Monday, December 22, 2014

‘गुड गवर्नेंस’ की ‘मोदीनॉमिक्स’

पिछले साल से सारा कॉरपोरेट मीडिया जो एक सुर में गुजरात मॉडल के गौरव गान में लगा हुआ था वह 16 मई के बाद बाक़ायदा मोदी सरकार के चरणवंदन में लग गया है। सरकार और मीडिया ने एक बार फिर से गुड गवर्नेंस का राग अलापना शुरू कर दिया है। वहीं सरकार ने सर्कुलर जारी करके शैक्षिक संस्थानों से 24 दिसंबर को गुड गवर्नेंस डे मनाने को कहा है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि वह गुड गवर्नेंस ही है जो देश को विकास के रास्तों पर ले जा जाएगा। बकौल नरेंद्र मोदी गुड गवर्नेंस यानी सुशासन को अपनाना ही सारी कठिनाईयों को पार करने का एक मात्र रास्ता है। इसको जानने से पहले कि गुड गवर्नेंस से आमजन की ज़िन्दगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन हुआ या नहीं, इसके आर्थिक विचार के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।
अर्थशास्त्र, एक अलग ज्ञान की शाखा के रूप में, अपने प्रादुर्भाव काल से ही राज्य और शासन संबन्धित मुद्दों की पड़ताल करता रहा है। करीब 2300 वर्ष पहले कौटिल्य द्वारा लिखी गयी प्राचीनतम पुस्तक अर्थशास्त्र में शहरों का बसाना, गुप्तचरों का प्रबंध, फ़ौज की रचना, न्यायालयों की स्थापना, से लेकर  राजनीति, दंडनीति, समाजशास्त्र और नीतिशास्त्र इत्यादि विषयों पर विचार हुआ है। इसके बाद आधुनिक काल में सभी शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों यानी क्लैसिकल एकोनोमिस्ट्स जैसे एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और जे.एस. मिल ने भी अर्थव्यवस्था को विनियमित करने में राज्य की भूमिका पर बल दिया है। बाद में, नवशास्त्रीय यानी नियो-क्लैसिकल अर्थशास्त्रीयों ने बाज़ार को ही सर्वप्रिय और सर्वोत्तम माना। उनके अनुसार बाज़ार खुद अर्थव्यवस्था को विनियमित करने मे सक्षम है इसलिए सरकार को इसकी गतिविधियों में हस्तक्षेप न करना चाहिए क्यूंकी सरकार का हस्तक्षेप बाज़ार संतुलन में बाधा डालती है। लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात, बाज़ार की शक्तियों की बड़ी गिरावट देखी गई। बाज़ार बाज़ाब्ते ख़ुद अर्थव्यवस्था को संतुलित और नियंत्रित करने में पूर्णतः असफल रह; अदृश्य हाथ के जादू नें विश्वास खो दिया। तब जॉन मेयनार्ड कीन्स बाजार के बचाव में उतरते हुए ये तजवीज़ सुझाई कि बाज़ार की विफलताओं को ठीक करने के लिए सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ बाजार अपने आप मे मुकम्मल नज़रिया नहीं इसके असफल होने की पूरी गुंजाइश है।
ग़ौरतलब है तब से अब तक, राज्य की भूमिका को लेकर, मुख्य धारा के सारे आर्थिक विचार इन दो प्रमुख विचारधाराओं के बीच दोलन करते रहते हैं। पहली धारा है, नवप्रामाणिक बाज़ारवादियों कीजिनका कहना है कि राज्य का बिलकुल हस्तक्षेप न होना चाहिए। दूसरी है, कीन्सियन की, जिनका मानना है कि राज्य को बाज़ार विफलता से निपटने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। इनके अलावा एक अन्य समानान्तर विचारधारा है जिसे हेटरोडॉक्स अथवा मार्क्सवादी अर्थशास्त्र कह सकते हैं। अर्थशास्त्र की वैचारिकी यह धड़ा समता को सर्वोपरि मानता है। इसके अनुसार सुशासन का मतलब है आय और संसाधनों के वितरण में समता।
मोदी और उनके समर्थकों तथा नीति-नियंताओं ने बजारवादी व्यवस्था पर विश्वास करते हुए आवाम को इस ख़ाम-ख़याली में मुब्तला कर रखा है कि आर्थिक विकास से ऊंचे तब्क़े को होने वाले मुनाफ़े का फ़ायदा एक न एक दिन निचले तब्क़े तक भी अपने आप पहुंच जाएगा। यही ट्रिकल डाउन का सिद्धान्त है। जिसके अनुसार विकास दर बढ़ने से उन तबकों का भी फायदा होता है जो विकास प्रक्रिया में सीधे तौर पर जुड़े नहीं होते हैं। मतलब, विकास की रणनीति के साथ उसके परिणाम अर्थात आय के पुनर्वितरण के बारे में सरकार या राज्य को चिंता नहीं करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो, कर नीतियों के जरिए धनवानों की आय और संपदा का एक खासा हिस्सा लेकर कल्याणकारी कार्यक्रमों द्वारा कम आय और संपदा वालों को हस्तांतरित नहीं करना चाहिए। क्यूंकी इस सैद्धांतिकी के अनुसार रिसाव के जरिए विकास के क्रम में सृजित आय और संपदा का पुनर्वितरण स्वत: हो जाता है। इसलिए सरकार को स्वास्थ्य, शिक्षा समेत अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में भारी व्यय से गुरेज़ करना चाहिए। मतलब ट्रिकल डाउन सरकारी तामझाम को कम करता है; नतीजतन प्रशासनिक खर्च बचत होती है और भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगता है।
