Tuesday, February 12, 2013

बारहवीं पंचवर्षीय योजना और जन-स्वास्थ्य


बारहवीं पंचवर्षीय योजना के मसौदे में भारत के जन-स्वास्थ्य की समस्याओं को स्वीकार करने के लिए सराहना की जानी चाहिए. इस मसौदे की ख़ास बात यह है कि इसमें व्यापक स्वास्थ्य परिचर्या प्रदान करने की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है; और साथ ही, यह संचारी रोगों, निवारक स्वास्थ्य परिचर्या तथा ग्रामीण स्वास्थ्य परिचर्या का उन्नयन इंडियन पब्लिक हेल्थ स्टैण्डर्ड (आई॰पी॰एच॰एस॰) मानकों के अनुरूप करने के लिए ज़िले को स्वास्थ्य सेवाओं की योजना, प्रशिक्षण और सेवा प्रदाय के लिए इकाइयों के रूप में देखता है. इस ड्राफ्ट में पूंजी निवेश और मानव संसाधन अंतराल को पाटने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया गया है. इन प्रस्तावों की पूर्ति के लिए अपेक्षित पूंजी निवेश की प्रतिबद्धताओं के बारे में थोड़ा संशय ज़रूर है. इस संशय का कारण यह कि ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में केंद्र व राज्यों में एक साथ वर्ष 2006-07 में स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद (जी॰डी॰पी॰) के एक प्रतिशत से कम व्यय को आगामी वर्षों में बढ़ाकर 2 प्रतिशत से 3 प्रतिशत करने की पुरज़ोर वकालत की गयी थी और यह लक्ष्य अभी भी आकाश कुसुम बना हुआ है. गरचे, मसौदा का दावा है कि ग्यारहवीं योजना के अंत तक—2011-12 बजट अनुमान के आधार पर—स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के सकल घरेलू उत्पाद के 1.4 प्रतिशत तक पहुँचने की संभावना है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों के स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय के रुझानों को देखते हुए इस दावे को पूरा होने मे संशय है. हालांकि कुल स्वास्थ्य बजट बढ़ाना योजना आयोग के दायरे में नहीं है, पर यह पूंजी निवेश के संदर्भ में ठोस क़दम तो उठा ही सकता है क्योंकि पूंजी निवेश का बड़ा हिस्सा योजना आयोग के ही ज़रिए आता है. गोकि, मसौदा शहरी क्षेत्रों में प्राथमिक स्वास्थ्य परिचर्या की कमी मानता है, फिर भी एक वैध आशंका है कि उपचारात्मक स्वास्थ्य परिचर्या की ज़िम्मेदारी को निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया जाएगा; जबकि निवारक और कम गुणवत्ता की स्वास्थ्य परिचर्या सार्वजनिक प्रणाली के माध्यम से प्रदान की जाएगी.

मसौदे का प्रस्ताव है कि जहाँ स्वास्थ्य परिचर्या का प्रावधानीकरण बड़े पैमाने पर निजी क्षेत्र के माध्यम से किया जाता है, वहाँ एक सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित स्वास्थ्य प्रणाली खड़ी की जाए. उच्च स्तरीय विशेषज्ञ समूह स्वास्थ्य ने इस बात की पुरज़ोर वकालत की है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के वित्तपोषण के लिए कर के साथ-साथ बीमा आधारित प्रणाली भी प्रयोग करना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि बीमा आधारित प्रणाली सिर्फ़-और-सिर्फ़ तभी प्रभावी हो सकती है जब स्वास्थ्य सेवाओं के विनयमन और प्रावधानीकरण में सरकार की महति भूमिका हो. मिसाल के तौर पर, थाईलैंड और कोस्टारिका जैसे देश अपनी मजबूत सार्वजनिक प्रणाली की ही बिना पर, बीमा आधारित प्रणाली का प्रयोग कर के, उचित क़ीमत पर व्यापक स्वास्थ्य परिचर्या कवरेज सुनिश्चित करने में सफल रहे हैं. परंतु भारत में, जहाँ सार्वजनिक प्रणाली व सार्वजनिक सेवाओं का प्रावधानीकरण काफ़ी कमज़ोर है वहाँ बीमा आधारित प्रणाली के सफल होने की प्रायियकता अत्यंत क्षीण नहीं तो कम ज़रूर है. इस क्रम में, बीमा आधारित प्रणाली के सफल होने के लिए, करना तो यह चाहिए कि पहले हम एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली खड़ी करें जो अच्छी गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य परिचर्या प्रदान करने मे सक्षम हो फिर सोंचे कि वित्त पोषण की कौन सी प्रणाली काम में लाई जाए. दूसरी ओर, अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन यह भी बताते हैं कि, ख़ास तौर पर विकासशील व निम्न आय वाले देशों में स्वास्थ्य बीमा ने कोई क़बीले क़बूल नतीजे नहीं दिये हैं. स्वीडन वासी विख्यात स्वास्थ्य अर्थशास्त्री एकमैन, अपने निम्न-आय वर्गीय देश—ज़ाम्बिया के अध्ययन से इस नतीजे पर पहुँचे कि स्वास्थ्य बीमा, आम समझदारी के विपरीत, विपत्तिपूर्ण भुगतान के जोखिम के ख़िलाफ़ किसी भी तरह से वित्तीय सुरक्षा प्रदान नहीं करता है बल्किवास्तव में, बीमा इस जोखिम को और बढ़ाता है.

