Tuesday, November 15, 2011

यौमे इत्फ़ाल

दो दिन क़ब्ल, मुल्क में तमाम मानाये जाने वालों यौमयौमे आज़ादी, यौमे जम्हूरियत, यौमे ख़वातीन, यौमे बुज़ुर्गानकी शृंखला में यौमे इत्फ़ाल मनाया गया. मगर हक़ीक़त यह है कि यह 'यौम' भी तमाम दूसरे यौम के मानिंद सिर्फ़ एक रस्म अदायिगी भर था. दरहक़ीक़त, इत्फ़ाल का ताल्लुक़ मुल्क की तरक़्क़ी से है क्योँ कि यही इत्फ़ाल आगे चल कर मुल्क का एक अहम वसायल-इंसानी वसायल बनते हैं. नोबल प्राईज़ याफ़्ता माहिरे इक़्तसादियात गैरी बेकर की तमामतर तस्नीफ़ात इस बात की ताईद करती हैं कि कैसे इंसानी वसायल (बज़रिये तालीम--तरबियत) मुल्क--क़ौम की तरक़्क़ी के लिए निहायत ही ज़रूरी हैं. मगर साल-दर-साल ख़राब रिकार्ड के बावजूद यह शओबा अदम तवज्जही का शिकार है. सरकार सिर्फ़ आरटीई पास कर के अपना पल्ला झाड़ लेती है, जो की एक अलग बहस का मुद्दा है. हमारा मुल्क दुनिया के सबसे ज़्यादा पांच साल से कम उम्र के बच्चों की शरह--अमवात वाले मुल्कों में से एक है. हर बीस सेकंड में पांच बरस से कम उम्र का एक बच्चा हमारी सरज़मीन पर फ़ौत हो जाता है. और इस मुल्क के हुक्मरान ऐसे हैं कि ख़्वाब--ग़फ़लत से बेदार होने को तैयार नहीं है. अभी चंद रोज़ पहले मग़रबी बंगाल के अस्पतालों में मासूम बच्चों की हलाकत का सानेहा गुज़रा है. और यह मसला सिर्फ़ मग़रबी बंगाल का ही नहीं, बल्कि पूरे मुल्क का है. अगर मुल्क में मौजूद हेल्थ सिस्टम की ज़ुबुंहाली का तजज़िया किया जाए तो एक अजीब अफ़सोसनाक हक़ीक़त की दर्याफ़्त होती है. पब्लिक हेल्थ सिस्टम दोनोंतिब्बी और बह-तिब्बी अहलकारों की कामी से जूझ रहे हैं. अठ्ठारह फ़ीसद अस्पतालों में डाक्टर नहीं हैं, अड़तीस फ़ीसदी अस्पताल बिना किसी लैबोरेटरी टेक्नीशियन के काम कर रहे हैं और सोलह फ़ीसदी अस्पतालों में फार्मेसिस्ट तक नहीं हैं. स्पेशलिस्ट डाक्टरों की तो और भी कमी है, तकरीबन पचास फ़ीसद से भी ज़्यादा अस्पतालों में स्पेशलिस्ट डाक्टर नहीं हैं. और जहाँ तक सेहत--आम्मा में सरकारी ख़र्च का मसला है तो उसमे भी हमारा मुल्क सबसे पीछे है, 2004-05 के आंकड़े बताते हैं की सेहत पर जीडीपी का एक फ़ीसदी से भी कम (0.97%) ख़र्च होता है. आलमी इदारा--सेहत (डब्ल्यू एच ) का कहना है कि हिन्दुस्तानी शहरियों में 70 फ़ीसद ऐसे हैं जो अपनी पूरी आमदनी दवा और इलाज--मुआल्जा पर सर्फ़ करने को मजबूर हैं. ज़ाहिर है इन में अक्सरियत उन लोगों कि है जो बेचारे बेहद ग़रीब हैं. अगर हुकूमत एहसान फ़रामोशी करे और बिलख़ुसूस जिन लोगों के बल बूते पर एक़तदार हासिल करती है करती है उनकी दादरसी की सिर्फ़ ये फ़िक्र कर लिया करे कि उन्हें पीने का साफ़ पानी, खाने-पीने के लिए मुतावाज़िन ग़िज़ा और रहने को साफ़ सुथरे माहौल में एक मकान की ज़मानत दे दे तो उन बीमारियों के लाहिक़ होने का ख़तरा ही टल जाएगा जो ग़ुरबतज़दह अवाम को भयानक ख़्वाब की तरह डराती रहती है. मगर रोना तो इसी बात का है. हुसूले आज़ादी के तिरसठ साल बाद भी हमारे मुल्क के बहुतेरे ईलाक़ों में पीने का साफ़ पानी है बिजली, सड़कें हैं अस्पताल, अलबत्ता मफ़ादपरस्ती और ज़रपरस्ती हर जगह है.

