Tuesday, November 18, 2014

प्रजनन अधिकार के ‘अच्छे दिन’

कहने को तो लैप्रोस्कोपिक टुबिक्टोमी यानी महिला नसबंदी एक साधारण शल्यक्रिया है। लेकिन इसी महिला नसबंदी से छत्तीसगढ़ की बिलासपुर ज़िले की पंद्रह से ज़्यादा महिलाएं असमय काल का ग्रास बन गईं। महिला नसबंदी का यह शिविर बिलासपुर के गांव पेंडरी में निजी चिकित्सा शोध संस्था लगाया गया था। इसके लिए बिलासपुर के आसपास के गांवों से तिरासी महिलाओं को चुना गया था। जिनमें ज़्यादातर बैगा जनजाति की महिलाएं थीं।
हालांकि इस दुर्घटना के कारणों का पता जांच पूरी होने के बाद पता चलेगा। लेकिन ऐसा कहा जा रहा है कि इस घटना के लिए ऑपरेशन की प्रक्रिया में चूक और ऑपरेशन के बाद दी गयी दवा में चूहे मारने की दवा की मिलावट जिम्मेदार है। वैसे भी ये दोनों गड़बड़ियाँ भारतीय चिकित्सा तंत्र का अभिन्न हिस्सा बन चुकीं हैं।
ग़ौरतलब है कि भारत में ऐतहासिक तौर पर जनसंख्या स्थिरिकरण की दो ख़ुसुसियत रही हैं। पहली, जनसंख्या नियंत्रण में टारगेट (लक्ष्य) और इनसेन्टिव (प्रलोभन) का ही बोलबाला रहा है। दूसरे, महिला नसबंदी को ही जनसंख्या स्थिरीकरण का उपाय समझा गया है।
ऐसी खबर है कि स्वास्थ्य कर्मियों ने इन महिलाओं के ऊपर ऑपरेशन करवाने का दबाव बनाया गया। स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें पैसे देने का भी लालच दिया था। नसबंदी के ऑपरेशन के बाद मरने वाली एक महिला के पति ने दावा किया कि एएनएम और महिला स्वास्थ्य कर्मियों ने उन्हें झूठा आश्वासन दिया था कि उन्हें मोटी रकम और मुफ्त दवाएं दी जाएंगी। लेकिन उन्हें सिर्फ 30-40 रुपए मिले और कहा गया कि बाकी पैसे आने-जाने और दूसरे इंतजाम में खर्च हो गए।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक़ भारत में 2013-14 के दौरान 40 लाख नसबंदियां की गई। पुरुषों के मामले में यह आंकड़ा एक लाख से भी कम रहा। नसबंदी के दौरान ग़लत ऑपरेशन से हुई मौतों की बात करें तो 2009 से 2012 के बीच 700 से भी अधिक मौतें हुईं। ऑपरेशन के बाद तबीयत बिगड़ने के 356 मामले सामने आए। इन आंकड़ों के मुताबिक़ हर महीने लगभग 20 औरतें इस ऑपरेशन की बलिवेदिका पर चढ़ा दी जाती हैं। यह तो रही सिर्फ़ सरकारी आंकड़ों की दास्तान। असलियत में तो इससे भी ज़्यादा मौतें होती होंगी।
पृतिसत्तात्मक भारतीय समाज में जनसंख्या स्थिरिकरण की सारी ज़िम्मेदारी महिलाओं पर आयद है। महिलाओं की रसाई अच्छी और गुणवत्तावाली स्वास्थ्य सेवाओं और अच्छी गर्भनिरोधक सेवाओं तक यक़ीनी बनाए बग़ैर उनके प्रजनन अधिकारों को नियंत्रित किया जा रहा है। देश में ऐसी ख़तरनाक त्रासदियां नियमित रूप से हो रही हैं क्यूंकी भारत ने, जनसंख्या वृद्धि के संदर्भ में, लिंग के प्रति संवेदनशील और मानवीय दृष्टिकोण अपनाने की अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं को मुकम्मल तौर पर पसे पुश्त डाल दिया है।
चालीस साल पहले, 1974 में, बुखारेस्ट में विश्व जनसंख्या सम्मेलन में डॉ कर्ण सिंह ने कहा था कि—विकास ही सबसे अच्छा गर्भनिरोधक है यह कथन, दरअस्ल, जनसंख्या नियंत्रण की नीतियों में पैराडाइम शिफ़्टकी तथा और अधिक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता बल देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रजनन दर को कम करने में व इसके लिए अनुकूल माहौल बनाने में सामाजिक विकास महति भूमिका है। इस पैराडाइम शिफ़्ट को 1994 में मिस्र की राजधानी काहिरा में जनसंख्या एवं विकास पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (आईसीपीडी) में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन में यह घोषणा की गई थी कि स्वास्थ्य एवं जनसंख्या के लिए नीति निर्माण में लोगों की संख्या या आबादी को केन्द्र बिंदु न मानकर प्रत्येक महिला व पुरूष के टिकाऊ विकास को केन्द्र बिंदु बनाया जाय। इस सम्मेलन में प्रजनन अधिकार पर सहमति बनीं। प्रजनन अधिकार युगल या व्यक्ति के उस मूल अधिकार पर निर्भर करता है जिसमें वो स्वतंत्रता और जिम्मेदारी सहित अपने बच्चों की संख्या, जन्म के बीच अंतराल और समय का निर्णय ले सके और उसे इस कार्य के लिए पर्याप्त जानकारी और माध्यम प्राप्त हो। इसमें सभी को यौन व प्रजनन स्वास्थ्य के उच्च मानदंड़ों की प्राप्ति और प्रजनन में भेदभाव, दबाव व हिंसा के बिना स्वतंत्र निर्णय लेने का अधिकार भी शामिल हैं।