भारत में, स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधानीकरण मे निजी क्षेत्र हावी है, पर यह क्षेत्र बड़े पैमाने पर अल्प-विकसित और पूरी तरह से अनियमित है. साथ ही, इस क्षेत्र के प्रसार और वितरण, देखभाल की गुणवत्ता—या वास्तव में इसकी “क्षमता”—के बारे में बुनियादी आंकड़े तक उपलब्ध नहीं है. निजी क्षेत्र की प्रकृति को देखते हुए, बाज़ार विफलताएँ बड़े पैमाने पर होंगी और नैतिक जोखिम की समस्याएँ होने की भी प्रबल संभावना है; केरला इन समस्याओं—बाज़ार विफलता एवं नैतिक जोखिम (मॉरल हज़ार्ड) का जीता-जागता उदाहरण है. नैतिक जोखिम आगे चल कर लागत को तो बढ़ाएँगे ही और साथ में अनावश्यक और अनियमित प्रौद्योगिकियों के उपयोग को भी प्रोत्साहित करेंगे. वैश्विक अनुभव बताता है कि विनियमन की लागत, निजी क्षेत्र के वर्चस्व वाली स्वास्थ्य प्रणाली में, अमूमन, बीमा की कुल लागत का एक तिहाई है. अगर ऐसा हुआ तो, सरकार का विनियमन पर ख़र्च, वर्तमान में स्वास्थ्य ख़र्च से ज़्यादा होगा. ऐसे महंगे मॉडल को अपनाना, स्पष्ट रूप से, समझदारी नहीं है.

यद्द्पि निजी क्षेत्र को विनियमित करने के लिए बिल तैयार किया जा चुका है, तथापि यह गणना और सेवा के मूल गुणवत्ता के बारे में ही बात करता है, लेकिन लागत और तकनीकी से सम्बंधित मामले बिल में शामिल नहीं हैं. बढ़ते हुए जेबी (आउट ऑफ पॉकेट) ख़र्च का एक प्रमुख कारण है—जिसे मसौदे को अवश्य ही ध्यान मे रखना चाहिए—निजी क्षेत्र में लागत और प्रौद्योगिकियों का अनियमित उपयोग. साल दर साल, निराशाजनक रूप से, घटता बाल-लिंग अनुपात प्रौद्योगिकियों के अनियमित उपयोग की ही देन है. यह कोई छुपी हुई बात नहीं है कि किस प्रकार, अक्सर डॉक्टर की शह पर, मरीज़ों को ग़ैर ज़रूरी जाँच व डाएग्नोसिस के लिए प्रोत्साहित, या यूँ कहें कि मजबूर, किया जाता है. प्रौद्योगिकियों का अनावश्यक इस्तेमाल, निश्चित तौर पर, लागत को बढ़ाता है. नई दिल्ली में पूरे शरीर की स्कैनिंग करने वाले केन्द्रों (फुल बॉडी स्कैनिंग सेंटर) की कुल संख्या लंदन में काम कर रहे सेंटरों की कुल संख्या के तीन से चार गुनी है, और मज़ेदार बात यह है कि नई दिल्ली के ये सभी केंद्र अच्छा और तेज़ कारोबार कर रहे हैं. स्वास्थ्य सेवाओं मे लागत को कम करने और प्रौद्योगिकियों को विनियमित करने के लिए सक्षम होने के लिए, सरकार को, मज़बूत राजनीतिक इच्छा-शक्ति रखनी होगी. बारहवीं योजना, संस्थागत माध्यम के ज़रिये ऐसा करने का एक अवसर है. ब्रिटेन में, हालांकि, आंशिक रूप से ही, ऐसी संस्थागत व्यवस्था है जिसने प्रौद्योगिकियों को विनियमित तथा लागत को कम किया है.

मसौदे में स्वास्थ्य परिचर्या प्रदान करने के लिए पीपीपी या ग़ैर-सरकारी संगठनों की भूमिका और भागेदारी बढ़ाने की ज़रूरत पर ज़ोर देता दिखाई देता है. दोनों­—पीपीपी और एनजीओ-ईकरण, दरअसल राज्य का अपनी भूमिका को संकुचित या पलटना (विथ्ड्रॉअल) करना है; ऐसा कोई प्रामाणिक अध्ययन नहीं है जो यह बताए कि ग़ैर-सरकारी संगठन अन्य संस्थाओं की अपेक्षा अधिक न्यायसंगत या अधिक कुशल हैं.