बच्चों की नाक़िस गिज़ाईयत को कम करना मुल्क के लिए एक बड़ा चैलेन्ज बन गया है. हिन्दुस्तान एक ऐसा वाहिद मुल्क है जहाँ के बच्चों में नाक़िस गिज़ाईयत का बार सबसे ज़्यादा है; और तो और, सब-सहारा मुल्कों से भी ज़्यादा है. तक़रीबन साठ मिलियन बच्चे कम वज़न हैं; पचास फ़ीसद से भी ज़्यादा एनीमिया का शिकार हैं; और भी पचास फ़ीसद से भी ज़ायद बच्चे किसी भी तरह की हिफाज़तकारी से इस्तसना हैं. इंटरनेश्नल फ़ूड पॉलिसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (IFPRI) की हालिया जारी करदा रिपोर्ट 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स (GHI) 2011' के मुताबिक़ 112 मुल्कों में हमारी पोज़िशन 67वीं है. हमारी पोज़िशन अपने जनूबी एशियाई पड़ोसियों-पाकिस्तान, श्रीलंका और चीन और सब-सहारा मुल्कों- रवांडा, लाईबेरिया, जबूती, मोज़ाम्बीक और सूडान से नीचे है. और जहाँ तक, नाक़िस गिज़ाईयत का मसला है तो माहीरेने गिज़ा बरुन और रूएल अपने मुताले में इस नतीजे तक पहुंचे के हिन्दुस्तान की पोज़ीशन, बच्चों की नाक़िस गिज़ाईयत के एतबार से 2006 में 119 मुल्कों में से 117 वीं थी मतलब कि नीचे से तीसरी पोज़ीशन.

बच्चों की हलाकत, ताग्ज़ियाह का मसला और बच्चा मज़दूरी ऐसे बुनयादी मसायेल हैं जिन से नित नए मसायेल पैदा होते रहते हैं और हुकूमत चंद एक मसायेल को भी हल नहीं कर पाती. बच्चों की तरफ़ से इस की लापरवाही का यह हाल है कि रज़ाकार तंज़ीमें मौक़ा--मौक़ा आवाज़ उठाएं तो इलाज मुआलिजा के नाम पर ग़रीबों को वह भी मिले जो कभी कभार भीख के टुकड़ों की तरह मिल जाता है. भूक ग़ुरबत के बारे में सोचिये तो अफ्रीक़ी मुल्कों का तसव्वुर उभरता है लेकिन ग़ौर कीजिए हम तो उनसे भी गए गुज़रे हैं!

Monday, October 17, 2011

भूख-ओ-इफ़्लास का सामराज

अभी ख़त--इफ़्लास (पावर्टी लाईन) के सतह की अज़-सरे-नौ तारीफ़ करने पर मंसूबाबंदी कमीशन (प्लानिंग कमीशन) और सरकार की लै-दै और किरकिरी हो ही रही थी कि इंटरनेश्नल फ़ूड पॉलिसी एंड रिसर्च इंस्टिट्यूट (इफ़्प्री) की हालिया जारी करदा रिपोर्ट 'ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) 2011', नाक़ाबू अफ़्लास--भूख फैलाव पर, एक बार फिर, सरकार की नाकरदगी और नाकामयाबी को उजागर करती है.