भारत भी इस आईसीपीडी का हस्ताक्षरी है। लेकिन बात जब आती है नीतियों के बानने और उनके कार्यावन्यन की तो नवउदारवादी नीतियां जनपक्षीय नीतियों पर भारी पड़ जाती हैं। अंतरराष्ट्रीय घोषणाओं और अनुशंसाओं को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। होता वह है जो इस देश हुक्मरान और नीति नियंता चाहते हैं। देश में आदिवासियों, महिलाओं और हाशिये के लोगों के मूल अधिकारों का हनन होना तो आम बात है। प्रजनन अधिकार के अच्छे दिनतभी आएंगे जब स्वास्थ्य नीति से स्त्रीद्वेषी मानसिकता को निकाल कर फेंक दिया जायेगा। इसके लिए एक बड़ी राजनीतिक लामबंदी की ज़रूरत है।

Sunday, November 2, 2014

यह कैसा दोरंगापन

भारत भले ही विश्व की आर्थिक महा शक्ति बनने के लिए पर तौल रहा हो। लेकिन हाल ही में जारी की गयी यूनिसेफ की रिपोर्ट भारत की बड़ी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में कुपोषणग्रस्त बच्चों का अनुपात चालीस से पैंतालीस फीसदी के बीच है। दो वर्ष पहले ऐसी ही एक रिपोर्ट—हंगर एंड मैलन्यूट्रीशन रिपोर्ट—जारी करते वक़्त तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कुपोषण को राष्ट्रीय कलंक कहा था। यह अलग बात है कि उनकी सरकार के दस साल के दौरान इस कलंक दूर नहीं किया जा सका। वह भी तब जब देश ने आठ से नौ फीसद की विकास दर हासिल की थी। हमने विकास के जो प्रतिमान स्थापित किए हैं उन्हें वंचित वर्गों की बेहतरी की कसौटी पर नहीं कसा जाता। आर्थिक संवृद्धि को ही विकास का पर्याय मान लिया गया। बेहतर जीवन और बेहतर बचपन विकास के मानक न बन सके।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययनों और संयुक्त राष्ट्र की मानव विकास रिपोर्टों ने भारत के बच्चों में कुपोषण की व्यापकता के साथ-साथ बाल मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर का ग्राफ काफी ऊंचा रहने के तथ्य भी बार-बार जाहिर किए हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट बताती है कि लड़कियों की दशा और भी खराब है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बाद, बालिग होने से पहले लड़कियों को ब्याह देने के मामले दक्षिण में सबसे ज्यादा भारत में होते हैं। मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर का एक प्रमुख कारक कम उम्र इन लड़कियों का माँ बनना है।

भारत ने पच्चीस साल पहले बच्चों के अधिकारों से संबंधित वैश्विक घोषणापत्र—
वर्ल्ड डेक्लेरेशन ऑन द सरवाइवल, प्रॉटेक्शन एंड डेव्लपमेंट ऑफ चिल्ड्रेनपर हस्ताक्षर किया। इसका इतना असर तो यह ज़रूर हुआ कि बच्चों की सेहत, शिक्षा और सुरक्षा को लेकर अनेक सांस्थानिक प्रयास हुए। इसी संदर्भ में कई नए कानून बने, मंत्रालय या विभाग गठित हुए, संस्थाएं और आयोग बने। इन तमाम प्रयासों से कुछ सुधार भी दर्ज हुआ है। पर इसके अलावा कुछ बातें विचलित करने वाली भी हैं। मसलन, देश में हर साल लाखों बच्चे गुम हो जाते हैं। लाखों बच्चे ने अभी तक स्कूल का मुंह नहीं देखा है। कई उद्योग ऐसे हैं जो सिर्फ बाल श्रम-शोषण से ही फल फूल रहे हैं। इतना ही नहीं, बच्चों के खिलाफ यौन-अपराध की वारदातें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं।

