Saturday, October 25, 2014

इबोला वाइरस और बीमार स्वास्थ्य तंत्र

पिछले कई महीनों से मौत का पर्याय बनी इबोला बीमारी का तांडव अभी ख़त्म नहीं हुआ है। चिंताजनक बात यह है कि इबोला की केस फैटलिटि रेट यानी संक्रमण से मृत्यु दर 70 फ़ीसदी तक पहुंच चुकी है और पिछले एक महीने के अंदर हर सप्ताह में इसके क़रीब 10,000 नए मामले सामने आए हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 15 अक्तूबर तक इबोला से मरने वाले लोगों की संख्या 4,493 हो गई हैं। इनमें से लगभग सभी लोग पश्चिमी अफ्रीका के हैं। ऐसे मामलों की कुल संख्या 8,997 है। डबल्यूएचओ ने यह भी चेताया है कि अगर इबोला से निपटने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो दुनिया को इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
इबोला बीमारी इस वर्ष के शुरूवात में गिनी कोनाकरी, और उसके बाद लाइबेरिया, सिएरालोन और नाइजीरिया में फैली। विश्वप्रसिद्ध ब्रिटिश मेडिकल जर्नल के अनुसार इन चार देशों के अलावा माली, आइवरी कोस्ट, सेनेगल, गिनी-बिसाउ, बेनिन, कैमरून, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक, कांगों, घाना, साउथ सूडान, मॉरितानिया, टोगो और बुर्किना फासो सहित 14 ऐसे देश हैं जहां इस बीमारी के प्रकोप का आसन्न ख़तरा है।
इस बीमारी की रोकथाम और मरीजों को सहायता पहुंचाने में डब्ल्यूएचओ की टीम और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं लगी हुई है। जो वास्तव में एक सराहनीय कार्य है। लेकिन वहीं ये संस्थाएं इस इबोला संकट के लिए इन अफ़्रीकी देशों को ही ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं। डॉक्टर्स विदाउट बॉर्डर्स के दक्षिण अफ्रीका के अध्यक्ष और सिएरा लियोन में अगस्त से सितंबर तक काम करने वाले शैरोन एकामबरम ने एक इंटरव्यू में रोष प्रकट करते हुए कहा, ऐसे समय में डब्ल्यूएचओ अफ्रीका कहां है? अफ्रीकी यूनियन कहां है? विकटिम ब्लेमिंग का यह तरीक़ा नवउदारवादी व्यवस्था की ही देन है जिसमे स्वास्थ्य को बृहत वैश्विक आर्थिक-राजनीतिक संदर्भों से काट करके देखा जाता है।
ग़ौरतलब है कि इबोला के शिकार अफ़्रीक़ी देशों में स्वास्थ्य-तंत्र अत्यंत चरमराया हुआ है। सदियों तक पश्चिमी देशों के उपनिवेश रहे इन मुल्कों के संसाधनों का व्यापक दोहन किया गया। कालांतर में पश्चिमी साम्राज्यवादी देशों ने इनको निर्धनता के गर्त में धकेल कर छोड़ दिया गया। नतीजतन संसाधनों की भारी कमी सुदृढ़ स्वास्थ्य तंत्र और चिकित्सा प्रणाली खड़ा करने में हमेशा आड़े आती रही है। रही सही कोर-कसर इन मुल्कों के हुक्मरानों की घुटनाटेकू नीतियों ने पूरी की। अस्सी और नव्वे के दशक में इन अफ़्रीक़ी देशों ने वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ़ की सुझाई गयी नीतियों के तहत नवउदारवादी नीतियों को आंगीकार कर लिया। संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (एसएपी) के तहत स्वास्थ्य बजट में भारी कटौती की गई और उपयोग शुल्क (यूज़र चार्ज) की शुरूवात जैसे अन्य कई कदम उठाए गए। सार्वजनिक सेवाओं का बजट भी लगातार कम किया जाता रहा जिससे सार्वजनिक सेवाएं और स्वास्थ्य तंत्र कमजोर होता गया। इन देशों की सरकारों ने प्राथमिक और निवारक स्वास्थ्य सेवाओं से अपने हाथ खींच ही लिए हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली क़रीब क़रीब ख़त्म हो चुकी है। मसलन नाइजीरिया के लोगों को अपने स्वास्थ्य पर जो भी ख़र्च करना पड़ता है उसका लगभग 96 प्रतिशत हिस्सा नागरिकों को स्वयं अपनी जेब वहन करना पड़ता है। प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली के अभाव में इबोला ही नहीं अन्य संचारी रोग इन मुल्कों पर समय समय पर अपना क़हर ढाते रहते हैं।
इतना ही नहीं, जिसकी तरफ ईवान ईलीच ने अपनी किताब लिमिट्स टू मेडिसिन में इशारा किया है कि मौजूदा पूंजीवादी-नवउदारवादी व्यवस्था में, स्वास्थ्य का अधिक से अधिक तकनीकीकरण होता जा रहा है। स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक राज्य/सरकार की प्राथमिकता सूची से ग़ायब हैं। चूंकि रोग नियंत्रण कोई मुनाफे वाला सौदा नहीं है इसीलिए निजी कंपनियों का सारा ध्यान तकनीकी (औषधि) विकास में है नाकि बीमारियों के रोक थाम में। वहीं एसएपी के तहत सरकार निवारक उपाय (प्रिवेंटिव मेज़र्स) में साल-दर-साल कम ख़र्च कर रही है। ज़ाहिर है जिससे रोगों से बचाव का तंत्र विकसित ही नहीं हो पाया।
दूसरी ओर, अफ्रीका में आर्थिक नवउदारवादी नीतियों ने पूरे स्वास्थ्य तंत्र को प्रभावित किया है। आम नागरिकों की स्वास्थ्य सेवाओं तक की पहुँच को सीमित कर दिया है। नवउदारवादी आर्थिकी पर आधारित अर्थव्यवस्थाओं में स्वास्थ्य भी एक वस्तु या उत्पाद है। सो लोग इन प्रॉडक्ट्स पर खर्च करें और इन्हें खरीद लें। मतलब यह कि यह एक व्यक्तिगत मामला है। राज्य की यह ज़िम्मेदारी नहीं कि वह लोगों तक स्वास्थ्य सेवाओं की समान पहुँच सुनिश्चित कराए। अलबत्ता ऐसा माना जाता है कि बाज़ार इतनी सक्षम है कि वह सेवाओं को लोगों की क्रयशक्ति के अनुसार उपलब्ध करा देगी। लिहाज़ा सरकार का ध्यान स्वास्थ्य अवसंरचना विकसित न करके कुछ ऐसा करना होता है कि ऐसी व्यवस्था बने कि लोग ख़ुद-ब-ख़ुद इन प्रॉडक्ट्स को ख़रीदना शुरू कर दें—उनके बीच इफेक्टिव डिमांड पैदा करना सरकार का काम है। स्वास्थ्य तंत्र का विकास तो सरकार की प्राथमिकता सूची से ही ग़ायब है।
इन अफ़्रीक़ी देशों के हालात से भारत को सबक़ भी लेना होगा कि कैसे नवउदारवाद ने स्वास्थ्य तंत्र को प्रभावित किया है। क्यूंकी इस बीमारी से पार पाने के लिए सुव्यवस्थित, मज़बूत और सुसंगत स्वास्थ्य-तंत्र पहली आवश्यकता है फिर उसके बाद कोई अन्य चीज़।