अब सवाल उठता है कि अगर यह सही है तो फिर गरीबों की स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन क्यों नहीं होता दीखता? गरीबी-अमीरी के बीच फासला क्यों बढ़ता जा रहा है? गौर से देखें तो 'ट्रिकल डाउन' का अर्थशास्त्र और ट्रिकल डाउन (रिसाव) सिद्धांत नव उदारवादी आर्थिकी का मुख्य सिद्धान्त है। 'ट्रिकल डाउन', ‘मैक्सिमम गवर्नेंस मिनिमम गवर्नमेंट जैसी शब्दावलियां अमेरिका की इको-पॉलिटिकल जॉर्गंस और आर्थिक-राजनीतिक लफ़्फ़ाज़ियां हैं जो सरकार द्वारा टैक्स ब्रेक और अन्य आर्थिक लाभों के रुप में विभिन्न व्यवसायों और कार्पोरेटर्स को प्रदान की जाती हैं।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि यह आर्थिक वृद्धि का रास्ता बज़रिए गुड गवर्नेंस ही हमवार होगा। जबकि, सच्चाई इसके उलट है। पारदर्शिता, जो सुशासन की पहली शर्त है, की तरफ़ बिल्कुल आँख मूँद लिया गया। गुड गवर्नेंस याराना पूँजी यानी क्रोनी कैपिटल को फ़ायदा पहुँचाने के लिया श्रम, और पर्यावरण के क़ानूनों की धज्जिया उड़ाई जा रही हैं।
केंद्र में मोदी सरकार के कार्य करते हुए दो सौ से भी ज़्यादा दिन होगाए हैं। निश्चित रूप से, किसी भी सरकार की आर्थिक कारकरदगी के आकलन के लिए यह अवधि प्रयाप्त नहीं है। इसलिए गुड गवर्नेंस की पड़ताल के लिए नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्रीत्व कार्यकाल की समीक्षा ज़्यादा न्यायसंगत है। लेकिन इस बात की चर्चा करना भी ज़रूरी है कि कैसी मोदी सरकार ने सत्ता ग्रहण करते ही अपनों को नवाज़ना शुरू कर दिया। बंदरगाह, बिजली कंपनी और एसईज़ेड कारोबार के लिए अडाणी समूह गुजरात की मोदी सरकार से शानदार सौदा हासिल करने में कामयाब रहा है। इतना ही नहीं राज्य में अपना संयंत्र स्थापित करने वाली अन्य कंपनियों के मुक़ाबले गौतम अडाणी की कम्पनी अडाणी ग्रुप को काफी कम क़ीमत पर ज़मीनें दी गईं। इस कम्पनी को जिस तरीक़े से कौड़ियों के भाव भूमि का आवंटन किया गया है वह मोदी सरकार और क्रोनी पूंजीवाद के बीच के मज़बूत रिश्ते को बतलाता है।
इससे पहले अडाणी ग्रुप को बग़ैर किसी अड़चन के, सुसाशन और गुड गवर्नेंस का डंका पीटने वाली नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने पारदर्शितागवर्नेंस के बुनियादी उसूलको दर किनार करते हुए कच्छ ज़िले के मुन्द्रा ब्लॉक की 6456 हेक्टेयर (15,946.32 एकड़) ज़मीन इसके एसपीसेज़ या एपीएसईज़ेड (अडाणी पोर्ट ऐंड स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन लिमिटेड) प्रोजेक्ट के लिए औने-पौने दामों1 से 32 रूपये प्रति मीटर की दरपर दे दीं। विश्व प्रसिद्ध बिज़नेस पत्रिका फोर्ब्स ने भी खुलासा किया था कि इस समूह को को मात्र एक रुपए प्रति मीटर की दर से कच्छ ज़िले की 14305.49 एकड़ (5.78 करोड़ वर्ग मीटर) जमीनें दी गई हैं।
दिलचस्प यह है कि, जहां अडाणी ग्रुप को इतनी सस्ती कीमतों में ज़मीने दी गईं वहीं अन्य कम्पनियों को इससे कई गुना क़ीमतों पर भूमि का आवंटन किया गया। मिसाल के तौर पर अहमदाबाद के करीब साणंद में, टाटा मोटर्स को 900 रूपये और फ़ोर्ड इण्डिया को 1100 रूपये प्रति मीटर की दर से ज़मीनें दी गईं। वहीं मारुति सुज़ुकी को इसी ज़िले के हंसलपुर में 670 रूपये रूपये प्रति मीटर की दर से; रहेजा कॉर्प, टीसीएस और टॉरेंट पॉवर को क्रमशः 470 रूपये, 1100 रूपये और 6000 रूपये प्रति मीटर की दर से ज़मीनों का आवंटन किया गया।
क़ाबिले ग़ौर है कि वाणिज्य और उद्योग मन्त्रालय के आंकड़ों के अनुसार अडाणी समूह, अब तक, एपीसेज़ के लिए आवंटित भूमि का लगभग आधा हिस्सा ही इस्तेमाल कर सका है। इसने आवंटित 6456 हेक्टेयर भूमि में से सिर्फ़ 3355.24 हेक्टेयर का ही इस्तेमाल किया है जबकि दूसरी कम्पनियों को ऊँची क़ीमतों पर भी भूमि आवंटन के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। यह हक़ीक़त में मोदी और अडाणी के बीच रिश्ते की मज़बूती दिखाता
