दो दिन क़ब्ल, मुल्क में तमाम मानाये जाने वालों यौम—यौमे आज़ादी, यौमे जम्हूरियत, यौमे ख़वातीन, यौमे बुज़ुर्गान—की शृंखला में यौमे इत्फ़ाल मनाया गया. मगर हक़ीक़त यह है कि यह 'यौम' भी तमाम दूसरे यौम के मानिंद सिर्फ़ एक रस्म अदायिगी भर था. दरहक़ीक़त, इत्फ़ाल का ताल्लुक़ मुल्क की तरक़्क़ी से है क्योँ कि यही इत्फ़ाल आगे चल कर मुल्क का एक अहम वसायल-इंसानी वसायल बनते हैं. नोबल प्राईज़ याफ़्ता माहिरे इक़्तसादियात गैरी बेकर की तमामतर तस्नीफ़ात इस बात की ताईद करती हैं कि कैसे इंसानी वसायल (बज़रिये तालीम-ओ-तरबियत) मुल्क-ओ-क़ौम की तरक़्क़ी के लिए निहायत ही ज़रूरी हैं. मगर साल-दर-साल ख़राब रिकार्ड के बावजूद यह शओबा अदम तवज्जही का शिकार है. सरकार सिर्फ़ आरटीई पास कर के अपना पल्ला झाड़ लेती है, जो की एक अलग बहस का मुद्दा है. हमारा मुल्क दुनिया के सबसे ज़्यादा पांच साल से कम उम्र के बच्चों की शरह-ए-अमवात वाले मुल्कों में से एक है. हर बीस सेकंड में पांच बरस से कम उम्र का एक बच्चा हमारी सरज़मीन पर फ़ौत हो जाता है. और इस मुल्क के हुक्मरान ऐसे हैं कि ख़्वाब-ए-ग़फ़लत से बेदार होने को तैयार नहीं है. अभी चंद रोज़ पहले मग़रबी बंगाल के अस्पतालों में मासूम बच्चों की हलाकत का सानेहा गुज़रा है. और यह मसला सिर्फ़ मग़रबी बंगाल का ही नहीं, बल्कि पूरे मुल्क का है. अगर मुल्क में मौजूद हेल्थ सिस्टम की ज़ुबुंहाली का तजज़िया किया जाए तो एक अजीब अफ़सोसनाक हक़ीक़त की दर्याफ़्त होती है. पब्लिक हेल्थ सिस्टम दोनों—तिब्बी और बह-तिब्बी अहलकारों की कामी से जूझ रहे हैं. अठ्ठारह फ़ीसद अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं, अड़तीस फ़ीसदी अस्पताल बिना किसी लैबोरेटरी टेक्नीशियन के काम कर रहे हैं और सोलह फ़ीसदी अस्पतालों में फार्मेसिस्ट तक नहीं हैं. स्पेशलिस्ट डाक्टरों की तो और भी कमी है, तकरीबन पचास फ़ीसद से भी ज़्यादा अस्पतालों में स्पेशलिस्ट डाक्टर नहीं हैं. और जहाँ तक सेहत-ए-आम्मा में सरकारी ख़र्च का मसला है तो उसमे भी हमारा मुल्क सबसे पीछे है, 2004-05 के आंकड़े बताते हैं की सेहत पर जीडीपी का एक फ़ीसदी से भी कम (0.97%) ख़र्च होता है. आलमी इदारा-ए-सेहत (डब्ल्यू एच ओ) का कहना है कि हिन्दुस्तानी शहरियों में 70 फ़ीसद ऐसे हैं जो अपनी पूरी आमदनी दवा और इलाज-ओ-मुआल्जा पर सर्फ़ करने को मजबूर हैं. ज़ाहिर है इन में अक्सरियत उन लोगों कि है जो बेचारे बेहद ग़रीब हैं. अगर हुकूमत एहसान फ़रामोशी न करे और बिलख़ुसूस जिन लोगों के बल बूते पर एक़तदार हासिल करती है करती है उनकी दादरसी की सिर्फ़ ये फ़िक्र कर लिया करे कि उन्हें पीने का साफ़ पानी, खाने-पीने के लिए मुतावाज़िन ग़िज़ा और रहने को साफ़ सुथरे माहौल में एक मकान की ज़मानत दे दे तो उन बीमारियों के लाहिक़ होने का ख़तरा ही टल जाएगा जो ग़ुरबतज़दह अवाम को भयानक ख़्वाब की तरह डराती रहती है. मगर रोना तो इसी बात का है. हुसूले आज़ादी के तिरसठ साल बाद भी हमारे मुल्क के बहुतेरे ईलाक़ों में पीने का साफ़ पानी है न बिजली, सड़कें हैं न अस्पताल, अलबत्ता मफ़ादपरस्ती और ज़रपरस्ती हर जगह है.
बच्चों की नाक़िस गिज़ाईयत को कम करना मुल्क के लिए एक बड़ा चैलेन्ज बन गया है. हिन्दुस्तान एक ऐसा वाहिद मुल्क है जहाँ के बच्चों में नाक़िस गिज़ाईयत का बार सबसे ज़्यादा है; और तो और, सब-सहारा मुल्कों से भी ज़्यादा है. तक़रीबन साठ मिलियन बच्चे कम वज़न हैं; पचास फ़ीसद से भी ज़्यादा एनीमिया का शिकार हैं; और भी पचास फ़ीसद से भी ज़ायद बच्चे किसी भी तरह की हिफाज़तकारी से इस्तसना हैं. इंटरनेश्नल फ़ूड पॉलिसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (IFPRI) की हालिया जारी करदा रिपोर्ट 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) 2011' के मुताबिक़ 112 मुल्कों में हमारी पोज़िशन 67वीं है. हमारी पोज़िशन अपने जनूबी एशियाई पड़ोसियों-पाकिस्तान, श्रीलंका और चीन और सब-सहारा मुल्कों- रवांडा, लाईबेरिया, जबूती, मोज़ाम्बीक और सूडान से नीचे है. और जहाँ तक, नाक़िस गिज़ाईयत का मसला है तो माहीरेने गिज़ा बरुन और रूएल अपने मुताले में इस नतीजे तक पहुंचे के हिन्दुस्तान की पोज़ीशन, बच्चों की नाक़िस गिज़ाईयत के एतबार से 2006 में 119 मुल्कों में से 117 वीं थी मतलब कि नीचे से तीसरी पोज़ीशन.
बच्चों की हलाकत, ताग्ज़ियाह का मसला और बच्चा मज़दूरी ऐसे बुनयादी मसायेल हैं जिन से नित नए मसायेल पैदा होते रहते हैं और हुकूमत चंद एक मसायेल को भी हल नहीं कर पाती. बच्चों की तरफ़ से इस की लापरवाही का यह हाल है कि रज़ाकार तंज़ीमें मौक़ा-ब-मौक़ा आवाज़ न उठाएं तो इलाज मुआलिजा के नाम पर ग़रीबों को वह भी न मिले जो कभी कभार भीख के टुकड़ों की तरह मिल जाता है. भूक ओ ग़ुरबत के बारे में सोचिये तो अफ्रीक़ी मुल्कों का तसव्वुर उभरता है लेकिन ग़ौर कीजिए हम तो उनसे भी गए गुज़रे हैं!
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