Monday, May 25, 2015

नीति का पाखण्ड

अर्थनीति से संबन्धित क़िस्सों-कहानियों में यह कहानी काफी मशहूर है कि एक बार मार्गरेट थैचर ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों व सहयोगियों के समक्ष मिल्टन फ्रीडमैन की एक किताब फेंकी और उसे पढ़ने के लिए कहा। उस किताब में एक बुनियादी सबक़ थामौद्रिकवाद यानी मोनेटरिज़्म का सबक़। फ्रीडमैन के सिद्धांत पर थैचर मंत्रिमंडल ने अमल-दर-आमद किया हो या न किया लेकिन मुल्क की मौजूदा मोदी सरकार पिछले एक साल के कार्यकाल में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन करती हुई दिखती है।
मिल्टन फ़्रीडमैन मौद्रिकवाद के मुख्य प्रणेता रहे हैं। वस्तुतः मौद्रिकवाद वह वैचारिकी है जो यह मानती है कि किसी भी अर्थव्यवस्था में दीर्घावधि में होने वाली मनी सप्लाई या धनापूर्ति और आर्थिक गतिविधियों के बीच गहरा संबंध है। आर्थिक संवृद्धि के लिए धनापूर्ति उत्तरदायी है। मौद्रिक नीतियों के कार्यान्वयन मात्र से ही अर्थव्यवस्था को सही दिशा दी जा सकती है। अब चूंकि धनापूर्ति, धन के परिसंचरण और फैलाव की रफ़्तार का काम देश के केंद्रीय बैंक यानी रिज़र्व बैंक के ज़िम्मे है। इसलिए आर्थिक संवृद्धि में सरकार की भूमिका गौण हो जाती है। क़िस्सा कोताह यह कि सरकार को अपनी भूमिका महज़ नियामक और समन्वयक तक ही सीमित रखनी चाहिए। संप्रग की पिछली दो सरकारों ने भी अपनी भूमिका को नियामक और समन्वयक तक तक सीमित रखने का पूरा प्रयास किया। मोदी सरकार इस प्रयास को पूरी शिद्दत के साथ तेज़ रफ़्तारी से सरअंजाम दे रही है।
ग़ौरतलब है कि मौद्रिकवाद न तो आय के वितरण पर ध्यान देता और न ही प्रभावी मांग की ओर। इसके बरक्स सरकारें राजकोषीय नीतियों का प्रयोग करके अर्थव्यवस्था में, काफी हद तक, प्रभावी मांग पैदा कर सकती हैं और आर्थिक मंदी के भंवर से निकाल सकती हैं ऐसा जॉन मेयनार्ड कीन्स का मानना था। राजकोषीय नीति का मतलब है सरकार अपने ख़ज़ाने से क्या और कैसे ख़र्च करना चाहती है। ज़ाहिर है सरकार इन ख़र्चों को या तो अपने राजस्व या टैक्स से पूरा करती है या उधार लेती है। इसी नीति के आधार पर तय किया जाता है कम टैक्स लगा कर उद्यमशीलता को बढ़ावा दिया जाए या टैक्स का दायरा बढ़ा कर लोकोपकारी परियोजनाएँ चलायी जाएँ जिससे आमदनी का समतामूलक पुनर्वितरण किया जा सके। अस्तु सरकार की राजकोषीय नीति उसकी प्राथमिकताओंसमतामूलक समाज का निर्माण या उद्यमशीलताको दिखाती है।
मोदी सरकार मेक इन इंडिया अभियान जारी रखे हुए है। यह अभियान बुनियादी तौर पर निर्यात-आधारित है। विश्व अर्थव्यवस्था में गहराती मंदी के भी संकेत मिल रहे हैं। चीन की विकास दर 10 प्रतिशत से घट कर 7 प्रतिशत पर आ गई है। जापान लम्बे समय से मन्दी की चपेट में है। ऐसे परिदृश्य में फ़ोकस घरेलू मांग के बढ़ाने पर होनी चाहिए। राजकोषीय उपायों से प्रभावी मांग पैदा करने की आवश्यकता है। सरकार कोई भी अग्रसक्रिय क़दम उठाने के बजाए अपने पैर पीछे खींच रही है।
विगत वर्ष सरकार का सारा ध्यान राजकोषीय घाटे को कम करने में ही रहा है। सरकार ने अपने बजट में व्यापक कटौती की। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में यह कटौती 16.54 प्रतिशत तक बैठती है। मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फ़ायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। इसके बहुआयामी विकास योगदान देखते हुए इसने 2014 की वर्ल्ड डेव्लपमेंट रिपोर्ट में इसे ग्रामीण विकास की दरख़्शां मिसाल (स्टेलर एक्ज़ैंपल ऑफ़ रूरल डेव्लपमेंट) की संज्ञा दी है। लेकिन सरकार मनरेगा के दायरे को भी सिकोड़ रही है। इतना ही नहीं ग्रामीण विकास की अन्य योजनाओं में भी 10 प्रतिशत तक की कटौती की गयी है। ज़ाहिर है अगर इन सामाजिक क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश किया जाता तो इसका बहुआयामी फ़ायदा होतामानव पूंजी का निर्माण तो ही, साथ में, इफ़ेक्टिव डिमांड भी पैदा होती।
इस कटौती को मोदी सरकार अच्छा प्रदर्शनबताती है। सरकार 2014-15 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4 प्रतिशत पर सीमित रखने में कामयाबी हासिल हुई है। इसको वित्त मंत्रालय राजकोषीय मजबूती के प्रति प्रतिबद्धताऔर बुद्धिमतापूर्ण नीतियोंका नतीजा बता रही है। एक तरफ़ तो राजकोषीय घाटा कम करने की बात कही जा रही है तो दूसरी ओर कॉर्पोरेट जगत को खुले हाथों से टैक्स में राहत दी जा रही है। यह नीति का पाखण्ड नहीं तो और क्या है?

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