ध्यान देने योग्य बात यह है कि, अगर हम जोत आकार से किसान समूहों को देखें, तो गुजरात में पिछले दस वर्षों के दौरान, सबसे छोटे जोत वाले किसान समूह के परिवारों की संख्या में वृद्धि तो हुई है साथ ही उनके औसत रक़्बे में भी कमी हुई है। वहीं दूसरी ओर काश्त की ज़मीनों कौड़ियों के भाव देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लुटाती गयी। कच्छ जिले के लखपत तालुका में दीपक सीमेंट्स को चौरासी हेक्टेयर जमीन पांच रुपए प्रति मीटर की दर पर सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई। लॉर्सन ऐंड टुब्रो को 109 हेक्टेयर जमीन दक्षिण गुजरात स्थित सुवाली में सौ रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर पर सरकार द्वारा मुहैया कराई गई। इसी प्रकार, एस्सार समूह को दस हेक्टेयर से ज्यादा गांधीनगर में पांच हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से मिली। रिलायंस जामनगर इंफ्रास्ट्रक्चर को चौदह सौ हेक्टेयर जमीन अस्सी रुपए से लेकर तीन सौ नब्बे रुपए प्रति वर्गमीटर के भाव से दी गई। भरुच स्थित जंबुसार में स्टर्लिंग इंफ्रास्ट्रक्चर ने 577 हेक्टेयर जमीन सत्तावन रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से हथियाई। सुर्खाब बर्ड रिजॉर्ट को बीस हेक्टेयर जमीन ग्यारह रुपए प्रति मीटर के भाव से कच्छ जिले के मांडवी में दी गई। तुलसी बायोसाइंस ने बलसाड के पर्डी इलाके में तीन हेक्टेयर जमीन साढ़े पांच सौ रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से अपने नाम दर्ज कराई। इन सभी ज़मीनों के सौदे पूरी तरह अपारदर्शी, नियम-क़ानूनों को दरकिनार करते हुए किए गए हैं।
ज़मीन की इस लूट से न सिर्फ राजस्व की हानि हुई है बल्कि इसने पर्यावरण को भी बहुत प्रभावित किया है। तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रख कर अडाणी के पॉवर प्लांट को लाइसेंस दिया गया। कमेटी फॉर इंस्पेक्शन ऑफ मेसर्स अडाणी पोर्ट एंड एसईजेड लिमिटेड, मुंदरा, गुजरात की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ कि इसके पॉवर प्लांट की हवा में उडऩेवाली राख यानी फ्लाई ऐश से ज्वरीय वन या मैंग्रोव्स नष्ट हो रहे हैं, कच्छ की संकरी खडिय़ां यानी क्रीक भर रही हैं तथा जल और भूमि का क्षरण हो रहा है। पर्यावरण का यह क्षरण लोगों की रोजी-रोटी पर भारी पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर, कच्छ के मछुआरों का कहना है कि मछली पकड़ने के मौके में लगभग साठ फीसदी की कमी आई है। गुड गवर्नेंस का यह तरीक़ा जहां बड़े उद्योगों के मुनाफा कमाने के अवसरों को बढ़ा रहा है वहीं यह छोटे-छोटे किसानों, मछुआरों और मजदूरों से उनका रोजगार छीन रहा है।
ग़ौरतलब है कि गुजरात में जहां आम लोगों के रोज़ी-रोटी पर संकट है वहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कर अवकाश दिया जा रहा है। किसी भी राज्य का सबसे महत्वपूर्ण राजस्व मूल्यवर्धित कर यानी वैट होता है, लेकिन प्रदेश में हज़ारों करोड़ रूपये की वसूली नहीं की जाती है। सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2007-08 में वहाँ वैट की कुल वसूली 2740 करोड़ रूपये हुई जबकि बकाया राशि 7940 रूपये रही। वर्ष 2011-12 में वसूली महज़ 999 करोड़ हुई जबकि बक़ाया रक़म 19566 करोड़ पहुँच गयी।
अब सवाल उठता है कि अगर प्रदेश में वाक़ई में गुड गवर्नेंस है तो करों की वसूली बढ़नी चाहिए थी। सुशासन का इस्तेमाल आम श्रमिकों और नागरिकों कि आवाज़ दबाने में हुआ है। गुजरात ऐसा सूबा है जहां सबसे ज़्यादा लॉक-आउट्स और हड़तालें हुई हैं मगर फिरभी यह राज्य सबसे ज़्यादा पूँजी आकर्षित कर रहा है। वजह साफ है, पूँजीपतियों को यक़ीन है कि श्रमिक असंतोष की आवाज़ें सुशासन के डंडे से दबा दी जाएंगी। गुड गवर्नेंस की लफ़्फ़ाज़ी का सुनहरा आवरण पूँजी को नफ़ाबख़्श बनाने की है नाकि श्रमिक-मज़दूर और अन्य हाशिये के वर्गों को मजबूत बनाने की।

