Monday, December 22, 2014

‘गुड गवर्नेंस’ की ‘मोदीनॉमिक्स’

पिछले साल से सारा कॉरपोरेट मीडिया जो एक सुर में गुजरात मॉडल के गौरव गान में लगा हुआ था वह 16 मई के बाद बाक़ायदा मोदी सरकार के चरणवंदन में लग गया है। सरकार और मीडिया ने एक बार फिर से गुड गवर्नेंस का राग अलापना शुरू कर दिया है। वहीं सरकार ने सर्कुलर जारी करके शैक्षिक संस्थानों से 24 दिसंबर को गुड गवर्नेंस डे मनाने को कहा है। ऐसा दावा किया जा रहा है कि वह गुड गवर्नेंस ही है जो देश को विकास के रास्तों पर ले जा जाएगा। बकौल नरेंद्र मोदी गुड गवर्नेंस यानी सुशासन को अपनाना ही सारी कठिनाईयों को पार करने का एक मात्र रास्ता है। इसको जानने से पहले कि गुड गवर्नेंस से आमजन की ज़िन्दगी में कोई सकारात्मक परिवर्तन हुआ या नहीं, इसके आर्थिक विचार के इतिहास पर एक नज़र डालते हैं।
अर्थशास्त्र, एक अलग ज्ञान की शाखा के रूप में, अपने प्रादुर्भाव काल से ही राज्य और शासन संबन्धित मुद्दों की पड़ताल करता रहा है। करीब 2300 वर्ष पहले कौटिल्य द्वारा लिखी गयी प्राचीनतम पुस्तक अर्थशास्त्र में शहरों का बसाना, गुप्तचरों का प्रबंध, फ़ौज की रचना, न्यायालयों की स्थापना, से लेकर  राजनीति, दंडनीति, समाजशास्त्र और नीतिशास्त्र इत्यादि विषयों पर विचार हुआ है। इसके बाद आधुनिक काल में सभी शास्त्रीय अर्थशास्त्रियों यानी क्लैसिकल एकोनोमिस्ट्स जैसे एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और जे.एस. मिल ने भी अर्थव्यवस्था को विनियमित करने में राज्य की भूमिका पर बल दिया है। बाद में, नवशास्त्रीय यानी नियो-क्लैसिकल अर्थशास्त्रीयों ने बाज़ार को ही सर्वप्रिय और सर्वोत्तम माना। उनके अनुसार बाज़ार खुद अर्थव्यवस्था को विनियमित करने मे सक्षम है इसलिए सरकार को इसकी गतिविधियों में हस्तक्षेप न करना चाहिए क्यूंकी सरकार का हस्तक्षेप बाज़ार संतुलन में बाधा डालती है। लेकिन, द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात, बाज़ार की शक्तियों की बड़ी गिरावट देखी गई। बाज़ार बाज़ाब्ते ख़ुद अर्थव्यवस्था को संतुलित और नियंत्रित करने में पूर्णतः असफल रह; अदृश्य हाथ के जादू नें विश्वास खो दिया। तब जॉन मेयनार्ड कीन्स बाजार के बचाव में उतरते हुए ये तजवीज़ सुझाई कि बाज़ार की विफलताओं को ठीक करने के लिए सरकार को हस्तक्षेप करना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ बाजार अपने आप मे मुकम्मल नज़रिया नहीं इसके असफल होने की पूरी गुंजाइश है।
ग़ौरतलब है तब से अब तक, राज्य की भूमिका को लेकर, मुख्य धारा के सारे आर्थिक विचार इन दो प्रमुख विचारधाराओं के बीच दोलन करते रहते हैं। पहली धारा है, नवप्रामाणिक बाज़ारवादियों कीजिनका कहना है कि राज्य का बिलकुल हस्तक्षेप न होना चाहिए। दूसरी है, कीन्सियन की, जिनका मानना है कि राज्य को बाज़ार विफलता से निपटने के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए। इनके अलावा एक अन्य समानान्तर विचारधारा है जिसे हेटरोडॉक्स अथवा मार्क्सवादी अर्थशास्त्र कह सकते हैं। अर्थशास्त्र की वैचारिकी यह धड़ा समता को सर्वोपरि मानता है। इसके अनुसार सुशासन का मतलब है आय और संसाधनों के वितरण में समता।