हज़ारों बच्चे ह्यूमन ट्रैफिकिंग के शिकार होते हैं। नोबल पुरस्कार से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी के अध्ययन इक्नॉमिक्स बिहाइंड फोर्स्ड लेबर ट्रैफिकिंग के अनुसार क़रीब 3 मिलियन लड़कियां ह्यूमन ट्रैफिकिंग का शिकार बनती हैं। उन्हें ज़बरदस्ती वेश्यावृति में धकेल दिया जाता है। उल्लेखनीय है कि यह तीन मिलियन का आंकड़ा सिर्फ़ उन लड़कियों का है जो रेड लाइट एरिया का हिस्सा बन जाती हैं और यौन-व्यापार में डाल दी जाती हैं। अगर इनमें डांस बार और मसाज पॉर्लर जैसे अन्य अवैध धंधों में पहुंचाई गई लड़कियों को जोड़ दें तो यह संख्या 6 से 9 मिलियन हो जाती है। बाल यौन व्यापार का एक घिनौना और अवैध बाज़ार सरगर्म है।
उल्लेखित रिपोर्ट के अनुसार ट्रैफिकिंग का शिकार बनने वाले लोगों में बालिकाओं की ज़्यादा कीमत है। वजह साफ है, ये बालिकाएँ वयस्क महिलाओं की अपेक्षा लंबे समय तक बाज़ार के लिए कारामद होती हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ देश का यह बाल यौन बाज़ार 343 बिलियन डॉलर का है। इस बाज़ार से काफ़ी लोग मसलन ट्रैफिकिंग करने वाले, सेठ-साहूकार, प्रवर्तन अधिकारियों की फ़ौज, पुलिस के अहलकार, वकील आदि लोग मोटी रकम बनाते हैं। उक्त रिपोर्ट यह भी बताती है कि सरकारी अधिकारियों (प्रवर्तन अधिकारियों) ने इस बाल यौन शोषण से 34 बिलियन डॉलर बनाए तो वहीं वकीलों और अदालत से संबन्धित लोगों ने  51.5 बिलयन डॉलर की आमदनी की।

ग़ौरतलब है कि सिर्फ दिल्ली जैसे शहर में तक़रीबन 36 लाख बच्चे विभिन्न प्लेसमेंट एजन्सियों के ज़रिए घरेलू नौकर के तौर पर इस व्यापार में धकेल दिये गए जहां उनका दैहिक और मानसिक शोषण आम है। पूरे दिल्ली में लगभग ऐसी तीन हज़ार प्लेसमेंट एजन्सियां हैं। ध्यान देने लायक़ बात यह है कि अगर सिर्फ दिल्ली ही में 36 लाख बाल मज़दूर हैं तो इस बात का मोटा-मोटा अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि पूरे देश में कितने होंगे।
ये आंकड़े यही दर्शाते हैं कि उचित व्यवस्था के अभाव में लाखों बच्चों का कितना वीभत्स  मानसिक-शारीरिक शोषण हो रहा है। ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए सांस्थानिक प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। लेकिन ये सारे प्रयास या तो आधे-अधूरे मन से किए जा रहे हैं—कार्यान्वन को लेकर मजबूत इच्छाशक्ति का अभाव है। या तो इन प्रयासों या क़ानून का फॉर्मूलेशन इतना दोषपूर्ण हैं कि बाल अधिकारों को संरक्षण नहीं दे पा रहे हैं। गड़बड़ी कैसी भी हो, गाज तो गिरती है बेचारे बच्चों पर—जिनका बचपन असमय ही छिन जाता है।
इस दिशा में, बाल आयोग बनाने जैसे भले ही अच्छे प्रयास किए गए हों मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। बच्चों की सुरक्षा और उनके मौलिक अधिकार की बातें महज़ कागजों की शोभा बन कर रह गयी हैं। दरहक़ीक़त किसी भी सामाजिक बुराई से लड़ने में सरकारी अथवा सांस्थानिक प्रयास ज़रूरी हैं; लेकिन इन बुराई से निजात पाने के लिए व्यक्ति और समाज पर भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ आयद होती हैं। समाज बच्चों को सुरक्षा और उत्तम सुविधाएं देने की अपेक्षाओं के पालन में नाकाम रहा है। उनकी शिक्षा-दीक्षा की उपेक्षा कर उन्हें ऐसे कामों में ढकेला जाता रहा है जो उनके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य पर कुप्रभाव डालने वाला साबित हुआ है।

हाँ इतना ज़रूर है कि मध्य वर्गीय के बच्चों पर हुई अत्याचार की घटनाएँ कभी-कभी हमें उद्वेलित करती हैं। लेकिन समाज के निम्नतम तबक़े के बच्चों पर होने वाले अत्याचार के बारे में हम अंजान बने रहते हैं। कुछ दिन पहले जब बंगलुरु के एक आभिजात्य स्कूल में एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना सामने आई, तो समाज में सिहरन पैदा हुई। लेकिन आम बच्चों की हालत पर खामोशी छा जाती है। हमें अपनी संतानों के प्रति काफी प्रबल मोह है, मगर दूसरी ओर, बच्चों के प्रति संवेदनशीलता अत्यंत कम है। वंचित तबक़ों के बच्चों के प्रति तो बाकी समाज का रवैया अमूमन असहिष्णु ही है। आखिर यह कैसा दोरंगापन है!


(डीएनए  हिन्दी में 1 नवम्बर 2014, को प्रकाशित 'यह कैसा दोरंगापन')