Tuesday, November 18, 2014

प्रजनन अधिकार के ‘अच्छे दिन’

कहने को तो लैप्रोस्कोपिक टुबिक्टोमी यानी महिला नसबंदी एक साधारण शल्यक्रिया है। लेकिन इसी महिला नसबंदी से छत्तीसगढ़ की बिलासपुर ज़िले की पंद्रह से ज़्यादा महिलाएं असमय काल का ग्रास बन गईं। महिला नसबंदी का यह शिविर बिलासपुर के गांव पेंडरी में निजी चिकित्सा शोध संस्था लगाया गया था। इसके लिए बिलासपुर के आसपास के गांवों से तिरासी महिलाओं को चुना गया था। जिनमें ज़्यादातर बैगा जनजाति की महिलाएं थीं।
हालांकि इस दुर्घटना के कारणों का पता जांच पूरी होने के बाद पता चलेगा। लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि इस घटना के लिए ऑपरेशन की प्रक्रिया में चूक और ऑपरेशन के बाद दी गयी दवा में चूहे मारने की दवा की मिलावट जिम्मेदार है। वैसे भी ये दोनों गड़बड़ियाँ भारतीय चिकित्सा तंत्र का अभिन्न हिस्सा बन चुकीं हैं।
ग़ौरतलब है कि भारत में ऐतहासिक तौर पर जनसंख्या स्थिरिकरण की दो ख़ुसुसियत रही हैं। पहली, जनसंख्या नियंत्रण में टारगेट (लक्ष्य) और इनसेन्टिव (प्रलोभन) का ही बोलबाला रहा है। दूसरे, महिला नसबंदी को ही जनसंख्या स्थिरीकरण का उपाय समझा गया है।
ऐसी खबर है कि स्वास्थ्य कर्मियों ने इन महिलाओं के ऊपर ऑपरेशन करवाने का दबाव बनाया गया। स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें पैसे देने का भी लालच दिया था। नसबंदी के ऑपरेशन के बाद मरने वाली एक महिला के पति ने दावा किया कि एएनएम और महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें झूठा आश्वासन दिया था कि उन्हें मोटी रकम और मुफ्त दवाएं दी जाएंगी। लेकिन उन्हें सिर्फ 30-40 रुपए मिले और कहा गया कि बाकी पैसे आने-जाने और दूसरे इंतजाम में खर्च हो गए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 2013-14 के दौरान 40 लाख नसबंदियां की गई। पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा। नसबंदी के दौरान ग़लत ऑपरेशन से हुई मौतों की बात करें तो 2009 से 2012 के बीच 700 से भी अधिक मौतें हुईं। ऑपरेशन के बाद तबीयत बिगड़ने के 356 मामले सामने आए। इन आंकड़ों के मुताबिक़ हर महीने लगभग 20 औरतें इस ऑपरेशन की बलिवेदिका पर चढ़ा दी जाती हैं। यह तो रही सिर्फ़ सरकारी आंकड़ों की दास्तान। असलियत में तो इससे भी ज़्यादा मौतें होती होंगी।
पृतिसत्तात्मक भारतीय समाज में जनसंख्या स्थिरिकरण की सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं पर आयद है। महिलाओं की रसाई अच्छी और गुणवत्तावाली स्वास्थ्य सेवाओं और अच्छी गर्भनिरोधक सेवाओं तक यक़ीनी बनाए बग़ैर उनके प्रजनन अधिकारों को नियंत्रित किया जा रहा है। देश में ऐसी ख़तरनाक त्रासदियां नियमित रूप से हो रही हैं क्यूंकी भारत ने, जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में, लिंग के प्रति संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को मुकम्मल तौर पर पसे पुश्त डाल दिया है।
चालीस साल पहले, 1974 में, बुखारेस्ट में विश्व जनसंख्या सम्मेलन में डॉ कर्ण सिंह ने कहा था कि—विकास ही सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है यह कथन, दरअस्ल, जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों में पैराडाइम शिफ़्टकी तथा और अधिक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता बल देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रजनन दर को कम करने में व इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने में सामाजिक विकास महति भूमिका है। इस पैराडाइम शिफ़्ट को 1994 में मिस्र की राजधानी काहिरा में जनसंख्या एवं विकास पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (आईसीपीडी) में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन में यह घोषणा की गई थी कि स्वास्थ्य एवं जनसंख्या के लिए नीति निर्माण में लोगों की संख्या या आबादी को केन्द्र बिंदु न मानकर प्रत्येक महिला व पुरूष के टिकाऊ विकास को केन्द्र बिंदु बनाया जाय। इस सम्मेलन में प्रजनन अधिकार पर सहमति बनीं। प्रजनन अधिकार युगल या व्यक्ति के उस मूल अधिकार पर निर्भर करता है जिसमें वो स्वतंत्रता और जिम्मेदारी सहित अपने बच्चों की संख्या, जन्म के बीच अंतराल और समय का निर्णय ले सके और उसे इस कार्य के लिए पर्याप्त जानकारी और माध्यम प्राप्त हो। इसमें सभी को यौन व प्रजनन स्वास्थ्य के उच्च मानदंड़ों की प्राप्ति और प्रजनन में भेदभाव, दबाव व हिंसा के बिना स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार भी शामिल हैं।