मोदी और उनके समर्थकों तथा नीति-नियंताओं ने बजारवादी व्यवस्था पर विश्वास करते हुए आवाम को इस ख़ाम-ख़याली में मुब्तला कर रखा है कि आर्थिक विकास से ऊंचे तब्क़े को होने वाले मुनाफ़े का फ़ायदा एक न एक दिन निचले तब्क़े तक भी अपने आप पहुंच जाएगा। यही ट्रिकल डाउन का सिद्धान्त है। जिसके अनुसार विकास दर बढ़ने से उन तबकों का भी फायदा होता है जो विकास प्रक्रिया में सीधे तौर पर जुड़े नहीं होते हैं। मतलब, विकास की रणनीति के साथ उसके परिणाम अर्थात आय के पुनर्वितरण के बारे में सरकार या राज्य को चिंता नहीं करनी चाहिए। दूसरे शब्दों में कहें तो, कर नीतियों के जरिए धनवानों की आय और संपदा का एक खासा हिस्सा लेकर कल्याणकारी कार्यक्रमों द्वारा कम आय और संपदा वालों को हस्तांतरित नहीं करना चाहिए। क्यूंकी इस सैद्धांतिकी के अनुसार रिसाव के जरिए विकास के क्रम में सृजित आय और संपदा का पुनर्वितरण स्वत: हो जाता है। इसलिए सरकार को स्वास्थ्य, शिक्षा समेत अन्य सामाजिक कार्यक्रमों में भारी व्यय से गुरेज़ करना चाहिए। मतलब ट्रिकल डाउन सरकारी तामझाम को कम करता है; नतीजतन प्रशासनिक खर्च बचत होती है और भ्रष्टाचार पर भी लगाम लगता है।
अब सवाल उठता है कि अगर यह सही है तो फिर गरीबों की स्थिति में कोई सकारात्मक परिवर्तन क्यों नहीं होता दीखता? गरीबी-अमीरी के बीच फासला क्यों बढ़ता जा रहा है? गौर से देखें तो 'ट्रिकल डाउन' का अर्थशास्त्र और ट्रिकल डाउन (रिसाव) सिद्धांत नव उदारवादी आर्थिकी का मुख्य सिद्धान्त है। 'ट्रिकल डाउन', ‘मैक्सिमम गवर्नेंस मिनिमम गवर्नमेंट जैसी शब्दावलियां अमेरिका की इको-पॉलिटिकल जॉर्गंस और आर्थिक-राजनीतिक लफ़्फ़ाज़ियां हैं जो सरकार द्वारा टैक्स ब्रेक और अन्य आर्थिक लाभों के रुप में विभिन्न व्यवसायों और कार्पोरेटर्स को प्रदान की जाती हैं।
ऐसा दावा किया जा रहा है कि यह आर्थिक वृद्धि का रास्ता बज़रिए गुड गवर्नेंस ही हमवार होगा। जबकि, सच्चाई इसके उलट है। पारदर्शिता, जो सुशासन की पहली शर्त है, की तरफ़ बिल्कुल आँख मूँद लिया गया। गुड गवर्नेंस याराना पूँजी यानी क्रोनी कैपिटल को फ़ायदा पहुँचाने के लिया श्रम, और पर्यावरण के क़ानूनों की धज्जिया उड़ाई जा रही हैं।
केंद्र में मोदी सरकार के कार्य करते हुए दो सौ से भी ज़्यादा दिन होगाए हैं। निश्चित रूप से, किसी भी सरकार की आर्थिक कारकरदगी के आकलन के लिए यह अवधि प्रयाप्त नहीं है। इसलिए गुड गवर्नेंस की पड़ताल के लिए नरेंद्र मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्रीत्व कार्यकाल की समीक्षा ज़्यादा न्यायसंगत है। लेकिन इस बात की चर्चा करना भी ज़रूरी है कि कैसी मोदी सरकार ने सत्ता ग्रहण करते ही अपनों को नवाज़ना शुरू कर दिया। बंदरगाह, बिजली कंपनी और एसईज़ेड कारोबार के लिए अडाणी समूह गुजरात की मोदी सरकार से शानदार सौदा हासिल करने में कामयाब रहा है। इतना ही नहीं राज्य में अपना संयंत्र स्थापित करने वाली अन्य कंपनियों के मुक़ाबले गौतम अडाणी की कम्पनी अडाणी ग्रुप को काफी कम क़ीमत पर ज़मीनें दी गईं। इस कम्पनी को जिस तरीक़े से कौड़ियों के भाव भूमि का आवंटन किया गया है वह मोदी सरकार और क्रोनी पूंजीवाद के बीच के मज़बूत रिश्ते को बतलाता है।
