Tuesday, July 14, 2015

मानव पूंजी का माजरा


स्वस्थ और सुशिक्षित नागरिक ही किसी देश के विकास की ज़मानत होते हैं। अर्थशास्त्र की शब्दावली में इसे मानव पूंजी कहा जाता है। यूं तो उत्पादन के पांच साधन माने जाते हैं जिसमें श्रम एवं पूंजी दो महत्वपूर्ण सक्रिय साधन माने गए हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री थ्योडोर विलियम्स शुल्त्ज़ ने 1961 में पहली बार मानव पूंजी का तसव्वुर पेश किया। उन्होंने व्यक्ति की शिक्षा, प्रशिक्षण, कौशल उन्नयन आदि पर किए जाने वाले सभी व्यय किए जाने वाले धन को पूंजी निवेश बताया क्योंकि ये व्यय उसकी उत्पादकता, कार्यकुशलता तथा आमदनी में वृद्धि करते हैं।
मानव पूंजी की भूमिका के बारे में नोबल पुरस्कार से सम्मानित अमेरिका के ही एक और विश्वविख्यात अर्थशास्त्री गैरी बेकर ने कहा था—मानव पूंजी का आशय दक्षता, शिक्षा, स्वास्थ्य और लोगों को प्रशिक्षण से है। यह पूंजी है क्योंकि ये दक्षताएं या शिक्षा लंबे समय तक हमारा अभिन्न अंग बनी रहेंगी। उसी तरह जिस तरह कोई मशीन, प्लांट या फैक्टरी उत्पादन का हिस्सा बने रहते हैं।
मतलब यह कि सैद्धांतिक रूप से पूंजी के दो प्रकार है। पहली वो जो मूर्तरूप में दिखाई देती है—भौतिक पूंजी है। इस पूंजी का उत्पादन कार्य में प्रत्यक्ष प्रयोग होता है। दूसरी, मानव पूंजी जो मूर्तरूप से दिखाई नहीं देती, लेकिन जो उत्पादन की गुणवत्ता तथा मात्रा दोनों में वृद्धि करती है। उसमें श्रमिक के श्रम कौशल के साथ-साथ, स्वरोजगार करने वाले व उद्यमी का उद्यमिता कौशल प्रतिभा भी शामिल है।
विडम्बना यह कि, आर्थिक वृद्धि चाहे जीतने लम्बे-लम्बे दावे किए जा रहे हों, भारत का प्रदर्शन मानव व भौतिक पूंजी निर्माण के संदर्भ में संतोषजनक नहीं है। हाल ही में विश्व आर्थिक फोरम (डबल्यूईएफ़) की जारी दो रिपोर्टों से यह बात साफ़ हो जाती है कि पिछले एक साल के दौरान में पूंजी निर्माण में कमी आई है।
पहले बात करते हैं वैश्विक प्रतिस्पर्धा क्षमता रिपोर्ट 2014-15 की। इसमें भारत 148 देशों की दर्जाबंदी में 71वें स्थान पर है। ध्यान रहे इस सूची में देश पिछले एक साल में 11 पायदान फिसल गया। डबल्यूईएफ़ इस सूचकांक के आकलन में बारह आयामों का प्रयोग करता है जो प्रतिस्पर्धा की बुनियाद के नाम से जाने जाते हैं। इसमें संस्था, अवसंरचना, समष्टि आर्थिक माहौल, स्वास्थ्य और प्राथमिक शिक्षा, उच्च शिक्षा एवं कौशल, श्रम बाज़ार की क्षमता, तकनीकी तत्परता और नवोन्मेष आदि प्रमुख हैं।
अब बात करते हैं डबल्यूईएफ की दूसरी रिपोर्ट की। यह ह्यूमन कैपिटल रिपोर्ट 2015है, इसके अनुसार 124 देशों की सूची में भारत मानव पूंजी सूचकांक में 57.62 अंक के साथ 100वें स्थान पर है। डबल्यूईएफ द्वारा तैयार की गई मानव पूंजी रिपोर्ट के अनुसार भारत न केवल ब्रिक्स देशों—रूस, चीन, ब्राजील तथा दक्षिण अफ्रीका—से नीचे है बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के उसके पड़ोसी देशों श्रीलंका, भूटान तथा बांग्लादेश से भी नीचे है।
अगर देश को दीर्घकालिक विकास के पथ पर ले जाना है तो इसके लिए स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में पहल तो करनी ही होगी। सितमज़रीफ़ी है कि इस साल के बजट आवंटन में इन क्षेत्रों को भारी अनदेखी हुई है। मसलन, स्कूली शिक्षा और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण में क्रमशः 23 और 16 प्रतिशत की कटौती की गयी। जबकि, अगर मानव पूंजी का निर्माण करना है तो शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को और ज़्यादा मजबूत और ज़िम्मेदार बनाना होगा। और यही ऐतिहासिक तौर पर यह स्वयंसिद्ध तरीका रहा है।