भारत भी इस आईसीपीडी का हस्ताक्षरी है। लेकिन बात जब आती है नीतियों के बानने और उनके कार्यावन्यन की तो नवउदारवादी नीतियां जनपक्षीय नीतियों पर भारी पड़ जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं और अनुशंसाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। होता वह है जो इस देश हुक्मरान और नीति नियंता चाहते हैं। देश में आदिवासियों, महिलाओं और हाशिये के लोगों के मूल अधिकारों का हनन होना तो आम बात है। प्रजनन अधिकार के अच्छे दिनतभी आएंगे जब स्वास्थ्य नीति से स्त्रीद्वेषी मानसिकता को निकाल कर फेंक दिया जायेगा। इसके लिए एक बड़ी राजनीतिक लामबंदी की ज़रूरत है।

Sunday, November 2, 2014

यह कैसा दोरंगापन

भारत भले ही विश्व की आर्थिक महा शक्ति बनने के लिए पर तौल रहा हो। लेकिन हाल ही में जारी की गयी यूनिसेफ की रिपोर्ट भारत की बड़ी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुपोषणग्रस्त बच्चों का अनुपात चालीस से पैंतालीस फीसदी के बीच है। दो वर्ष पहले ऐसी ही एक रिपोर्ट—हंगर एंड मैलन्यूट्रीशन रिपोर्ट—जारी करते वक़्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुपोषण को राष्ट्रीय कलंक कहा था। यह अलग बात है कि उनकी सरकार के दस साल के दौरान इस कलंक दूर नहीं किया जा सका। वह भी तब जब देश ने आठ से नौ फीसद की विकास दर हासिल की थी। हमने विकास के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं उन्हें वंचित वर्गों की बेहतरी की कसौटी पर नहीं कसा जाता। आर्थिक संवृद्धि को ही विकास का पर्याय मान लिया गया। बेहतर जीवन और बेहतर बचपन विकास के मानक न बन सके।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययनों और संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्टों ने भारत के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता के साथ-साथ बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर का ग्राफ काफी ऊंचा रहने के तथ्य भी बार-बार जाहिर किए हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि लड़कियों की दशा और भी खराब है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बाद, बालिग होने से पहले लड़कियों को ब्याह देने के मामले दक्षिण में सबसे ज्यादा भारत में होते हैं। मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर का एक प्रमुख कारक कम उम्र इन लड़कियों का माँ बनना है।

भारत ने पच्चीस साल पहले बच्चों के अधिकारों से संबंधित वैश्विक घोषणापत्र—
वर्ल्ड डेक्लेरेशन ऑन द सरवाइवल, प्रॉटेक्शन एंड डेव्लपमेंट ऑफ चिल्ड्रेनपर हस्ताक्षर किया। इसका इतना असर तो यह ज़रूर हुआ कि बच्चों की सेहत, शिक्षा और सुरक्षा को लेकर अनेक सांस्थानिक प्रयास हुए। इसी संदर्भ में कई नए कानून बने, मंत्रालय या विभाग गठित हुए, संस्थाएं और आयोग बने। इन तमाम प्रयासों से कुछ सुधार भी दर्ज हुआ है। पर इसके अलावा कुछ बातें विचलित करने वाली भी हैं। मसलन, देश में हर साल लाखों बच्चे गुम हो जाते हैं। लाखों बच्चे ने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा है। कई उद्योग ऐसे हैं जो सिर्फ बाल श्रम-शोषण से ही फल फूल रहे हैं। इतना ही नहीं, बच्चों के खिलाफ यौन-अपराध की वारदातें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं।

हज़ारों बच्चे ह्यूमन ट्रैफिकिंग के शिकार होते हैं। नोबल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी के अध्ययन इक्नॉमिक्स बिहाइंड फोर्स्ड लेबर ट्रैफिकिंग के अनुसार क़रीब 3 मिलियन लड़कियां ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार बनती हैं। उन्हें ज़बरदस्ती वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि यह तीन मिलियन का आंकड़ा सिर्फ़ उन लड़कियों का है जो रेड लाइट एरिया का हिस्सा बन जाती हैं और यौन-व्यापार में डाल दी जाती हैं। अगर इनमें डांस बार और मसाज पॉर्लर जैसे अन्य अवैध धंधों में पहुंचाई गई लड़कियों को जोड़ दें तो यह संख्या 6 से 9 मिलियन हो जाती है। बाल यौन व्यापार का एक घिनौना और अवैध बाज़ार सरगर्म है।
उल्लेखित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैफिकिंग का शिकार बनने वाले लोगों में बालिकाओं की ज़्यादा कीमत है। वजह साफ है, ये बालिकाएँ वयस्क महिलाओं की अपेक्षा लंबे समय तक बाज़ार के लिए कारामद होती हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ देश का यह बाल यौन बाज़ार 343 बिलियन डॉलर का है। इस बाज़ार से काफ़ी लोग मसलन ट्रैफिकिंग करने वाले, सेठ-साहूकार, प्रवर्तन अधिकारियों की फ़ौज, पुलिस के अहलकार, वकील आदि लोग मोटी रकम बनाते हैं। उक्त रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकारी अधिकारियों (प्रवर्तन अधिकारियों) ने इस बाल यौन शोषण से 34 बिलियन डॉलर बनाए तो वहीं वकीलों और अदालत से संबन्धित लोगों ने  51.5 बिलयन डॉलर की आमदनी की।

