मशहूर शायर बेकल
उत्साही की पंक्तियाँ हैं—‘सुनिए जनाब मेरा ही हिंदुस्तान है नाम/ खेती मेरा वसूल है
फ़ाक़ा स्वभाव है।’ यह फ़ाक़े की मार और भी घातक हो जाती जब एक ओर किसान को फ़सल या
कृषि-उत्पाद का उचित मूल्य न मिले। और दूसरी ओर मौसम की घातक मार से उत्पादन भी कम
हो जाय।
केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार उपभोक्ता खाद्य
मूल्य सूचकांक (सीएफपीआई) पर
आधारित महंगाई दर 6.14
फ़ीसदी रही है। वहीं थोक मूल्य मुद्रास्फीति (डबल्यूपीआई) ऋणात्मक रही
है जो कि -2.33 प्रतिशत है। डबल्यूपीआई पिछले 9 वर्षों में सबसे निचले स्तर पर है।
यह अजीब स्थिति है कि एक तरफ़ तो कृषि जिंसो/उपज की थोक
मुद्रा स्फीति कम हो रही वहीं उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ रही है। मतलब यह कि
एक तरफ़ तो खेती-किसानी अत्यंत अलाभकारी हो रही है, किसानों की
कमर टूट रही है। दूसरी ओर, बढ़ती क़ीमतें आम उपभोक्ताओं की जेब कतर रही हैं। लेकिन, फिर भी ज़्यादा मार तो
बेचारे उन करोड़ों सीमांत जोत वाले किसानो पर पड़ती है जो सिर्फ़ कृषि पर ही निर्भर
रहते हैं, नक़दी फ़सलों व खाद्यान्न की कम व अलाभकारी क़ीमतें उनको कहीं
का नहीं छोड़तीं।
उपभोक्ता खाद्य मुद्रास्फीति की उच्च दर और फल और सब्ज़ी
मुद्रास्फीति उच्चतम दर चिंता का विषय है। अब सवाल उठता है कि यह कृषि मूल्य नीति की
विफलता है या राजनीतिक विफलता? वास्तव में, यह दोनों विफलताएँ हैं — मूल्य नीति तो विफल हुई ही है; साथ में यह राजनीतिक
विफलता भी है। वह भी ऐसे समय में जब बड़े ही नियोजित तरीके से किसानों से उनकी ज़मीन
कॉर्पोरेट को सौंपी जा रही हो। कृषि मूल्य नीति की विफलता एक राजनीतिक विफलता तो
है ही साथ में संस्थागत विफलता है। किसी भी संस्था की सफलता या विफलता इसको
नियंत्रित करने वालों की राजनीतिक इच्छाशक्ति व वैचारिक प्रतिबद्धधता पर निर्भर
करती है। सरकार फल और सब्जियों सहित आवश्यक खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण
नहीं रखना चाहती। क़ीमत स्थिरीकरण तंत्र को लगभग नाकाम कर दिया गया है। स्पष्ट है
कि इससे खेतिहर मज़दूरों-किसानों और आम उपभकताओं की स्थिति बदतर होगी मगर वहीं
पूंजीपतियों की तिजोरियाँ भरेंगी। निजी पूंजी के प्रति अत्यंत आग्रही सरकार और
पूंजीपतियों को आख़िर यही तो चाहिए!
ध्यान देने योग्य बात यह कि काफ़ी लंबी अवधि से क़ीमतें
निरंतर ऊंचे स्तर पर बनी हुई हैं। इसको उंचा रखने में उत्पादक-संघ (कार्टेल), राजनेताओं, सट्टेबाजों
और व्यापारियों का हाथ है। यह एक तरह से कृषि उपज विपणन समितियों (एपीएमसी) की कमज़ोरी
व विफलता है। यह स्थिति तब तक सुधारने वाली जब तक इस संस्थागत कमी को दूर नहीं
किया जाएगा और एपीएमसी व अन्य प्रणालियों को सुधारा नहीं जाएगा।
सरकार हर वर्ष कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) की अनुशंसाओं, संबंधित राज्य सरकारों और केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों के विचारों तथा अन्य महत्वपूर्ण कारकों के आधार पर 20 से ज़्यादा फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित करती है। लेकिन सितम ज़रीफ़ी यह है कि सीएसीपी और एमएसपी की इस प्रणाली के दायरे में सिर्फ़ चावल और गेहूं की ही फसलें आ पायी हैं।
1965 में स्थापित कृषि मूल्य आयोग की स्थापना न केवल कृषि उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए बल्कि किसानों को लाभकारी मूल्य प्रदान करने के साथ-साथ प्राकृतिक संसाधनों के कुशल उपयोग के लिए भी किया गया था, इसके लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी), अधिप्रप्ति मूल्य (प्रॉक्यूरमेंट प्राइस) व अन्य मूल्य उपकरणों का सहार लिया गया। लेकिन कालांतर में सीएसीपी और एमएसपी का हस्तक्षेप केवल चावल और गेहूं के सरकारी ख़रीद तक सीमित हो कर रह गया। यह हस्तक्षेप भी इन दिनों दम तोड़ता नज़र आता है। अंततः एमएसपी अब अधिप्रप्ति मूल्य तक ही सीमित होगया है — सरकार अब सिर्फ़ गेहूं और धान की ही ख़रीद करती है। इस मामले में अन्य फसलें विशेष रूप से दलहन, तिलहन और कई और नक़दी फसलें उपेक्षा की शिकार हैं।
कृषि के लिए प्रभावी मूल्य नीति की विफलता महज़ उन सारी संस्थाओं की विफलता है नहीं है जिनके ज़िम्मे मूल्य-स्थिरता को बनाए रखने का कार्य है, बल्कि यह सरकार की नीतियों की भी विफलता है जो कृषि उत्पादन के बदलते स्वरूप के साथ क़दम न मिलाने में अक्षम साबित हुई।
भारतीय कृषि को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार व व्यापार के साथ
सम्बद्ध करने से कृषि जिंसों पर न सिर्फ़ घरेलू मांग, आपूर्ति और
विपणन बाधाओं का दबाव रहता है बल्कि अंतरराष्ट्रीय क़ीमत में उतार चढ़ाव का भी असर
पड़ता है।
एक साल पहले चुनाव अभियानों के दौरान भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली एनडीए ने वादा किया था कि सत्ता में आने पर वह ‘स्वामीनाथन फॉर्मूले’ के आधार पर कृषि उपज को लाभकारी मूल्य प्रदान करेगी। किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार न सिर्फ़ अपने वादे से पलट गयी बल्कि खाद्यान्नों की ख़रीद को भी कम कर दिया है।
ऐसे समय में जब अंतरराष्ट्रीय क़ीमतों में गिरावट से देश के
बहुसंख्य किसानों की आजीविका पर बन आई हो। किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हों। तो ज़रूरत
इस बात की है कि ऐसे सांस्थानिक प्रयास किए जाएँ व ऐसा प्रभावी तंत्र विकसित किया
जाए जो किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य दिलाये जाने के साथ-साथ उपभोक्ताओं को
भी उचित मूल्य पर खाद्यान्न भी उपलब्ध कराए। इसके लिए एक बृहत राजनीतिक इच्छाशक्ति
की आवश्यकता है।