समाजी
इंसाफ़ (social justice) और इकनॉमिक वेल-बीइंग
(well-being) के लिए ज़रूरी है कि समाज में स्ट्रकचरल चेंज लाया जाए, और यही तबदीली—स्ट्रकचरल चेंज और मेयार-ए-ज़िन्दगी (standard of living) में बेहतरी—ही, दरअस्ल,
तरक़्क़ी (development) है.
सियासी
आज़ादी के सिर्फ़ उसी वक़्त कुछ माने होते हैं जब की लोगों को तरक़्क़ीयाती सरगरमियों
के नतीजे में समाजी इंसाफ़ मिले और उनकी ज़िंदगी पहले के मुक़ाबले में बेहतर हो. ज़राअत (agriculture), सिनअत (industry), साइन्स, टेक्नोलोजी, सेहत, तालीम, ग़र्ज़ कि हर शोअबा-ए-ज़िन्दगी में हमारी
पॉलिसियां इसी उसूल के तहेत वज़अ कि गईं हों और पाए-तक्मील को पहुंचायी गईं हों. अब
सवाल उठता है कि इन पॉलिसियों को बनाता कौन है? एक मुनज़्ज़म
मईशत (economy) में पॉलिसियों को बनाने में इन्सटीट्यूशन
(इदारों) का अहेम किरदार होता है.
माहीरीन-ए-इक़्तसादियात
(economists) और सियासी-ओ-समाजी साइन्सदानों (social
and political scientists) के बीच, एक तरह से, यह इत्तेफाक़े राय है कि डगलस नॉर्थ (Douglas North) का यह मफ़रूज़ा—एक मुआशरे की समाजी, इक़्तसादी, क़ानूनी और सियासी तंज़ीमें यानी इसके “इदारे” (“institutions”) इसकी इक़्तसादी कारकरदगी (performance) का
बुनियादी उंसुर है. इन्स्टीट्यूशन लिज़्म की सारी बहेस, मोटे तौर पर, दो
मफ़रुज़ों (propositions) पर मुश्तमिल है: अव्वल, इदारे माने रखते हैं या यूँ कहें कि इन से फ़र्क़ पड़ता है—वो मेयार (standard), अक़ाएद (belief) और आमाल (actions) को मुतास्सिर करते हैं, लिहाज़ा वो नताएज (outcomes) की तश्कील करते हैं.
दूसरे, इदारे एण्डोजेनस (endogenous) हैं—उनकी शकल और उनके कामकाज उनके ज़हूर (emergence) और
बक़ा (endurance) के हालात पर मुनहसर होते हैं. मतलब यह कि, मुआशरे का समाजी निज़ाम और दीगर इन्स्टीट्यूशन्स
एकदूसरे से असरअंदाज़ भी होते हैं और एकदूसरे को असरअंदाज़ भी करते हैं. बअल्फ़ाज़े दीगर, समाजी इंसाफ़ ओ तरक़्क़ी के लिए समाज और इसके इन्स्टीट्यूशन्स को
ज़्यादा से ज़्यादा डेमोक्रेटाईज़ करना होगा.
तारीख़ी
एतबार से,
हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज में, तब्क़-ए-अशराफ़ का इन्स्टीट्यूशन्स (समाजी, मआशी और सक़ाफ़ती) पर पूरा क़ब्ज़ा रहा
है जिसके नतीजे में उन्हों ने पॉलिसियों को अपने फ़ेवर में हमेशा असरअंदाज़ किया है और
पसमान्दा मुसलमानों को हमेशा हाशिये पर रखने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ा. मसलन, जब कभी मुस्लिम समाज के सबसे पिछड़ों (दलित मुसलमान)
को मुसबत कार्रवाई (affirmative action) के ज़रिये, तरक़्क़ी की सहूलतों तक उनकी रसाई बढ़ाने और मसावात को फ़रोग़ देने के लिए कोई
कारगर टूल (पढ़िये 1950 के प्रेसीडेनशियल ऑर्डर की वापसी) की बात की जाती है तो ये तब्क़ा—तब्क़-ए-अशराफ़
(सवर्ण मुसलमान) टोटल मुस्लिम रिज़र्वेशन [टी॰एम॰आर॰] जैसी कम्यूनल मांग उठा कर पूरे
मूवमेंट में ख़लल डालने की, सैबोटाज करने की कोशिश करते हैं. चुनाँचे, हिंदुस्तानी मुस्लिम समाज और इन्स्टीट्यूशन्स का डेमोक्रेटाईज़ेशन
नागुज़ीर है, और इस अमल के लिए अशद ज़रूरी
है पसमान्दा मुसलमानों की सियासी इक़्तेदार में उनकी जायज़ हिस्सेदारी.