ग़ौरतलब है कि सिर्फ दिल्ली जैसे शहर में तक़रीबन 36 लाख बच्चे विभिन्न प्लेसमेंट एजन्सियों के ज़रिए घरेलू नौकर के तौर पर इस व्यापार में धकेल दिये गए जहां उनका दैहिक और मानसिक शोषण आम है। पूरे दिल्ली में लगभग ऐसी तीन हज़ार प्लेसमेंट एजन्सियां हैं। ध्यान देने लायक़ बात यह है कि अगर सिर्फ दिल्ली ही में 36 लाख बाल मज़दूर हैं तो इस बात का मोटा-मोटा अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पूरे देश में कितने होंगे।
ये आंकड़े यही दर्शाते हैं कि उचित व्यवस्था के अभाव में लाखों बच्चों का कितना वीभत्स  मानसिक-शारीरिक शोषण हो रहा है। ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए सांस्थानिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। लेकिन ये सारे प्रयास या तो आधे-अधूरे मन से किए जा रहे हैं—कार्यान्वन को लेकर मजबूत इच्छाशक्ति का अभाव है। या तो इन प्रयासों या क़ानून का फॉर्मूलेशन इतना दोषपूर्ण हैं कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे हैं। गड़बड़ी कैसी भी हो, गाज तो गिरती है बेचारे बच्चों पर—जिनका बचपन असमय ही छिन जाता है।
इस दिशा में, बाल आयोग बनाने जैसे भले ही अच्छे प्रयास किए गए हों मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। बच्चों की सुरक्षा और उनके मौलिक अधिकार की बातें महज़ कागजों की शोभा बन कर रह गयी हैं। दरहक़ीक़त किसी भी सामाजिक बुराई से लड़ने में सरकारी अथवा सांस्थानिक प्रयास ज़रूरी हैं; लेकिन इन बुराई से निजात पाने के लिए व्यक्ति और समाज पर भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ आयद होती हैं। समाज बच्चों को सुरक्षा और उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में नाकाम रहा है। उनकी शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में ढकेला जाता रहा है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है।

हाँ इतना ज़रूर है कि मध्य वर्गीय के बच्चों पर हुई अत्याचार की घटनाएँ कभी-कभी हमें उद्वेलित करती हैं। लेकिन समाज के निम्नतम तबक़े के बच्चों पर होने वाले अत्याचार के बारे में हम अंजान बने रहते हैं। कुछ दिन पहले जब बंगलुरु के एक आभिजात्य स्कूल में एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना सामने आई, तो समाज में सिहरन पैदा हुई। लेकिन आम बच्चों की हालत पर खामोशी छा जाती है। हमें अपनी संतानों के प्रति काफी प्रबल मोह है, मगर दूसरी ओर, बच्चों के प्रति संवेदनशीलता अत्यंत कम है। वंचित तबक़ों के बच्चों के प्रति तो बाकी समाज का रवैया अमूमन असहिष्णु ही है। आखिर यह कैसा दोरंगापन है!


(डीएनए  हिन्दी में 1 नवम्बर 2014, को प्रकाशित 'यह कैसा दोरंगापन')

