Tuesday, January 6, 2015

सलीब पर किसान


पिछले दिनों महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में 75 साल के एक किसान द्वारा खुद को चिता में जलाने की हृदय विदारक घटना सामने आई थी। यह घटना, देश में तेजी से बढ़ रहे किसानों की आत्महत्या के मामलों में से एक है। महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब समेत देश के कई राज्यों में ऐसी घटनाओं में तेजी देखी गई है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा प्रकाशित एक्सीडेंटल डेथ एंड स्यूसाइड इन इंडिया-2013 नामक दस्तावेज के अनुसार साल 2003-2013 यानी एक दशक की अवधि में हर साल औसत एक लाख से ज्यादा व्यक्तियों ने भारत में आत्महत्या की। आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में स्वरोजगार में लगे लोगों की संख्या 38 प्रतिशत है। इस 38 फीसदी की तादाद में 8.7 प्रतिशत लोग खेती-बाड़ी यानी किसान श्रेणी के हैं। वहीं ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2013 में 11,744 किसानों ने आत्महत्या की जबकि 2012 में 13,754 किसानों ने आत्महत्या की थी। भारत में ज्यादातर किसान कर्ज़, लागत बढ़ने, सिंचाई के अभाव, कीमतों में कमी और फसल के बर्बाद होने के चलते आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं। 1995 से लेकर अब तक लगभग तीन किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
प्रतिष्ठित मेडिकल जर्नल लैंसेट में प्रकाशित जॉनथन कनेडी और लारेंस किंग के एक लेख पॉलिटिकल इकॉनॉमी ऑफ फार्मर्स स्यूसाइड इन इंडियामें कहा गया है कि नगदी फसलों की खेती करने वाले, एक हैक्टेयर से कम जमीन के मालिक किसानों के आत्महत्या करने की आशंका ज्यादा है। क्योंकि फसलों की कीमतों में होने वाली उतार-चढाव (मूल्य अस्थिरता) का वे सबसे ज्यादा शिकार होते हैं, साथ ही उनके बारे में यह आशंका लगी रहती है कि वे बकाया कर्ज नहीं चुका पाएंगे। कनेडी और किंग के इस अध्ययन में भारत में मौजूद आत्महत्या की परिघटना को महामारी की संज्ञा देते हुए नोट किया गया है कि भारत के ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर शहरी इलाकों की अपेक्षा दोगुनी है।
ग़ौरतलब है कि किसान की आत्महत्याओं की घटनाएँ उन राज्यों में अधिक हुई हैं जहां किसान मूलत: कपास और गन्ना जैसी नगदी फसलें उगाते हैं। इन फसलों की लागत बहुत अधिक आती है। जिसके लिए इन राज्यों के किसान 24 से 50 प्रतिशत ब्याज पर निजी साहूकारों से ऋण लेते हैं, जिसे अदा करने की उनकी क्षमता नहीं होती। अंततः वे ऋण और ग़रीबी के दुष्चक्र में फंस जाते हैं। भारत में किसानों की इस के संकट के पीछे मुख्य रूप से तीन कारण कारफ़रमा हैं। पहला, जहां एक तरफ खेती-किसानी की लागत में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है तो वहीं दूसरी तरफ़ लागत के अनुपात में कृषि उत्पाद के मूल्य में कमी हो रही है। दूसरा कृषि ऋण की अपर्याप्त व्यवस्था। और तीसरा, सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी को निरंतर घटता जाना।
