कहने को तो लैप्रोस्कोपिक टुबिक्टोमी यानी महिला
नसबंदी एक साधारण शल्यक्रिया है। लेकिन इसी महिला नसबंदी से छत्तीसगढ़ की बिलासपुर ज़िले
की पंद्रह से ज़्यादा महिलाएं असमय काल का ग्रास बन गईं। महिला नसबंदी का यह शिविर बिलासपुर
के गांव पेंडरी में निजी चिकित्सा शोध संस्था लगाया गया था। इसके लिए बिलासपुर के आसपास
के गांवों से तिरासी महिलाओं को चुना गया था। जिनमें ज़्यादातर बैगा जनजाति की महिलाएं
थीं।
हालांकि इस दुर्घटना के कारणों का पता जांच पूरी होने के बाद
पता चलेगा। लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि इस घटना के लिए ऑपरेशन की प्रक्रिया में चूक
और ऑपरेशन के बाद दी गयी दवा में चूहे मारने की दवा की मिलावट जिम्मेदार है। वैसे भी
ये दोनों गड़बड़ियाँ भारतीय चिकित्सा तंत्र का अभिन्न हिस्सा बन चुकीं हैं।
ग़ौरतलब है कि भारत में ऐतहासिक तौर पर जनसंख्या स्थिरिकरण
की दो ख़ुसुसियत रही हैं। पहली, जनसंख्या नियंत्रण में ‘टारगेट’ (लक्ष्य) और ‘इनसेन्टिव’ (प्रलोभन) का ही बोलबाला
रहा है। दूसरे, महिला नसबंदी को ही जनसंख्या स्थिरीकरण का उपाय समझा गया
है।
ऐसी खबर है कि स्वास्थ्य कर्मियों ने इन महिलाओं के ऊपर ऑपरेशन
करवाने का दबाव बनाया गया। स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें पैसे देने का भी लालच दिया
था। नसबंदी के ऑपरेशन के बाद मरने वाली एक महिला के पति ने दावा किया कि एएनएम और महिला
स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें झूठा आश्वासन दिया था कि उन्हें मोटी रकम और मुफ्त दवाएं
दी जाएंगी। लेकिन उन्हें सिर्फ 30-40 रुपए मिले और कहा गया कि बाकी पैसे आने-जाने और
दूसरे इंतजाम में खर्च हो गए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 2013-14 के दौरान 40 लाख
नसबंदियां की गई। पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा। नसबंदी के दौरान
ग़लत ऑपरेशन से हुई मौतों की बात करें तो 2009 से 2012 के बीच 700 से भी अधिक मौतें
हुईं। ऑपरेशन के बाद तबीयत बिगड़ने के 356 मामले सामने आए। इन आंकड़ों के मुताबिक़
हर महीने लगभग 20 औरतें इस ऑपरेशन की बलिवेदिका पर चढ़ा दी जाती हैं। यह तो रही
सिर्फ़ सरकारी आंकड़ों की दास्तान। असलियत में तो इससे भी ज़्यादा मौतें होती होंगी।
पृतिसत्तात्मक भारतीय समाज में जनसंख्या स्थिरिकरण की सारी
ज़िम्मेदारी महिलाओं पर आयद है। महिलाओं की रसाई अच्छी और गुणवत्तावाली स्वास्थ्य
सेवाओं और अच्छी गर्भनिरोधक सेवाओं तक यक़ीनी बनाए बग़ैर उनके प्रजनन अधिकारों को
नियंत्रित किया जा रहा है। देश में ऐसी ख़तरनाक त्रासदियां नियमित रूप से हो रही
हैं क्यूंकी भारत ने, जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में, लिंग के प्रति
संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं
को मुकम्मल तौर पर पसे पुश्त डाल दिया है।
चालीस साल पहले, 1974 में, बुखारेस्ट में विश्व जनसंख्या सम्मेलन में डॉ कर्ण सिंह ने कहा
था कि—“विकास ही सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है” यह कथन, दरअस्ल, जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों में ‘पैराडाइम शिफ़्ट’ की तथा और अधिक
संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता बल देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रजनन दर को
कम करने में व इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने में सामाजिक विकास महति भूमिका है। इस पैराडाइम
शिफ़्ट को 1994 में मिस्र की राजधानी काहिरा में जनसंख्या एवं विकास पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय
सम्मेलन (आईसीपीडी) में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन में यह घोषणा की गई थी कि स्वास्थ्य
एवं जनसंख्या के लिए नीति निर्माण में लोगों की संख्या या आबादी को केन्द्र बिंदु न
मानकर प्रत्येक महिला व पुरूष के टिकाऊ विकास को केन्द्र बिंदु बनाया जाय। इस
सम्मेलन में प्रजनन अधिकार पर सहमति बनीं। प्रजनन अधिकार युगल या व्यक्ति के उस मूल
अधिकार पर निर्भर करता है जिसमें वो स्वतंत्रता और जिम्मेदारी सहित अपने बच्चों की
संख्या, जन्म के बीच अंतराल
और समय का निर्णय ले सके और उसे इस कार्य के लिए पर्याप्त जानकारी और माध्यम प्राप्त
हो। इसमें सभी को यौन व प्रजनन स्वास्थ्य के उच्च मानदंड़ों की प्राप्ति और प्रजनन
में भेदभाव, दबाव व हिंसा
के बिना स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार भी शामिल हैं।
भारत भी इस आईसीपीडी का हस्ताक्षरी है। लेकिन बात जब आती है
नीतियों के बानने और उनके कार्यावन्यन की तो नवउदारवादी नीतियां जनपक्षीय नीतियों पर
भारी पड़ जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं और अनुशंसाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया
जाता है। होता वह है जो इस देश हुक्मरान और नीति नियंता चाहते हैं। देश में आदिवासियों, महिलाओं और हाशिये
के लोगों के मूल अधिकारों का हनन होना तो आम बात है। प्रजनन अधिकार के ‘अच्छे दिन’ तभी आएंगे जब
स्वास्थ्य नीति से स्त्रीद्वेषी मानसिकता को निकाल कर फेंक दिया जायेगा। इसके लिए एक
बड़ी राजनीतिक लामबंदी की ज़रूरत है।
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