Saturday, October 25, 2014

इबोला वाइरस और बीमार स्वास्थ्य तंत्र

पिछले कई महीनों से मौत का पर्याय बनी इबोला बीमारी का तांडव अभी ख़त्म नहीं हुआ है। चिंताजनक बात यह है कि इबोला की केस फैटलिटि रेट यानी संक्रमण से मृत्यु दर 70 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है और पिछले एक महीने के अंदर हर सप्ताह में इसके क़रीब 10,000 नए मामले सामने आए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 15 अक्तूबर तक इबोला से मरने वाले लोगों की संख्या 4,493 हो गई हैं। इनमें से लगभग सभी लोग पश्चिमी अफ्रीका के हैं। ऐसे मामलों की कुल संख्या 8,997 है। डबल्यूएचओ ने यह भी चेताया है कि अगर इबोला से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो दुनिया को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
इबोला बीमारी इस वर्ष के शुरूवात में गिनी कोनाकरी, और उसके बाद लाइबेरिया, सिएरालोन और नाइजीरिया में फैली। विश्वप्रसिद्ध ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के अनुसार इन चार देशों के अलावा माली, आइवरी कोस्ट, सेनेगल, गिनी-बिसाउ, बेनिन, कैमरून, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, कांगों, घाना, साउथ सूडान, मॉरितानिया, टोगो और बुर्किना फासो सहित 14 ऐसे देश हैं जहां इस बीमारी के प्रकोप का आसन्न ख़तरा है।
इस बीमारी की रोकथाम और मरीजों को सहायता पहुंचाने में डब्ल्यूएचओ की टीम और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं लगी हुई है। जो वास्तव में एक सराहनीय कार्य है। लेकिन वहीं ये संस्थाएं इस इबोला संकट के लिए इन अफ़्रीकी देशों को ही ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के दक्षिण अफ्रीका के अध्यक्ष और सिएरा लियोन में अगस्त से सितंबर तक काम करने वाले शैरोन एकामबरम ने एक इंटरव्यू में रोष प्रकट करते हुए कहा, ऐसे समय में डब्ल्यूएचओ अफ्रीका कहां है? अफ्रीकी यूनियन कहां है? विकटिम ब्लेमिंग का यह तरीक़ा नवउदारवादी व्यवस्था की ही देन है जिसमे स्वास्थ्य को बृहत वैश्विक आर्थिक-राजनीतिक संदर्भों से काट करके देखा जाता है।
ग़ौरतलब है कि इबोला के शिकार अफ़्रीक़ी देशों में स्वास्थ्य-तंत्र अत्यंत चरमराया हुआ है। सदियों तक पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे इन मुल्कों के संसाधनों का व्यापक दोहन किया गया। कालांतर में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने इनको निर्धनता के गर्त में धकेल कर छोड़ दिया गया। नतीजतन संसाधनों की भारी कमी सुदृढ़ स्वास्थ्य तंत्र और चिकित्सा प्रणाली खड़ा करने में हमेशा आड़े आती रही है। रही सही कोर-कसर इन मुल्कों के हुक्मरानों की घुटनाटेकू नीतियों ने पूरी की। अस्सी और नव्वे के दशक में इन अफ़्रीक़ी देशों ने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ की सुझाई गयी नीतियों के तहत नवउदारवादी नीतियों को आंगीकार कर लिया। संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (एसएपी) के तहत स्वास्थ्य बजट में भारी कटौती की गई और उपयोग शुल्क (यूज़र चार्ज) की शुरूवात जैसे अन्य कई कदम उठाए गए। सार्वजनिक सेवाओं का बजट भी लगातार कम किया जाता रहा जिससे सार्वजनिक सेवाएं और स्वास्थ्य तंत्र कमजोर होता गया। इन देशों की सरकारों ने प्राथमिक और निवारक स्वास्थ्य सेवाओं से अपने हाथ खींच ही लिए हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली क़रीब क़रीब ख़त्म हो चुकी है। मसलन नाइजीरिया के लोगों को अपने स्वास्थ्य पर जो भी ख़र्च करना पड़ता है उसका लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा नागरिकों को स्वयं अपनी जेब वहन करना पड़ता है। प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के अभाव में इबोला ही नहीं अन्य संचारी रोग इन मुल्कों पर समय समय पर अपना क़हर ढाते रहते हैं।
इतना ही नहीं, जिसकी तरफ ईवान ईलीच ने अपनी किताब लिमिट्स टू मेडिसिन में इशारा किया है कि मौजूदा पूंजीवादी-नवउदारवादी व्यवस्था में, स्वास्थ्य का अधिक से अधिक तकनीकीकरण होता जा रहा है। स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक राज्य/सरकार की प्राथमिकता सूची से ग़ायब हैं। चूंकि रोग नियंत्रण कोई मुनाफे वाला सौदा नहीं है इसीलिए निजी कंपनियों का सारा ध्यान तकनीकी (औषधि) विकास में है नाकि बीमारियों के रोक थाम में। वहीं एसएपी के तहत सरकार निवारक उपाय (प्रिवेंटिव मेज़र्स) में साल-दर-साल कम ख़र्च कर रही है। ज़ाहिर है जिससे रोगों से बचाव का तंत्र विकसित ही नहीं हो पाया।
दूसरी ओर, अफ्रीका में आर्थिक नवउदारवादी नीतियों ने पूरे स्वास्थ्य तंत्र को प्रभावित किया है। आम नागरिकों की स्वास्थ्य सेवाओं तक की पहुँच को सीमित कर दिया है। नवउदारवादी आर्थिकी पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं में स्वास्थ्य भी एक वस्तु या उत्पाद है। सो लोग इन प्रॉडक्ट्स पर खर्च करें और इन्हें खरीद लें। मतलब यह कि यह एक व्यक्तिगत मामला है। राज्य की यह ज़िम्मेदारी नहीं कि वह लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं की समान पहुँच सुनिश्चित कराए। अलबत्ता ऐसा माना जाता है कि बाज़ार इतनी सक्षम है कि वह सेवाओं को लोगों की क्रयशक्ति के अनुसार उपलब्ध करा देगी। लिहाज़ा सरकार का ध्यान स्वास्थ्य अवसंरचना विकसित न करके कुछ ऐसा करना होता है कि ऐसी व्यवस्था बने कि लोग ख़ुद-ब-ख़ुद इन प्रॉडक्ट्स को ख़रीदना शुरू कर दें—उनके बीच इफेक्टिव डिमांड पैदा करना सरकार का काम है। स्वास्थ्य तंत्र का विकास तो सरकार की प्राथमिकता सूची से ही ग़ायब है।
इन अफ़्रीक़ी देशों के हालात से भारत को सबक़ भी लेना होगा कि कैसे नवउदारवाद ने स्वास्थ्य तंत्र को प्रभावित किया है। क्यूंकी इस बीमारी से पार पाने के लिए सुव्यवस्थित, मज़बूत और सुसंगत स्वास्थ्य-तंत्र पहली आवश्यकता है फिर उसके बाद कोई अन्य चीज़।

Monday, September 22, 2014

हाशिये की संस्कृति

मराठी की मशहूर कहावत हैऊँची ज़ात के लोगों के पास इल्म होता है, किसानों के पास अनाज, लेकिन अछूतों (अस्पृश्यों) के पास उनके गीत होते हैं। लेकिन सीतम ज़रीफ़ी यह है कि जब कभी कला और संस्कृति की बात आती है तो हाशिये के लोगों की संस्कृति का कोई ज़िक्र नहीं होता; मुख्य धारा की ही संस्कृति ही हावी हो जाती है—यही मेन डिसकोर्स का सब्जेक्ट बनती है। लोक कला दूसरे दर्जे की चीज़ समझी जाती है। कमोबेश यही हक़ीक़त मुस्लिम संस्कृति की भी है।