Monday, May 25, 2015

नीति का पाखण्ड

अर्थनीति से संबन्धित क़िस्सों-कहानियों में यह कहानी काफी मशहूर है कि एक बार मार्गरेट थैचर ने अपने मंत्रिमंडल के सदस्यों व सहयोगियों के समक्ष मिल्टन फ्रीडमैन की एक किताब फेंकी और उसे पढ़ने के लिए कहा। उस किताब में एक बुनियादी सबक़ थामौद्रिकवाद यानी मोनेटरिज़्म का सबक़। फ्रीडमैन के सिद्धांत पर थैचर मंत्रिमंडल ने अमल-दर-आमद किया हो या न किया लेकिन मुल्क की मौजूदा मोदी सरकार पिछले एक साल के कार्यकाल में इस सिद्धान्त का अक्षरशः पालन करती हुई दिखती है।
मिल्टन फ़्रीडमैन मौद्रिकवाद के मुख्य प्रणेता रहे हैं। वस्तुतः मौद्रिकवाद वह वैचारिकी है जो यह मानती है कि किसी भी अर्थव्यवस्था में दीर्घावधि में होने वाली मनी सप्लाई या धनापूर्ति और आर्थिक गतिविधियों के बीच गहरा संबंध है। आर्थिक संवृद्धि के लिए धनापूर्ति उत्तरदायी है। मौद्रिक नीतियों के कार्यान्वयन मात्र से ही अर्थव्यवस्था को सही दिशा दी जा सकती है। अब चूंकि धनापूर्ति, धन के परिसंचरण और फैलाव की रफ़्तार का काम देश के केंद्रीय बैंक यानी रिज़र्व बैंक के ज़िम्मे है। इसलिए आर्थिक संवृद्धि में सरकार की भूमिका गौण हो जाती है। क़िस्सा कोताह यह कि सरकार को अपनी भूमिका महज़ नियामक और समन्वयक तक ही सीमित रखनी चाहिए। संप्रग की पिछली दो सरकारों ने भी अपनी भूमिका को नियामक और समन्वयक तक तक सीमित रखने का पूरा प्रयास किया। मोदी सरकार इस प्रयास को पूरी शिद्दत के साथ तेज़ रफ़्तारी से सरअंजाम दे रही है।
ग़ौरतलब है कि मौद्रिकवाद न तो आय के वितरण पर ध्यान देता और न ही प्रभावी मांग की ओर। इसके बरक्स सरकारें राजकोषीय नीतियों का प्रयोग करके अर्थव्यवस्था में, काफी हद तक, प्रभावी मांग पैदा कर सकती हैं और आर्थिक मंदी के भंवर से निकाल सकती हैं ऐसा जॉन मेयनार्ड कीन्स का मानना था। राजकोषीय नीति का मतलब है सरकार अपने ख़ज़ाने से क्या और कैसे ख़र्च करना चाहती है। ज़ाहिर है सरकार इन ख़र्चों को या तो अपने राजस्व या टैक्स से पूरा करती है या उधार लेती है। इसी नीति के आधार पर तय किया जाता है कम टैक्स लगा कर उद्यमशीलता को बढ़ावा दिया जाए या टैक्स का दायरा बढ़ा कर लोकोपकारी परियोजनाएँ चलायी जाएँ जिससे आमदनी का समतामूलक पुनर्वितरण किया जा सके। अस्तु सरकार की राजकोषीय नीति उसकी प्राथमिकताओंसमतामूलक समाज का निर्माण या उद्यमशीलताको दिखाती है।
