ने क़लम
उठाया। लिबरल और सेक्युलर मूल्यों पर यक़ीन रखने वाले फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ अपनी प्रगतिशील सोच और शायरी से पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया
की अब तक की तीन पीढ़ियों को प्रभावित कर चुके हैं। पाब्लो नेरूदा को भी तक़रीबन वैसे ही
हालात का सामना करना पड़ा जैसे फ़ैज़ को दरपेश रहे। फ़ैज़ के शायरी की ख़ास बात यह कि उन्होने जो बिम्ब,
उपमाएँ, शब्द, लय,
मूसीक़ीयत और शायराना ख़ाके अपनाए वे पुराने पड़ते दिखाई नहीं देते — ये देश काल से
परे हैं।
फ़ैज़ की शायरी अपनी फ़ितरत में सियासी रंग लिए हुए है — अच्छी शायरी
की यही विशेषता होती है कि
इसमें रोज़मर्रा ज़िन्दगी के मसाएल और मुहावरे मिलते हैं। मीर, ग़ालिब और हाफ़िज़ जैसे महान कवियों की शायरी की भी यही विशेषता रही है। उनकी शायरी
ने ज़हनों को रोशन किया है। हमें दुनिया भर में मौजूद
विभिन्न संस्कृतियों को समझना
और उन का सम्मान
करना सिखाया।
फ़ैज़ की कविता में जो सबसे
महत्वपूर्ण बात है वह है दबे-कुचलों के प्रति दुख-दर्द की भावना,
जनमानस से अटूट रिश्ता। वे
एक तरफ़ अफ़्रीक़ा के
मामलों
पर
सहानुभूति प्रकट करते दिखाई
देते हैं और साथ ही फ़लस्तीन के मसले की बाबत बात करते नज़र आते हैं।
वे अफ्रीकी स्वतन्त्रता
प्रेमियों के समर्थन में ‘अफ्रीक़ा कम बैक’ का
नारा लगाते हैं और साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-सना’ और फिलिस्तीनी बाँकों को
श्रद्धांजलि पेश करने के लिए ‘दो नज़्में फिलिस्तीन के लिए’
लिखकर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। शायरी की सब से ख़ास बात ही ये है कि ये हमें
दूसरों का दर्द महसूस करना सिखाती है। फ़ैज़ की शायरी ने यह काम बख़ूबी सरअंजाम दिया है।वो जो बज़ाहिर कुछ नहीं लगते, उन से रिश्ते बला के होते हैं।
हालांकि
यह भी एक हक़ीक़त है कि अच्छी शायरी किसी ख़ास सरोकार के तहत भी की जा सकती है। उर्दू
शायरी में ऐसी मिसालों की भरमार है। मसलन, फिरदौसी का शाहनामा, सौदा के
क़सीदे, मीर अनीस के मर्सिये, ‘हाली’ की मुसदस्से
हाली, अल्लामा इक़बाल का शिकवा जवाब-ए-शिकवा
और हफीज़ जालंधरी का शाहनामा-ए-इस्लाम वग़ैरा ऐसे शाहकार हैं जिनकी रचना में सरोकारों
की कारफ़रमायी थी। वहीं, एक बात
जो ख़ास तौर पर समझने की है, वह यह कि फ़ै़ज़ का ख़ुद के सरोकारों
से रिश्ता कोरा वैचारिक, नैतिक या कोई रस्मी नहीं है। वे
उनके ख़ुद के सरोकार हैं, खु़द कमाये हुए, ‘ऑर्गेनिक’ और अपरिहार्य। इनमें उनके वास्तविक
और निजी ‘स्टेक्स’ थे। सामाजिक सरोकार और निजी सरोकारों
में,
ऐतिहासिक कार्यसूची और निजी कार्यसूची में उनके लिए कोई अंतर
न था। इसीलिए ‘रेटरिक’ कासहारा लेने की ज़रूरत उन्हें
कभी महसूस नहीं हुई। हम परवरिश-ए-लौह-ओ-क़लम करते रहेंगे, जो दिल पे गुज़रती है, रक़म करते रहेंगे। यही उनकी शायरी की विशेषता है—उन्होने जैसा जिया, समझा, बरता, महसूस किया वैसा ही काग़ज़ पर उकेर दिया।
लहजे की
शायरी में लोकप्रिय होने की संभावनाएं बहुत होती हैं। दाग़ देहलवी सिर्फ़ अपने लहजे की
खनक की वजह ही से अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय शायरों में गिने जाते हैं। दाग़ का लहजा
ज़बान के चटख़ारे, मुहावरे की चाशनी और रोज़-मर्रा
की महक का मुरक्कब था। जबकि फ़ैज़ अपने धीमे, शीरीं, ख़्वाबीदा और बुनियादी तौर पर रूमान
से भरे लहजे की वजह से लोकप्रियता की मंज़िलें तय करते रहे। उनकी शायरी में अमूर्त क्रांतिकारी
रूमान,
अमूर्त देशप्रेम या अमूर्त आवारगी और दीवानगी की मुखतलिफ़ भंगिमाएं
सामने आती हैं। फ़ैज़ के अल्फ़ाज़ अगर बजने के बजाय गूंजते हैं, सच्चे लगते हैं और दिल में उतरते हैं तो उसकी बड़ी वजह यही है कि वे असल की ताक़त
लेकर आते हैं। बात चाहे मज़दूरों के शोषण की हो या वारदात-ए-इश्क़-ओ-हुस्न का बयान, फ़ैज़ नें हर तरह के मुद्दों-मसलों पर अपने ख़ास अंदाज़ और लहजे
में शायरी की है। ग़म-ए-जहां हो, रुख़-ए-यार हो कि दस्त-ए-अदू। सुलूक जिससे किया, हम ने आशिक़ाना किया।
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