इससे पहले अडाणी ग्रुप को बग़ैर किसी अड़चन के, सुसाशन और गुड गवर्नेंस का डंका पीटने वाली नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार ने पारदर्शितागवर्नेंस के बुनियादी उसूलको दर किनार करते हुए कच्छ ज़िले के मुन्द्रा ब्लॉक की 6456 हेक्टेयर (15,946.32 एकड़) ज़मीन इसके एसपीसेज़ या एपीएसईज़ेड (अडाणी पोर्ट ऐंड स्पेशल इकनॉमिक ज़ोन लिमिटेड) प्रोजेक्ट के लिए औने-पौने दामों1 से 32 रूपये प्रति मीटर की दरपर दे दीं। विश्व प्रसिद्ध बिज़नेस पत्रिका फोर्ब्स ने भी खुलासा किया था कि इस समूह को को मात्र एक रुपए प्रति मीटर की दर से कच्छ ज़िले की 14305.49 एकड़ (5.78 करोड़ वर्ग मीटर) जमीनें दी गई हैं।
दिलचस्प यह है कि, जहां अडाणी ग्रुप को इतनी सस्ती कीमतों में ज़मीने दी गईं वहीं अन्य कम्पनियों को इससे कई गुना क़ीमतों पर भूमि का आवंटन किया गया। मिसाल के तौर पर अहमदाबाद के करीब साणंद में, टाटा मोटर्स को 900 रूपये और फ़ोर्ड इण्डिया को 1100 रूपये प्रति मीटर की दर से ज़मीनें दी गईं। वहीं मारुति सुज़ुकी को इसी ज़िले के हंसलपुर में 670 रूपये रूपये प्रति मीटर की दर से; रहेजा कॉर्प, टीसीएस और टॉरेंट पॉवर को क्रमशः 470 रूपये, 1100 रूपये और 6000 रूपये प्रति मीटर की दर से ज़मीनों का आवंटन किया गया।
क़ाबिले ग़ौर है कि वाणिज्य और उद्योग मन्त्रालय के आंकड़ों के अनुसार अडाणी समूह, अब तक, एपीसेज़ के लिए आवंटित भूमि का लगभग आधा हिस्सा ही इस्तेमाल कर सका है। इसने आवंटित 6456 हेक्टेयर भूमि में से सिर्फ़ 3355.24 हेक्टेयर का ही इस्तेमाल किया है जबकि दूसरी कम्पनियों को ऊँची क़ीमतों पर भी भूमि आवंटन के लिए नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। यह हक़ीक़त में मोदी और अडाणी के बीच रिश्ते की मज़बूती दिखाता
ध्यान देने योग्य बात यह है कि, अगर हम जोत आकार से किसान समूहों को देखें, तो गुजरात में पिछले दस वर्षों के दौरान, सबसे छोटे जोत वाले किसान समूह के परिवारों की संख्या में वृद्धि तो हुई है साथ ही उनके औसत रक़्बे में भी कमी हुई है। वहीं दूसरी ओर काश्त की ज़मीनों कौड़ियों के भाव देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लुटाती गयी। कच्छ जिले के लखपत तालुका में दीपक सीमेंट्स को चौरासी हेक्टेयर जमीन पांच रुपए प्रति मीटर की दर पर सरकार द्वारा उपलब्ध कराई गई। लॉर्सन ऐंड टुब्रो को 109 हेक्टेयर जमीन दक्षिण गुजरात स्थित सुवाली में सौ रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर पर सरकार द्वारा मुहैया कराई गई। इसी प्रकार, एस्सार समूह को दस हेक्टेयर से ज्यादा गांधीनगर में पांच हजार रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से मिली। रिलायंस जामनगर इंफ्रास्ट्रक्चर को चौदह सौ हेक्टेयर जमीन अस्सी रुपए से लेकर तीन सौ नब्बे रुपए प्रति वर्गमीटर के भाव से दी गई। भरुच स्थित जंबुसार में स्टर्लिंग इंफ्रास्ट्रक्चर ने 577 हेक्टेयर जमीन सत्तावन रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से हथियाई। सुर्खाब बर्ड रिजॉर्ट को बीस हेक्टेयर जमीन ग्यारह रुपए प्रति मीटर के भाव से कच्छ जिले के मांडवी में दी गई। तुलसी बायोसाइंस ने बलसाड के पर्डी इलाके में तीन हेक्टेयर जमीन साढ़े पांच सौ रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से अपने नाम दर्ज कराई। इन सभी ज़मीनों के सौदे पूरी तरह अपारदर्शी, नियम-क़ानूनों को दरकिनार करते हुए किए गए हैं।
ज़मीन की इस लूट से न सिर्फ राजस्व की हानि हुई है बल्कि इसने पर्यावरण को भी बहुत प्रभावित किया है। तमाम पर्यावरण नियमों को ताक पर रख कर अडाणी के पॉवर प्लांट को लाइसेंस दिया गया। कमेटी फॉर इंस्पेक्शन ऑफ मेसर्स अडाणी पोर्ट एंड एसईजेड लिमिटेड, मुंदरा, गुजरात की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा हुआ कि इसके पॉवर प्लांट की हवा में उडऩेवाली राख यानी फ्लाई ऐश से ज्वरीय वन या मैंग्रोव्स नष्ट हो रहे हैं, कच्छ की संकरी खडिय़ां यानी क्रीक भर रही हैं तथा जल और भूमि का क्षरण हो रहा है। पर्यावरण का यह क्षरण लोगों की रोजी-रोटी पर भारी पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर, कच्छ के मछुआरों का कहना है कि मछली पकड़ने के मौके में लगभग साठ फीसदी की कमी आई है। गुड गवर्नेंस का यह तरीक़ा जहां बड़े उद्योगों के मुनाफा कमाने के अवसरों को बढ़ा रहा है वहीं यह छोटे-छोटे किसानों, मछुआरों और मजदूरों से उनका रोजगार छीन रहा है।
ग़ौरतलब है कि गुजरात में जहां आम लोगों के रोज़ी-रोटी पर संकट है वहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को कर अवकाश दिया जा रहा है। किसी भी राज्य का सबसे महत्वपूर्ण राजस्व मूल्यवर्धित कर यानी वैट होता है, लेकिन प्रदेश में हज़ारों करोड़ रूपये की वसूली नहीं की जाती है। सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक़ वर्ष 2007-08 में वहाँ वैट की कुल वसूली 2740 करोड़ रूपये हुई जबकि बकाया राशि 7940 रूपये रही। वर्ष 2011-12 में वसूली महज़ 999 करोड़ हुई जबकि बक़ाया रक़म 19566 करोड़ पहुँच गयी।
अब सवाल उठता है कि अगर प्रदेश में वाक़ई में गुड गवर्नेंस है तो करों की वसूली बढ़नी चाहिए थी। सुशासन का इस्तेमाल आम श्रमिकों और नागरिकों कि आवाज़ दबाने में हुआ है। गुजरात ऐसा सूबा है जहां सबसे ज़्यादा लॉक-आउट्स और हड़तालें हुई हैं मगर फिरभी यह राज्य सबसे ज़्यादा पूँजी आकर्षित कर रहा है। वजह साफ है, पूँजीपतियों को यक़ीन है कि श्रमिक असंतोष की आवाज़ें सुशासन के डंडे से दबा दी जाएंगी। गुड गवर्नेंस की लफ़्फ़ाज़ी का सुनहरा आवरण पूँजी को नफ़ाबख़्श बनाने की है नाकि श्रमिक-मज़दूर और अन्य हाशिये के वर्गों को मजबूत बनाने की।