मोदी सरकार मेक इन इंडिया अभियान जारी रखे हुए है। यह अभियान बुनियादी तौर पर निर्यात-आधारित है। विश्व अर्थव्यवस्था में गहराती मंदी के भी संकेत मिल रहे हैं। चीन की विकास दर 10 प्रतिशत से घट कर 7 प्रतिशत पर आ गई है। जापान लम्बे समय से मन्दी की चपेट में है। ऐसे परिदृश्य में फ़ोकस घरेलू मांग के बढ़ाने पर होनी चाहिए। राजकोषीय उपायों से प्रभावी मांग पैदा करने की आवश्यकता है। सरकार कोई भी अग्रसक्रिय क़दम उठाने के बजाए अपने पैर पीछे खींच रही है।
विगत वर्ष सरकार का सारा ध्यान राजकोषीय घाटे को कम करने में ही रहा है। सरकार ने अपने बजट में व्यापक कटौती की। स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में यह कटौती 16.54 प्रतिशत तक बैठती है। मनरेगा के आर्थिक और सामाजिक फ़ायदे को वर्ल्ड बैंक ने भी स्वीकार किया है। इसके बहुआयामी विकास योगदान देखते हुए इसने 2014 की वर्ल्ड डेव्लपमेंट रिपोर्ट में इसे ग्रामीण विकास की दरख़्शां मिसाल (स्टेलर एक्ज़ैंपल ऑफ़ रूरल डेव्लपमेंट) की संज्ञा दी है। लेकिन सरकार मनरेगा के दायरे को भी सिकोड़ रही है। इतना ही नहीं ग्रामीण विकास की अन्य योजनाओं में भी 10 प्रतिशत तक की कटौती की गयी है। ज़ाहिर है अगर इन सामाजिक क्षेत्रों में पर्याप्त निवेश किया जाता तो इसका बहुआयामी फ़ायदा होतामानव पूंजी का निर्माण तो ही, साथ में, इफ़ेक्टिव डिमांड भी पैदा होती।
इस कटौती को मोदी सरकार अच्छा प्रदर्शनबताती है। सरकार 2014-15 में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 4 प्रतिशत पर सीमित रखने में कामयाबी हासिल हुई है। इसको वित्त मंत्रालय राजकोषीय मजबूती के प्रति प्रतिबद्धताऔर बुद्धिमतापूर्ण नीतियोंका नतीजा बता रही है। एक तरफ़ तो राजकोषीय घाटा कम करने की बात कही जा रही है तो दूसरी ओर कॉर्पोरेट जगत को खुले हाथों से टैक्स में राहत दी जा रही है। यह नीति का पाखण्ड नहीं तो और क्या है?

Friday, April 17, 2015

अप्रभावी कृषि मूल्य नीति



मशहूर शायर बेकल उत्साही की पंक्तियाँ हैं—सुनिए जनाब मेरा ही हिंदुस्तान है नाम/ खेती मेरा वसूल है फ़ाक़ा स्वभाव है।यह फ़ाक़े की मार और भी घातक हो जाती जब एक ओर किसान को फ़सल या कृषि-उत्पाद का उचित मूल्य न मिले। और दूसरी ओर मौसम की घातक मार से उत्पादन भी कम हो जाय।
केंद्रीय सांख्‍यिकी कार्यालय (सीएसओ) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार उपभोक्‍ता खाद्य मूल्‍य सूचकांक (सीएफपीआई) पर आधारित महंगाई दर 6.14 फ़ीसदी रही है। वहीं थोक मूल्य मुद्रास्फीति (डबल्यूपीआई) ऋणात्मक रही है जो कि -2.33 प्रतिशत है। डबल्यूपीआई पिछले 9 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है।

