Wednesday, November 14, 2012

मुस्लिम अभ्यर्थियों के लिए 5 डेप्रीवेशन पॉइंट


वामपंथियों का कांग्रेसी पैंतरा

जेएनयू कैंपस में इन दिनों मुस्लिम अभ्यर्थियों को प्रवेश परीक्षाओं में 5 डेप्रीवेशन पॉइंट देने के लिए वामपंथियों के सभी संस्करण — अल्ट्रा-माओइस्ट  से लेकर संशोधनवादी-नवअवतरित वामपंथी छात्रसंगठन — कमरबंद हैं।  मज़ेदार बात तो यह है कि, इस क़िस्म के प्रोपोज़ल को लाने में सबसे पहले वह संगठन संगठन पेश-पेश था जिसका मानना था [है] कि स्कूल विशेष के ख़ास सम्प्रदायों के छात्रों को कहीं भी हांक कर लाया जा सकता है। सितम ज़रीफ़ी तो देखिये कि अब कैंपस के सारे संगठन इस मफ़रूज़े को अमल में लाने के लिए इस क़दर उत्साहित हैं कि वे इस बात को भूल गए हैं कि जेएनयू भारतीय संविधान परे नहीं है! अब सवाल यह है कि क्या वाक़ई में सारे संगठन इस हक़ीक़त से नावाक़िफ़ हैं या फिर मुसलमानों को बहलाने का कांग्रेसी नुस्ख़ा अपना रहे हैं?? इतना तो तय है कि, हमारे कॉमरेड इतने अज्ञानी नहीं हैं कि उनको इस बात की जानकारी न हो धर्म के आधार पर किसी क़िस्म का पॉज़िटिव डिस्क्रिमिनेशन न तो संवैधानिक और क़ानूनी तौर मुमकिन है और न ही सामाजिक न्याय के पैमाने पर उचित। तो फिर ये सारे हरबे सिर्फ़ कांग्रेसी पैंतरेबाज़ी नहीं तो और क्या है??

सभी के लिए 5 डेप्रीवेशन पॉइंट — समता और सामाजिक न्याय के पैमाने पर अनुचित तथा संवैधानिक रूप से अव्यावहारिक है

सामाजिक न्याय की तमामतर अवधारणाओं में, प्रसिद्ध अमेरिकी दार्शनिक जॉन राल्स की अवधारणा, शायद, सबसे प्रभावशाली है और इसको ख़ास अहमियत मिली है; अमर्त्य सेन भी अपने सामाजिक न्याय के नज़रिए में  जॉन राल्स से काफी हद तक इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। राल्स के मुताबिक़ सबसे ज़्यादा वंचित व्यक्ति/समूह को सबसे अधिक लाभ मिलना चाहिए (जिससे कि, ख़राब स्थिति वालों को बेहतर स्थिति वालों के बराबर किया जा सके, मतलब यह कि, किसी भी प्रकार के लाभ के वितरण में ख़राब स्थिति वालों को ज़्यादा देना।) इतना तो साफ़ है  — और सामाजिक सच्चाई भी — कि मुस्लिम समाज हाईरेरिकल और जातिगत रूप से उतना ही असमान है जितना कि हिन्दू समाज। मुस्लिम को एक मोनोलिथ सोसाइटी समझना एक समाजशास्त्रिय ग़लती है। इसलिए सामाजिक न्याय व समता की दृष्टि से यह ज़रूरी है कि जो जितना ही ज़्यादा वंचित हो — उसे किसी क़िस्म के पॉज़िटिव डिस्क्रिमिनेशन का — उतना ही अधिक लाभ मिलना चाहिए।

मौजूदा संविधान के मुताबिक़ धर्म के आधार पर कोई भी पॉज़िटिव डिस्क्रिमिनेशन (आरक्षण) नहीं दिया जा सकता। आरक्षण का आधार केवल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है। तो धर्म के आधार पर किसी क़िस्म  आरक्षण असंविधानिक होगा, इसी आधार पर आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट सहित उच्चतम न्यायालय ने अल्पसंख्यकों के साढ़े चार प्रतिशत के आरक्षण को ख़ारिज कर दिया था। अदालत का कहना था कि यह सब-कोटा देने का फैसला धार्मिक वजहों से लिया गया था। इसके पीछे और कोई आधार नहीं था। साथ ही कोर्ट ने ये भी कहा की धर्म के आधार पर आरक्षण संविधान के ख़िलाफ़ है। तो फिर मुस्लिमों के लिए 5 डेप्रीवेशन पॉइंट की मांग करना मात्र छलावा नहीं तो क्या है? उसूलन तो होना यह चाहिए कि, कैंपस की सारी छात्र बिरादरी, ख़ासकर प्रोग्रेसिव फ़्रेटरनिटी को पिछड़े/पसमांदा मुसलमानों को उनके हक़ और इंसाफ़ दिलाने के लिए आगे आना चाहिए और इसके लिए ऐसी हिकमत-ए-अमली अख़तियार करनी चाहिए कि 5 डेप्रीवेशन पॉइंट का मुद्दा वाक़ई में क्लिंच हो जाए नाकि सिर्फ़ थोथरी बातें व बेकार की लफ्फ़ाज़ी..

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