उल्लेखनीय है कि इस नव-उदारवादी व्यवस्था में, राजकोषीय घाटा को कम करने के दिशा में कृषि सब्सिडी की लगातार कटौती की जा रही है जिसका सीधा असर कृषि की लागत या इनपुट्स पर पड़ता है। इस प्रकार किसान को कर्ज लेकर खेती करने के लिए मजबूर होता है। कर्ज लेने के बाद चक्रवृद्धि ब्याज के चक्कर में अदायगी राशि भी दो चार और सौ गुनी तक हो जाती है। वह इस शिकंजे से अपना खेत-खलियान बेचकर भी नहीं निकाल सकता। आखिरकार वह अपना आत्मसम्मान बचाने के लिए वह आत्महत्या कर लेता है।
देश में ऐसी वित्तीय संस्थाओं और व्यवस्था का नितांत अभाव है जो दूर दराज़ के छोटे और मँझोले किसानों को वाजिब दर पर ऋण दिला सकें। दूसरे अगर हैं भी तो इन सरकारी बैंक संस्थाएं से ऋण लेने में इतने कागज़ी झमेलों करने पड़ते हैं जिसे पूरा कर पाना इन किसानों के बस का नहीं। हालांकि मोदी सरकार ने इससे निपटने के लिए जनधन योजनानामक कार्यक्रम चलाया है। अब यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा कि किसानों को इससे कितनी राहत मिली। लेकिन, फिलवक्त किसानों को किफ़ायती दर पर ऋण नहीं मिलता।
1950-51 में भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 53.1 प्रतिशत थी जो वर्ष 2012-13 में घटकर मात्र 13 प्रतिशत रह गई। खेती अब घाटे का सौदा बन गई है। अब तक ढेढ़ करोड़ किसान कृषि से पलायन कर चुके हैं और प्रतिदिन खेती छोड़ने वाले किसानों की तादाद 2 हजार से ज़्यादा हो गई है। डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि भारत के चालीस फीसदी किसान अब खेती छोड़ने को तत्पर हैं क्योंकि किसान को मिलने वाली खाद्यान्न की कीमत में 80 फीसदी लागत और मात्र 20 फीसदी उसका श्रम मूल्य होता है।
किसान के हाथ से जमीन निकलती जा रही है और वह भूमिहीन खेत मजदूर बनता जा रहा है। सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भारत में 60 प्रतिशत आबादी का देश की कुल खेतिहार भूमि के केवल 5 प्रतिशत पर अधिकार है जबकि 10 प्रतिशत जनसंख्या का 55 प्रतिशत जमीन पर नियंत्रण है। और तो और पिछले सप्ताह मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण, पुनव्र्यवस्थापन एवं पुनर्वास  में पारदर्शिता और न्यायोचित मुआवजे का अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2013के कुछ प्रावधानों का संशोधन करने के लिए अध्यादेश जारी किया गया है। इसके तहत अब कृषि भूमि अधिग्रहण का कार्यक्रम बिना रोक-टोक के जारी रह सकेगा। ध्यातव्य हो कि। अधिग्रहण के कारण खेती का रकबा लगातार सिकुड़ता गया है। विगत चार दशकों में इस रकबे में 18.5 प्रतिशत की कमी चुकी है। वर्ष 1960-61 में प्रति व्यक्ति खेती योग्य 2.63 हेक्टेयर जमीन उपलब्ध थी जो घटकर 2008 में 0.8 हेक्टेयर रह गई। बहुराष्ट्रीय कंपनियां और देशी कार्पोरेट, किसानों को निशाने पर रख मुनाफा कमाना चाहते हैं। मौजूदा अध्यादेश इसी मकसद को और आसानी से पूरा करता नजर रहा है। कहने को सरकार कह रही है कि इससे गरीब किसानों को सस्ते मूल्य पर आवास उपलब्ध करायेगी, उनका विकास होगा। लेकिन किसान आत्महत्याओं को दूर करने में यह कानून, किस प्रकार कारगर होगा, बताया जाना चाहिए।
किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य और उनके आर्थिक संकट की दशा में वित्तीय संरक्षण दिये बिना आत्महत्याओं की यह महामारीख़त्म नहीं होने वाली। साथ ही किसानों को अपनी ज़मीन बचाने के लिए भी लामबंद होना पड़ेगा।

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