यह अजीब स्थिति है कि एक तरफ़ तो कृषि जिंसो/उपज की थोक मुद्रा स्फीति कम हो रही वहीं उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ रही है। मतलब यह कि एक तरफ़ तो खेती-किसानी अत्यंत अलाभकारी हो रही है, किसानों की कमर टूट रही है। दूसरी ओर, बढ़ती क़ीमतें आम उपभोक्ताओं की जेब कतर रही हैं। लेकिन, फिर भी ज़्यादा मार तो बेचारे उन करोड़ों सीमांत जोत वाले किसानो पर पड़ती है जो सिर्फ़ कृषि पर ही निर्भर रहते हैं, नक़दी फ़सलों व खाद्यान्न की कम व अलाभकारी क़ीमतें उनको कहीं का नहीं छोड़तीं।

उपभोक्‍ता खाद्य मुद्रास्फीति की उच्च दर और फल और सब्ज़ी मुद्रास्फीति उच्चतम दर चिंता का विषय है। अब सवाल उठता है कि यह कृषि मूल्य नीति की विफलता है या राजनीतिक विफलता? वास्तव में, यह दोनों विफलताएँ हैं — मूल्य नीति तो विफल हुई ही है; साथ में यह राजनीतिक विफलता भी है। वह भी ऐसे समय में जब बड़े ही नियोजित तरीके से किसानों से उनकी ज़मीन कॉर्पोरेट को सौंपी जा रही हो। कृषि मूल्य नीति की विफलता एक राजनीतिक विफलता तो है ही साथ में संस्थागत विफलता है। किसी भी संस्था की सफलता या विफलता इसको नियंत्रित करने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति व वैचारिक प्रतिबद्धधता पर निर्भर करती है। सरकार फल और सब्जियों सहित आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण नहीं रखना चाहती। क़ीमत स्थिरीकरण तंत्र को लगभग नाकाम कर दिया गया है। स्पष्ट है कि इससे खेतिहर मज़दूरों-किसानों और आम उपभकताओं की स्थिति बदतर होगी मगर वहीं पूंजीपतियों की तिजोरियाँ भरेंगी। निजी पूंजी के प्रति अत्यंत आग्रही सरकार और पूंजीपतियों को आख़िर यही तो चाहिए!

ध्यान देने योग्य बात यह कि काफ़ी लंबी अवधि से क़ीमतें निरंतर ऊंचे स्तर पर बनी हुई हैं। इसको उंचा रखने में उत्पादक-संघ (कार्टेल), राजनेताओं, सट्टेबाजों और व्यापारियों का हाथ है। यह एक तरह से कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) की कमज़ोरी व विफलता है। यह स्थिति तब तक सुधारने वाली जब तक इस संस्थागत कमी को दूर नहीं किया जाएगा और एपीएमसी व अन्य प्रणालियों को सुधारा नहीं जाएगा।

सरकार हर वर्ष कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की अनुशंसाओं
, संबंधित राज्य सरकारों और केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों के विचारों तथा अन्य महत्वपूर्ण कारकों के आधार पर 20 से ज़्यादा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित करती है। लेकिन सितम ज़रीफ़ी यह है कि सीएसीपी और एमएसपी की इस प्रणाली के दायरे में सिर्फ़ चावल और गेहूं की ही फसलें आ पायी हैं।