हालिया जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक़ इंडिया 23.7 के जीएचआई स्कोर के साथ ओवरआल रैंकिंग में अपने जनूबी एशियाई पड़ोसियों-पाकिस्तान, श्रीलंका और चीन से नीचे है. मुल्क की ख़ुराकी ज़मानत की सूरतेहाल को देखते ही इफ़्प्री ने इसे (23.7 के स्कोर को) "अलार्मिंग" (ख़तरनाक) के ज़ुमुरे में रखा है. दुनिया के बदतरीन ख़ुराकी ज़मानत वाले 81 मुमालिक में इसकी 67 वीं पोज़िशन है. इसका मतलब यह है कि सिर्फ़ दुनिया में14 ही मुल्क ऐसे हैं जिनके लोगों की गिज़ाई हैसियत (न्यूट्रीशनल लेविल) हम से बदतर है.

भूख की पैमाईश के लिए माहीरीन--इक़तसादियात (एकोनोमिस्ट्स) मुख्तलिफ़ इंडिकेटर का इस्तेमाल करते हैं. और चूँकि भूख को मुख्तलिफ़ नुक़त--नज़र और ज़ावियों से देखा जा सकता है चुनांचे इफ़्प्री ने भूख की कसीर-उल-इबाद फ़ितरत को ध्यान में रखते हुए एक ऐसे इंडेक्स की तश्कील की जो भूख के ज़्यादा से ज़्यादा डाईमेंशंस की अक़क़ासी कर सके. इसके लिए इसने जीएचआई (ग्लोबल हंगर इंडेक्स) का तस्ववुर पेश किया. यह इंडेक्स तीन इंडिकेटरकम गिज़ाईयत (अंडरनरिश्मेंट; बच्चों का कमवज़न; और बच्चों के मौत की शरहको बराबर वज़न देते हुए यकजा करता है.

पहला इंडिकेटर, अंडरनरिश्मेंट का है जो जो नाकाफ़ी कैलोरी पर इक्तिफ़ा कर रहे लोगों की सतह बताता है इसकी पैमाइश गिज़ा की कमी से दो-चार हो रहे लोगों का पूरी आबादी में फ़ीसदी तनासुब (परसेंटेज) निकाल कर की जाती है. इससे मुताल्लिक़ डेटा और दीगर जानकारी इदारा बराए ख़ुराक--ज़रा'अत (एफ़एओ) मुहय्या करता है.
दूसरा इंडिकेटर, बच्चों को मिलने वाली कम और नाकाफ़ी गिज़ाईयत की अक्क़ासी करता है. और इसकी पैमाइश, पांच साल से कम, कम-वज़न (बशमूल वेस्टिंगउम्र के लिहाज़ से कम वज़न, स्टटिंगउम्र के लिहाज़ से कम लम्बाई या दोनों) बच्चों का तनासुब निकाल कर की जाती है. और इसका डाटा बेस आलमी इदारा--सेहत (डब्ल्यूएचओ), इक़वाम--मोत्ताहेदा का फंड बराए अत्फ़ाल (यूनीसेफ) और मुख्तलिफ़ सेहत--शुमारियत आबादी के सर्वे पर मुश्तमिल है.
और तीसरा इंडिकेटर, नाकाफ़ी गिज़ा और नासालिम माहौल की मोहलिक हमकारी की अक्क़ासी करता है. और इसकी पैमाइश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों का शरह--अमवात (U-5 मोर्टेलिटी रेट) का इस्तेमात करते हैं. इससे वाबस्ता तमाम जानकारियां डेटा भी यूनीसेफ मुहय्या कराता है.

भूख की यह कसीर-उल-इबाद (मल्टीडाइमेन्शनल) वज़ाहत, कई मामलों में, कई फ़ाइदे फ़राहम करता है. मसलन, यह सिर्फ़ पूरी आबादी को ध्यान में रखता है बल्कि जिस्मानी तौर से आसेब पज़ीर जमातबच्चों, जिनको गिज़ा की कमी की वजह से ज़्यादा बीमारी का ख़तरा, ख़राब जिस्मानी--दिमाग़ी तरक्क़ी और मौत का ख़तरा लाहिक़ होता हैको भी ध्यान में रखता है. इसके अलावा यह इन आज़ाद इक्दामात इंडिकेटर को मिलाकर पैमाशी ग़लती के असरात को भी कम कर देता है. जीएचआई मुल्कों को 100 पॉइंट के पैमाने पर रैंक करता है. सिफ़र (0) सबसे अच्छा स्कोर है जिसका मतलब है भूख कि ग़ैर-मौजूदगी, और सौ (100) सबसे ख़राब स्कोर है जिसका मतलब है सिर्फ़ भूख ही भूख का सामराज. हालांकि, हक़ीक़ी अम्ल में ये दोनों इन्तहा नहीं पाए जाते.