बीमा आधारित मॉडल की एक और स्पष्ट कमी यह है कि यह, आम तौर पर, वाह्य चिकत्सा (आउट डोर) रोग को कवर नहीं करता है. स्वास्थ्य पर जेबी ख़र्च (आउट ऑफ पॉकेट) का एक बड़ा हिस्सा दवा, जाँच व परीक्षण और चिकित्सक के परामर्श के रूप में होता है. सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं में, दवा और जाँच का ख़र्च स्वास्थ्य पर जेबी ख़र्च का प्रमुख स्रोत हैं.

यह ड्राफ्ट, औषधि और चिकत्सीय जाँचों तक व्यापक पहुँच सुनश्चित करने की आवश्यकता की अनदेखी करता है. दवा की अबाध आपूर्ति की निश्चितता और भंडारण प्रणाली, और साथ ही, यूज़र फीस का उन्मूलन और दवा की आपूर्ति के लिए पर्याप्त धन आवंटन सहित कई मुद्दे हैं जो स्वास्थ्य परिचर्या की व्यापकता के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं. कई अफ्रीकी देशों आम जन तक स्वास्थ्य परिचर्या की व्यापकता को सुनिश्चित करने के लिए यूज़र फीस को अब वापस ले रहे हैं.

सार्वजनिक क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं में भारी सुधार के बिना, लोगों—ख़ास करके ग़रीब लोगों—का रुझान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग के लिए नहीं बढ़ाया जा सकता. निजी क्षेत्र का बढ़ता हुआ उपयोग विकल्प नहीं बल्कि मजबूरी है. देश के नीतिकार निजी क्षेत्र के उच्च प्रयोग को, निजीकरण को बढ़ाने और निजी क्षेत्र को अधिक राज्य सब्सिडी देने के लिए तर्क के रूप में प्रयोग करते हैं. जहाँ तक राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की बात है, यह दरअसल, चिकित्सा देखभाल के क्षेत्र में निजी क्षेत्र को दी गयी सब्सिडी का ही एक रूप है, जो समाज के उन तबक़ों के बीच “प्रभावी मांग” पैदा करती है जिनकी निजी चिकित्सा परिचर्या तक पहुँच बहुत ही कम है. सरकारी आंकड़ों से पता चलता है कि आर॰एस॰बी॰वाई॰ के लिए सूचीबद्ध अस्पतालों में निजी क्षेत्र मुख्य रूप से है.

ऐसा प्रतीत होता है कि, बीमा आधारित मॉडल चिकित्सा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने का हथकंडा है. दिलचस्प बात यह है कि बीमा आधारित मॉडल, एक ऐसा मॉडल है जो संयुक्त राज्य अमेरिका में भी पूर्णरूपेणु काम नहीं करता है (राष्ट्रपति ओबामा ने टिप्पणी की है कि उनके देश को बीमा कंपनियों ने बंधक बना रखा है) और इसी मॉडल को अपनाने के लिए भारत जैसे देश—जहाँ ग़रीबी अत्यंत उच्च स्तर पर है, जनसंख्या का एक बड़ा अनुपात अनौपचारिक क्षेत्र में है—को सुझाव दिया जा रहा है. यह मॉडल प्रौद्योगिकियों के अत्यधिक और अनावश्यक उपयोग, नैतिक जोखिम की समस्याओं और उच्च लागत को बढ़ाता है.

सार्वजनिक सुविधाओं के प्रावधानीकरण के बीच, सामाजिक समानता का गंभीर मुद्दा भी क़ाबिले ग़ौर है. गोकि, इस मुद्दे को मज़बूती देने के लिए कोई आंकड़े नहीं हैं—वास्तव में इस डेटा की अत्यंत आवश्यकता है—निजी मेडिकल कॉलेजों, अस्पतालों एवं नर्सिंग होम आदि निजी-संस्थानों पर, बड़े पैमाने, पर उच्च जाति/वर्ग के लोगों का प्रभुत्व रहा हैं. इस प्रकार इन संस्थानों तक आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़ों, ग़रीबों, अनुसूचित जातियों, जनजातियों और मुसलमानों, की न केवल रसाई कम है बल्कि ये संस्थाएं इन्हें सोशली एक्सक्ल्यूड भी कर रही हैं. इसलिए, ज़रूरत एक ऐसे सार्वजनिक स्वास्थ्य परिचर्या प्रणाली की है जो सभी सेवाएँ—प्राथमिक से लेकर तृतीयक; निवारक से लेकर उपचारात्मक चिकित्सा सेवाओं की गुणवत्ता सहित प्रावधानीकरण को दृढ़ बना सके. हम को महामारी विज्ञान के आँकड़े, निगरानी प्रणाली और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं आदि की भी अत्यंत ज़रूरत है. मुझे नहीं लगता कि, बारहवीं पंचवर्षीय योजना के इस मसौदे में, इन मुद्दों को उजागर करने के अवसर को गँवा दिया जाया जाए.