1965
में स्थापित कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए भी किया गया था, इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), अधिप्रप्ति मूल्य (प्रॉक्यूरमेंट प्राइस) व अन्य मूल्य उपकरणों का सहार लिया गया। लेकिन कालांतर में सीएसीपी और एमएसपी का हस्तक्षेप केवल चावल और गेहूं के सरकारी ख़रीद तक सीमित हो कर रह गया। यह हस्तक्षेप भी इन दिनों दम तोड़ता नज़र आता है। अंततः एमएसपी अब अधिप्रप्ति मूल्य तक ही सीमित होगया है — सरकार अब सिर्फ़ गेहूं और धान की ही ख़रीद करती है। इस मामले में अन्य फसलें विशेष रूप से दलहन, तिलहन और कई और नक़दी फसलें उपेक्षा की शिकार हैं।

कृषि के लिए प्रभावी मूल्य नीति की विफलता महज़ उन सारी संस्थाओं की विफलता है नहीं है जिनके ज़िम्मे मूल्य-स्थिरता को बनाए रखने का कार्य है
, बल्कि यह सरकार की नीतियों की भी विफलता है जो कृषि उत्पादन के बदलते स्वरूप के साथ क़दम न मिलाने में अक्षम साबित हुई।
भारतीय कृषि को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार व व्यापार के साथ सम्बद्ध करने से कृषि जिंसों पर न सिर्फ़ घरेलू मांग, आपूर्ति और विपणन बाधाओं का दबाव रहता है बल्कि अंतरराष्ट्रीय क़ीमत में उतार चढ़ाव का भी असर पड़ता है।

एक साल पहले चुनाव अभियानों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह
स्वामीनाथन फॉर्मूले के आधार पर कृषि उपज को लाभकारी मूल्य प्रदान करेगी। किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार न सिर्फ़ अपने वादे से पलट गयी बल्कि खाद्यान्नों की ख़रीद को भी कम कर दिया है।

ऐसे समय में जब अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों में गिरावट से देश के बहुसंख्य किसानों की आजीविका पर बन आई हो। किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हों। तो ज़रूरत इस बात की है कि ऐसे सांस्थानिक प्रयास किए जाएँ व ऐसा प्रभावी तंत्र विकसित किया जाए जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाये जाने के साथ-साथ उपभोक्ताओं को भी उचित मूल्य पर खाद्यान्न भी उपलब्ध कराए। इसके लिए एक बृहत राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है।

Monday, March 2, 2015

मासूम धोखा


वित्तमंत्री अरुण जेटली का बजट भाषण सुनते हुए मुझे अनायास ही प्रसिद्ध अर्थशास्त्री-राजनयिक जॉन केनेथ गालब्रेथ और उनकी पुस्तक द अफ़फ़्लुएंट सोसाइटी का स्मरण हो आया। इस पुस्तक में उन्होने ने सामाजिक संतुलन का तसव्वुर पेश किया। सामाजिक संतुलन का मतलब है निजी और सार्वजनिक व्यय के बीच स्वीकार्य संबंध। शिक्षा, जनस्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन, सामाजिक सुरक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में इतना सार्वजनिक व्यय होना चाहिए कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आम आदमी की जेबें न ढीली हों, उनका ख़ुद का बजट न गड़बड़ाए।
उल्लेखनीय है कि मोदी सरकार का यह बजट तीन मामलों में दिलचस्प है। पहला, लगभग तीस साल बाद यह एक ऐसी सरकार द्वारा पेश किया जा रहा है जो पूर्णतः बहुमत में है। इसलिए सरकार को अपनी नीति और आकांक्षाओं के अनुरूप बजट बनाने की पूरी स्वतन्त्रता है। दूसरे, चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट भी आ चुकी है, और इसके सुझाव 1 अप्रैल 2015 से लागू होंगे और 31 मार्च 2020 तक लागू रहेंगे। तीसरा, सरकार ने योजना आयोग भंग करके नीति आयोग नामक दूसरा संस्थान बनाया है, जो दिशात्मक और नीति निर्धारक थिंक टैंक है। हो सकता है इन तीनों परिघटनाओं ने भी  सरकार के बजट निर्माण की परिक्रिया को प्रभावित किया हो।
प्रधान मंत्री मोदी ने लाल क़िले की प्रचीर से कहा था कि देश तीन डी’—डेमॉक्रेसी (लोकतन्त्र), डेमॉग्राफी (जनांकीय) और डिमांड (मांग)—से समृद्धित है। वास्तव में ये तीन डीतभी कारगर होंगे जब देश में स्वास्थ्य और शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं पुख्ता इंतज़ाम हो और इन तक देशवासियों की सहर्ष पहुँच हों। मानवीय व लोकतांत्रिक चेतना पैदा करने के लिया शिक्षा की आवश्यकता है। अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य से बेहतर मानव पूंजी का निर्माण होता है, और यही कुशल मानव पूंजी जनांकीय भाज्य है। ज़ाहिर है जब यह मानव पूंजी अर्थव्यवस्था में विनोयोजित होगी तो मांग उत्पन्न करेगी। कुल मिला कर सामाजिक क्षेत्रक मजबूत होना चाहिए।