इफ़्प्री मुल्कों को, उनके जीएचआई स्कोर के मुताबिक़ पांच ज़ुमुरों में तक़सीम करता है. पहले ज़ुमुरे में वो मुमालिक आते हैं जिनका जीएचआई स्कोर 4.9 से कम ("लो") है. इसको कम सतह के स्कोर से मंसूब करते हैं. मतलब यह कि, इस ज़ुमुरे में आने वाले मुल्कों में भूख का फैलाव कम है और इनकी गिज़ाई ज़मानत काफ़ी अच्छी है. दूसरे ज़ुमुरे में आने वाले मुल्कों का जीएचआई स्कोर 5 से 9.9 के बीच है. जीएचआई की यह सतह, इफ़्प्री के मुताबिक़, मो'तदिल ("मोडरेट") है. इसका मतलब ये हुआ कि, इस ज़ुमुरे में आने वाले वो मुमालिक हैं जहाँ भूख का तसल्लुत अभी कुछ कम है. मिसाल के तौर पर, मारीशस, चीन, त्रिनिदाद और टोबैगो और किरगिज़तान वग़ैरह. तीसरा ज़ुमुरा, इफ़्प्री के लफ़्ज़ों में, संगीन ("सीरियस") है. इसमे आने वाले वो मुमालिक हैं जिनका जीएचआई स्कोर 10 से 19.9 के बीच है. ये वो मुल्क हैं जहाँ भूख का तसल्लुत अब एक संगीन मोड़ ले चुका है. मसलन, विएतनाम, बोलिविया, बोत्स्वाना, युगांडा और केन्या वग़ैरह. चौथा दायरा उन मुल्कों का है जिनके जीएचआई स्कोर 20 से 29.9 के बीच हैं. इस ज़ुमुरे को इफ़्प्री, ख़तरनाक ("अलार्मिंग") नाम देता है. ये वो मुमालिक हैं जहाँ भूख एक मोहलिक परेशानी बन गयी है और गिज़ाई ज़मानत निहायत ही बदतर हालत में है. इंडिया, चाड, हैती, बुरुंडी, और अंगोला जैसे मुमालिक इस ज़ुमरे में जगह पाते हैं. और, आख़िरी, पांचवा ज़ुमुरा उन मुल्कों की नुमाइंदगी करता है जिनके जीएचआई स्कोर 30 से ज़्यादा हैं. इस ज़ुमुरे की, बहुत ही ख़तरनाक ("इक्सट्रीमली अलार्मिंग") के नाम से दर्जाबंदी की गयी है. ये वो मुमालिक हैं जहां भूख के हालात बहुत ही ख़तरनाक हैं या यूँ कहें की भूख का फैलाव क़ाबू से बाहर हो गया है. इस ज़ुमुरे में आनेवाला सिर्फ़ एक ही मुल्क है जोकि डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ़ कॉम्बो है.