याह आम प्रवृति है कि मुसलमानों की बात करते हुए मुस्लिम समाज के भीतर मौजूद स्तरीकरण को नज़रअंदाज कर दिया जाता है। मुसलमानों को एक एकाश्म (मोनोलिथ) समुदाय समझा जाता है। हक़ीक़त तो यह है कि ऐतिहासिक रूप से मुस्लिम-अल्पसंख्यक वर्ग भी कई हिस्सों में बंटा हुआ है और स्वयं इस वर्ग के भीतर अगड़े और पिछड़े मुस्लिम जैसी श्रेणियां हैं। अगड़े मुस्लिमों को अशराफ़ और दलित या पिछड़े मुस्लिमों को पसमान्दा कहते है। मुस्लिम समुदाय के इस स्तरीकरण को कभी इरादतन तो कभी ग़ैर-इरादतन नज़अंदाज किया जाता है। हालांकि, सच्चर कमेटी नें मुस्लिम समाज के भीतर के स्तरीकरण को भली भांति संस्कृतिसमझा। सच्चर कमेटी रिपोर्ट का दसवाँ अध्याय मुस्लिम वर्ग के भीतर जाति-गत बँटवारे और भेदभाव का अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इस रिपोर्ट में कहा गया की मुस्लिमों की तीन श्रेणियां हैं: पहली श्रेणी में अशराफ़ हैं—वे जिनमें कोई सामाजिक अपंगता नहीं है। दूसरी में अजलाफ़’—वे जो हिन्दू ओबीसी के समतुल्य हैं। तीसरी में अर्ज़ाल हैं—वे जो हिन्दू एससी के समतुल्य हैं। वे जो मुस्लिम ओबीसी (या, पसमान्दा) से संबोधित किए जाते हैं दूसरे और तीसरे समूह को मिला कर हैं।

जिस तरह अंतोनियो ग्राम्शी ने पूंजीवाद व्यवस्था के प्रसार-प्रचार के लिए 'सांस्कृतिक अधिनायकवाद' को दोषी माना है। ठीक उसी तरह, मुस्लिम समाज में जातिवाद और पुरोहितवाद के लिए तब्क़-ए-अशराफ़िया (ऊंची ज़ात ओ हसब-नसब वाले मुसलमानों) की सांस्कृतिक अधिनायकवादभी, एक हद तक, ज़िम्मेदार है। मुख्यधारा की मुस्लिम संस्कृतिख़ास कर के प्रदर्शन कलाओं या परफॉर्मिंग आर्ट्सको, अक्सर, क़व्वाली, ग़ज़लगोई, दास्तानगोई, मुशायरा, शेर-ओ-शायरी, क़िरअत व फ़न-ए-ख़त्ताती आदि से जाना जाता है। इस संस्कृति का संस्थानीकरण मस्जिद-मज़ार-ख़ानक़ाह के ज़रिये होता है। क़ाबिले ग़ौर है कि शाही मस्जिदोंकी इमामत व मज़ारों की मुजावरी पर तब्क़-ए-अशराफ़िया (उच्च जाति/वर्ग) के कुटुम्ब विशेष का ही क़ब्ज़ा होता है जो पुश्त-दर-पुश्त चलता रहता है। इस तरह यह वर्ग अशराफ़ियासामाजिक मूल्यों और सांस्कृतिक प्रतीकों को अपने विमर्श में मनमाना रूप देकरइन संस्थाओं और मुस्लिम समाज पर अपने वर्चस्व को और भी मज़बूत करता है। दूसरी ओर, हाशिये के मुसलमानों (पसमान्दा मुसलमानों) की संस्कृति व सक़ाफ़त का कोई ज़िक्र नहीं, मसलन, नक़्क़ालों की मसख़री, भांटों की कहानियों, बक्खो के गीत, मीरशिकार के क़िस्सों, नटों और कलाबाजों की कलाबाज़ियों का मेनस्ट्रीम मुस्लिम कल्चर में कोई स्थान नहीं। यहाँ तक कि आधुनिक सामाजिक-इतिहासकारों, सामाजिक-मानवशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों ने भी मुस्लिम संस्कृति के विमर्श में मुख्यधारा की मुस्लिम (अशराफ़) संस्कृति को ही स्थान दिया है। मिसाल के तौर, पर हाल ही प्रकाशित होने वाली बरजोर अवारी (2013) की पुस्तक इस्लामिक सिविलाइज़ेशन इन साउथ एशियामें भारतीय उपमहाद्वीप की मुस्लिम संस्कृति को सिर्फ क़व्वाली, ग़ज़ल और मुशायरा वग़ैरा से मनसूब किया है; पसमान्दा मुसलमानों की संस्कृति तो सिरे से ग़ायब ही दिखी।


इस तरह सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक संस्थाओं और यहाँ तक कि मुस्लिम समाज पर अशराफ़िया का आधिपत्य सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों की भी देन होता है। चुनाँचे, समाजिक ग़ैर-बराबरी व सामाजिक विषमता की खाई को पाटने के प्रयास में और मुस्लिम समाज के आंतरिक लोकतांत्रिकरण के लिए, एक समानांतर संस्कृति का विकास और हाशिये संस्कृति को मुख्य धारा मे लाना भी ज़रूरी होगा।