दो दिन पहले मोदी सरकार का पहला पूर्ण बजट लोकसभा में पेश किया गया। चूंकि मोदी सबके विकासकी बात किया करते हैं तो ऐसी प्रत्याशा थी कि इस बजट में सामाजिक व लोक कल्याणकारी योजानाओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। लेकिन आशा के विपरीत इन योजनाओं और कार्यक्रमों में काफी फ़ंडकट हुआ। मसलन, स्कूली शिक्षा की मदों में आवंटन पिछले वर्ष की अपेक्षा 23 प्रतिशत कम कर दिया गाया। ज़ाहिर है इससे कौशल निर्माण पर प्रभाव पड़ेगा। जबकि उच्च शिक्षा के आवंटन में 3 प्रतिशत की मामूली बढ़ोतरी की गयी। कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं, लेकिन इस बजटीय आवंटन में बच्चो से संबधित योजनाओं/कार्यक्रमों में 56 प्रतिशत से भी अधिक की कटौती कर दी  गयी। इस तथ्य को भी पूरो तरह से नज़रअंदाज़ करते हुए कि भारत ग्रामों में बसता है, ग्रामीण विकाससे संबन्धित योजनाओं में 10 फीसदी का फंड-कट हुआ। मानव विकास के अहम पहलू, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की मद में भी 16 प्रतिशत की कटौती की गयी। देश में वक़्त-बेवक़्त जापानी इन्सेफ़्लाइटिस, स्वाइन फ़्लू, येलोफ़ीवर और इन जैसी अनेक बीमारियाँ पैर पसार देती है। इन रोगों से निपटने के लिए इनकी एपीडेमेओलॉजिकल स्टडी व अनुसंधान ज़रूरी है। इस बजट में स्वास्थ्य अनुसंधान में कोई बढ़ोतरी नहीं कि गयी। इतना ही नहीं एड्स नियंत्रण कार्यक्रमों में भी 22 प्रतिशत आवंटन कम किया गया।
गालब्रेथ ने अपनी एक अन्य पुस्तक—इकॉनोमिक्स ऑफ इनोसेंट फ्रॉड: ट्रुथ ऑफ अवर टाइम—में बताया है कि अमेरिकी समाज कैसे पूँजीवाद के लिए अब बाजार अर्थव्यवस्था शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है। यथार्थ को छिपाने के लिए मनोहारी शब्द-जाल बुना जाता है। गालब्रेथ इसे निरीह कपट का सटीक उदाहरण मानते हैं। सबका साथ और सबका विकास भी ऐसा ही मासूम धोखा है। सच्चाई तो यह है कि एक तरफ तो सम्पत्ति कर (वेल्थ टेक्स) को हटाया गया तो दूसरी तरफ़ कॉर्पोरशंस का कॉर्पोरेट टैक्स 30 से घटा के 25 प्रतिशत किया। पूंजीपतियों के विकास की राहें हमवार कि जा रही हैं तो ग़रीब से लोगों से उनके रोजगार की गारंटी छीनी जा रही है जिससे निश्चय ही सामाजिक संतुलन बिगड़ेगा।