इस साल यानि के 2011 में इंडिया का जीएचआई स्कोर 24.7 है जब कि ठीक दस बरस क़ब्ल यह स्कोर 24.1 था, मतलब साफ़ है कि इन दस सालों में भूख का फैलाव कम होने के बजाय, एक हद तक वसीअ'तर होता गया है. दूसरी तरफ़ सरकारी दावे कुछ और ही राग अलाप रहे हैं. इनके दावों के मुताबिक़ मुल्क ने भूख के मसअले को हल करने में क़ाबिल--तवज्जेह तरक्क़ी की है. एनएसएसओ के डेटा इस बात को दिखा रहे हैं कि अहलेख़ाना के भूख की सतह में काफ़ी कमी आई है, जो 1983 में 17.3 से घट कर 2004-05 में 2.5 के सतह पर पहुँच गया. जबकि हक़ीक़त कुछ और ही है. इफ़्प्री और सरकारी तख्मीने में तनाक़िज़--गड़बड़ी की दो वजूहातें हैं. पहली यह कि, एनएसएसओ से भूख की जो शरह निकाली जा रही है वह अहलेख़ाना (हाउस-होल्ड) के सतह पर है जबकि इफ़्प्री अपने जीएचआई में भूख की शरह को इन्फ़रादी (इन्डिवीजुअल) सतह पर कैल्क्यूलेट करता है. दूसरी यह कि, एनएसएसओ भूख से मुतअल्लिक जो डेटा इकठ्ठा करता है वो ख़ुद-ख़याल (सेल्फ-परसेप्शन) की बिना पर होता है. और जो भी कोई दिन भर में सिर्फ़ दो वक़्त खाना पा रहा हैबिना गिज़ाई अहमियत की परवाह कियेवह भूख के शिकंजे से बाहर समझा जाएगा. और वह लोग जिनको कभी मुतानासिब गिज़ा ही मिली हो वह अपनी गिज़ा और भूख का अंदाज़ा कैसे लगा सकते हैं! साइंटिफिक तौर पर वह भूख का शिकार होते हुए भी वे लोग इसको पहचान नहीं पाते, या अमर्त्य सेन के लफ़्ज़ों में "परसेप्शन बाएस" का शिकार होते हैं. इसलिए एनएसएसओ के ज़रिये भूख की जो शरह मिलती है वह दस्तेकम गिरफ़्त (अंडर-एस्टिमेटेड) होती है.

यूँ तो, इफ़्प्री, भूख के फैलाव और ख़ुराक की कमी और गिज़ाई अदम तहफ्फुज़ की वजह बढ़ती हुई (और भरी उतार चढ़ाव वाली भी) क़ीमतों में तलाश करता है. गोकि, इसमें कोई शक नहीं कि गिज़ाई क़ीमतों की यह वोलैटीलिटी खुराक के हुसूल में रुकावट है; ताहम, यह बात भी वाज़ह है कि आबादी की हक़ीकी ख़ुराकी ज़मानत के लिए एक वसी' इक्दामात की ज़रुरत पड़ती है. ये सारे या इनमे से बेशतर इक्दामात अवामी मुदाखिलत से मुंसलिक होते हैं. खुराक की मुनासिब मिक़दार में फ़राहमी के लिए ज़राई पैदावारी में इज़ाफ़े की ज़रुरत होती है, फ़सल के पैटर्न में मुम्किनाह तब्दीली, और यक़ीनी तौर से खेती की मुसलसल नातीजाखेज़ी, और ये सब मक़ामी और क़ौमी दोनों सतहों पर ज़रूरी है. साथ ही, खुराक पर सभी लोगों की रसाई को यक़ीनी बनाने लिए ज़रूरी है कि लोगों के पास क़ूवत--ख़रीददारी हो, इसका मतलब है रोज़गार, उजरत और ज़रिया मआश के मसले अहम हैं. यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि समाजी इम्तियाज़ात और इख़राज का भी ख़ुराक की रसाई और ज़रिया मआश दोनों का तअय्युन करने में काफ़ी अहम किरदार है. चुनांचे ज़रुरत इस बात की भी है कि समाजी सेट-अप को भी ध्यान में रखा जाए. और जहाँ तक नाक़िस गिज़ाईयत (मॉलनरिश्मेंट) का मसअला है, तो इसका गिज़ाई नकमयाबी के साथ साथ ख़राब सफाई के इंतज़ामात, और दीगर नासालिम अमलियात से काफ़ी गहरा इर्ताबात है; इसीलिए साफ़ पीने के पानी की फ़राहमी, सफाई और दूसरी बुनियादी सहूलात तक रसाई के साथ ही साथ सही और मतलूबा खाने के आदात--अतवार के बारे इल्म भी ज़रूरी है. और ये सब इक्दामात, एक हद तक, सरकारी और अवामी मुदाखिलत के बिना मुमकिन नहीं है. तो ज़रुरत इस बात की है कि सरकार एक मज़बूत क़ूवत--इरादी और ज़िम्मेदाराना रवैये से खूर्द और सेहत-ए आम्मा की तक आम लोगों तक रसाई को यक़ीनी बनाए क़ब्ल इसके कि हालत और बेक़ाबू होजाएँ.